Saturday, 16 February 2019

वर्ष का 6 वां रविवार:हिंदी मनन चिन्तन (February 17, 2019)



यिरमियाह 17,5-8
1कोरिंथियों 15,12.16,20
लूकस 6,17.20-26

प्रभु ने इंसान को सृष्टि का शीर्ष बनाया और उसे प्रज्ञा व ज्ञान से नवाजा। ईष्वर द्वारा प्रदत प्रज्ञा व ज्ञान की बदौलत इंसान ने इतिहास में कई प्रकार की खोजें और आविष्कार किये हैं। जिसने मनुष्य के जीवन को कई मायनों में एक आरामदायक व सुख-सुख सुविधाओं से सम्पन्न बना दिया है। कभी कई किलोमिटर पैदल यात्रा करने वाला मानव आज हवाई जहाज में बैठकर हजारों मील महज घंटों में तय कर लेता है। कई बिमारियां जो लाईलाज थी आज उनका इलाज खोज लिया है। मृत्यु दर परिणामस्वरूप कम हो गई है। कई प्रकार की मशिनों ने जटिल से जटिल कामों को आसान कर दिया है। कम्युटर विज्ञान की क्रांति ने तो हर दिशा में विसमयकारी काम किया है। आजकल अर्टिफिष्यल इंटेलिजेंस याने कृत्रिम दिमाग का विकास किया जा रहा है। याने मानव ऐसी मशीन अथवा रोबोट बना रहा है जो मनुष्य की तरह काम कर सकता है। अप्राकृतिक रूप से अर्थात कृतिम तरीकों से बच्चे पैदा करने के भी कई जुगाड मानव ने किये हैं। अंतरिक्ष की उडान भरकर इंसान चांद तारों की सैर करके भी आया है। और एक दिन वहां पर दुनिया बसाने के ख्वाब भी देख रहा है। ज्ञान और विज्ञान ईष्वर द्वारा प्रदत्त एक अमुल्य दान है। परन्तु इस पर मनुष्य की निर्भरता और भरोसा इतना अधिक हो गया है कि वे इसके स्रोत ईष्वर को ही भूल रहे हैं। किसी को अपने ज्ञान का गुरूर है तो किसी को अपनी संपत्ति का, किसी को  अपनी शारीरिक शक्ति का भरोसा है तो किसी को किसी व्यक्ति विषेष पर भरोसा है। प्रभु अपने वचन द्वारा हमें चेतावनी चेतावनी देते हैं सूक्ति ग्रंथ 3,5 में - ‘‘तुम सारे हदय से प्रभु का भरोसा करो। अपनी बुद्धी पर निर्भर मत रहो’’। संत लूकस 12,13 में हम मूर्ख धनी का दृष्टांत सुनते हैं जिसे अपने धन पर इतना भरोसा होता है कि वह पूरी जिंदगी ऐशो- आराम में गुजारने के ख्वाब देखता है। पर प्रभु उससे कहते हैं रे मूर्ख तेरे प्राण आज ही तुझसे ले लिये जायेंगे तो फिर तेरी इस संपत्ति का क्या होगा जिसे तूने इकट्ठा किया है?
आज के पहले पाठ में प्रभु मनुष्यों पर भरोसा रखने वालों को धिक्कारते हुए कहते हैं - ‘‘धिक्कार उस मनुष्य को, जो मनुष्यों पर भरोसा रखता है।’’
परन्तु जो ईश्वर पर भरोसा रखता है उसे प्रभु धन्य कहते हुए कहते हैं - ‘‘धन्य है वह मनुष्य जो प्रभु पर भरोसा रखता है, जो प्रभु का सहारा लेता है। वह जलस्रोत के किनारे लगाये गये वृक्ष के सदृश्य है, जिसकी जडें पानी के पास फैली हुई हैं। वह कडी धूप से नहीं डरता, उसके पत्ते हरे भरे बने रहते हैं। सूखे के समय भी उसे कोई चिंता नहीं होती क्योंकि उस समय भी वह फलता है।’’
फलिप्प्यिों को लिखे पत्र 4,6 में प्रभु का वचन कहता है - ‘‘किसी बात की चिंता न करें हर जरूरत में प्रार्थना करें और विनय तथा धन्यवाद के साथ ईष्वर के सामने अपने निवेदन प्रस्तुत करें।’’
जो मनुष्य अपने सभी कामों में ईश्वर पर भरोसा रखता है उसकी जडें ईश्वर  में है और उसे किसी भी प्रकार की प्रतिकूल अथवा विकट परिस्थिति में भी डरने व घबराने की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि इस दुनिया का धन, इस दुनिया की ताकत, इस दुनिया की तकनीकियां, व इस दुनिया की दवाईयां हमें कुछ क्षणों का आराम व सकून तो दे सकती हैं परन्तु हमेशा की जिंदगी नहीं दे सकते। हमेशा की जिंदगी सिर्फ येसु ही दे सकता है। संत योहन 10,10 में प्रभु हमसे कहते हैं - ‘‘चोर केवल चुराने मारने एवं नष्ट करने आता है। मैं इसलिए  आया हूं कि वे जीवन प्राप्त करे, परन्तु हमेशा का जीवन प्राप्त करे।’’ इसलिए मसीह पर हमारा भरोसा केवल इस दुनिया के लिए नहीं परन्तु इस दुनिया के बाद आने वाले जीवन के लिए है। इसलिए आज के दूसरे पाठ में संत पौलुस हमें बतलाते हैं - यदि मसीह पर हमारा भरोसा केवल इस जीवन तक ही सीमित है तो हम मनुष्यों में सबसे दयनीय हैं।’’ (1 कुरिंथयों 15, 19)
प्रभु येसु हमें इस दुनिया की ही खुशी, आनन्द और जीवन देने नहीं परन्तु इस दुनिया से परे, हमारे धन-दौलत से परे, हमारे ज्ञान-विज्ञान से परे, व हमारी बुद्धी से परे एक ऐसा जीवन देने आये जिसकी खुशी का, जिसके आनन्द का कोई अंत नहीं। क्योंंकि सारी खुशी, शांति और आनन्द का स्रोत ईश्वर स्वयं वहां उनके साथ रहेगा। इसलिए प्रभु येसु आज के सुसमाचार में गरीबों को धन्य कहते हैं जो अपने धन पर नहीं परन्तु ईष्वर पर व उसकी कृपा पर आश्रित रहते हैं। उनका भरोसा ईश्वर पर रहता है। और ऐसे लोगों के लिए ईश्वर ने स्वर्ग राज्य देने का वादा किया है। प्रभु इन्हें धन्य कहते हैं जो अभी भूखे हैं वे तृप्त किये जायेंगे, जो अभी रोते हैं वे हँसेंगे।
  प्रभु पर भरोसा व विश्वास करने के  कारण लोगों के बैर के शिकार व निंदा सहने वालों से प्रभू कहते हैं-
आनन्दित होना, क्योंकि देखो, तुम्हेँ स्वर्ग में बड़ा पुरस्कार प्राप्त होगा।
परन्तु जो जो इस दुनियां में अपना सुख खोजते व ईश्वर को त्यागकर दुनियांवी चीजों पर भरोसा रखने वालों को येसु कहते हैं-
धिक्कार तुमको जो धनवान हो, क्योंकि तुम अपनी शान्ति यहीं पर पा चुके हो।
धिक्कार तुम को जो अभी तृप्त हो, तुम भूखे रहोगे: धिक्कार तुम को; जो अब हंसते हो, तुम शोक करोगे और रोओगे।
प्यारे विश्वासियों आज निर्णय करिये कि हमें इस दुनियां के सुखों, इस दुनियां की ताकतों, व इस दुनियां के साधनों पर भरोसा रख कर क्षणिक सुख और शांति पाना है या फिर प्रभु पर भरोसा रख कर कभी न खत्म होने वाली खुशी व आनंद पाना है। प्रभु हम हैं सही चुनाव करने की कृपा दे आमेन।


Saturday, 9 February 2019

वर्ष का पाँचवा, रविवार हिंदी मनन चिंतन (February 10, 2019)

इसायाह 6,1-2.3-8
1कुरिन्थियों 15, 1-12
मत्ती 5, 1-11
Homily Reflections by Rev.  Fr. Pius Lakra SVD

‘‘मैं किसको भेजूं, मेरा संदेश कौन लेके जाएगा,

फिर मैंने कहा - मैं यहाँ प्रस्तुत हूँ मुझे लीजिए।’’

आज सामान्य काल का पांचवाँ रविवार है। आज के पाठों के द्वारा प्रतीत होता है कि अपने सन्देश/सुसमाचार को दूसरों तक पहुँचाने के लिए, ईश्वर को हमारी आवश्यकता है - चाहे वह एक सहभागी के तौर पर हो या फ़िर शिष्य के तौर पर या एक सन्देशवाहक के तौर पर।

पहले पाठ में नबी इसायाह के दिव्य दर्शन या बुलावे के बारे में वर्णन है तो वहीं आज दूसरे पाठ में संत पौलुस उनकी खुद की बुलाहट का वर्णन करते हैं और सुसमाचार में हम येसु के प्रारंभिक शिष्यों के बुलावे का वर्णन पाते हैं।

ईसा पूर्व सातवीं सदी में तत्कालीन यूदा के राजा उज़्ज़ीया के मृत्यु वर्ष में, नबी इसायाह को बुलावा मिला। इस पाठ के अनुसार नबी इसायाह को ईश्वर का दर्शन मिलता है और इसका संदर्भ है मंदिर का वातावरण तथा पूजा अर्चना का मुहूर्त। नबी इसायाह को एहसास होता है कि ईश्वर अति पवित्र, शक्तिशाली, और मनुष्य से परे है। उनकी वाणी से सब कुछ काँपता है वे सर्वशक्तिमान है। धुआँ उनकी पूर्ण उपस्थिति को प्रतीत करता है । ईश्वर के पवित्र होने के ठीक विपरीत, नबी इसायाह को अपनी मानवीय स्थिति जो कि बिल्कुल पापमय, अपवित्र है का एहसास होता है। लेकिन स्वर्ग दूत, नबी इसायाह की जिव्हा में अंगार से स्पर्श कर उन्हें पवित्र करते हैं तथा उन्हें नबी बनने के लिए आह्वान करते हैं। ईश्वर अति पवित्र है, और पवित्रतम् ईश्वर के कार्य करने के लिए पवित्र व्यक्ति चाहिए, शुध्दीकरण नितांत आवश्यक है।

संत पौलुस कहते हैं, “मैं जो हूँ वह प्रभु की कृपा से, और ईश्वर की कृपा मेरे प्रति व्यर्थ नहीं”। दूसरा पाठ कुरिन्थयों के पहले पत्र अध्याय 15:1-11 से लिया गया है जहाँ हम पाते हैं कि प्रभु येसु ख्रीस्त ने संत पौलूस को सुसमाचार की घोषणा करने के लिए चुन लिया है और जो सुसमाचार वह घोषित करता है वह उन्हें ईसा मसीह से मिला है और यह ईश्वर की कृपा है तथा इस बुलावे को क्रियान्वित करने के लिए वह लगन से परिश्रम करता है। प्रभु की कृपा से कोई भी सुसमाचार प्रचारक बन सकता है इसके लिए प्रभु का बुलावा आवश्यक है साथ-साथ जीवन में परिवर्तन या बदलाव भी जरूरी है।

प्रभु अयोग्य को भी योग्य बनाता, जो अपने आप को खाली, नगण्य करता उसे ईश्वर संपूर्ण करता है। “जाल गहरे पानी में डालो”। संत लूकस के सुसमाचार अध्याय 5:1-11 में संत लूकस येसु के प्रारंभिक शिष्यों के बुलावे के बारे में वर्णन करते हुये बताते हैं कि वे व्यवसाय से मछुवारे थे। चमत्कारिक तरीके से, येसु के आदेशानुसार, "आपके कहने पर..." जाल डालने पर उन्हें अनोखा अनुभव होता है।

येसु मसीह सभी व्यवसाय में माहिर हैं पारिवारिक पेशे से बढ़ाई होते हुए भी उन्हें मछली मारने का सूत्र और मंत्र मालूम है। इससे हमें येसु सिखाते है कि वे हमारे जीवन में चमत्कार करते हैं, यदि हम उनकी सुनते हैं।

इस घटना के द्वारा उन्होंने येसु को पहचान लिया और सब कुछ छोड़ कर येसु के शिष्य हो गये और उनके पीछे हो लिये। इसके पूर्व वे किसी और व्यवसाय, धन्धे के पीछे जाते थे। अब वे येसु के पीछे जाएगें और उनकी बातों पर ध्यान देगें। ईश्वर जिनको चाहता है उनको बुलाता है किसी भी परिस्थिति में और परिस्थिति से। येसु के हस्तक्षेप के लिए हमें हमेशा तैयार रहना चाहिये। ईश्वर हमें अपने व्यवसाय के लिए कुशल और खुशहाल बनाते हैं। ईश्वर आपको भी बुला रहे हैं; क्या आप ईश्वर को एक मौका देगें?

✍ -फादर पयस लकड़ा एस.वी.डी

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Praise the Lord!

Saturday, 2 February 2019

वर्ष का ४ था रविवार: हिंदी प्रवचन (February 10, 2019)



मसीही प्रेम 

येरमियाह १:५,१७-१९ 
१ कुरिन्थियों १२:३१-१३:१३ 
लूकस ४: २१-३० 

प्रभु के  वचन में आज हम सुनते हैं संत पौलुस हम से कहते हैं - ‘‘मैं अब आप लागों को सर्वोत्तम मार्ग दिखाना चाहता हूँ।"  (१ कुरिन्थियों १२,३१) वह मार्ग क्या है? - वह मार्ग है प्रेम का मार्ग - वचन कहता है प्रेम सहनशील और दयालु है। प्रेम न तो ईर्ष्या  करता है, न डिंग मारता, न घमंड करता है। प्रेम अशोभनीय व्यवहार नहीं करता। वह अपना स्वार्थ नहीं खोजता। प्रेम  न तो झुँझलाता है और न बुराई का लेखा रखता है। वह दूसरों के पापों से नहीं बल्कि उनके सदाचरण से प्रसन्न होता है। वह सब कुछ ढाँक देता है, सब कुछ पर विश्वास  करता है सब कुछ की आशा  करता और सब कुछ सह लेता है’’ (1 कुरिन्थियों 13,4-7).  अक्सर  
ये सुनने को मिलता है कि बस-बस अब सहा नहीं जाता, बहुत हुआ अब।  पति पत्नि के बारे में, भाई बहन के बारे में, दोस्त दोस्त के बारे में यही कहा करते हैं। हम प्रभु येसु मसीह के प्रेम को देखें। उनका प्रेम सहनशील प्रेम हैं। उन्होंने कितना सहा उसका कोई अंदाजा नहीं है। उनका एक शिष्य  था यूदस स्कारियोति। उसके अंदर धन को लेकर इतना लालच था  और वह बहुत ही महत्वकांक्षी था। प्रभु येसु को ये मालुम था फिर भी सुसमाचार में हम पढते हैं कि प्रभु ने उसके हाथ में धन की जिम्मेदारी दी। प्रभु को मालुम था यूदस ही उन्हें पकडवायेगाा फिर भी उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में तक अपने अंतिम भोजन के समय यूदस को अपनी थाली में से लेकर रोटी खिलाई और अपना प्रेम दिखाया। कितना बडा प्रेम! कितन सहनशील प्रेम! प्रभु येसु का प्रेम दयालु प्रेम है। उन्हें करूणा का सागर कहा जाता है। सच्चा प्रेम डिंग नहीं मारता है। घमंड नहीं करता। प्रभु येसु में कोई घमंड नहीं था। मत्ती 11,28 में प्रभु येसु स्वयं कहते हैं मुझसे सिखो, मैं स्वभाव से नम्र और विनीत हूं। प्रभु येसु की नम्रता के बारे में फिलिपियों 2,-6-10 में हम पढते हैं कि वे ईष्वर थे और ईष्वर की बराबरी करने का उसको पूरा अधिकार था। पर उन्होंने अपने आपको दास बनाया। उन्होंने हर प्रकार के रोगी को चंगा किया। बडे बडे चमत्मार दिखाये; उन्होंने मूर्दों को जिलाया; उनके अंदर सामर्थ्य  था, शक्ति थी परन्तु कभी घमंड नहीं किया, वे नम्र थे विनीत थे। कभी डिंग नहीं मारते थे। वे लोगों के सामने अपने आपको छोटा बनाते थे। सच्चा प्रेम अशोभनीय व्यवहार नहीं करता। सम्मान करता  है। आज प्रेम के नाम पर कितने ही अशोभनीय  व्यवहार हो रहे हैं. प्रभु येसु ने सबों का सम्मान किया। संत लूकस19 में हम पढते हैं ज़केयुस जो कि एक पापी और बदनाम व्यक्ति था प्रभु येसु ने उसे इब्राहिम का पुत्र कहा। वे उसके घर गये और उनके यहां भोजन किया। जो भी उनके पास गया उनको उन्होंने ईष्वरीय प्रेम का एहसास दिया, सम्मान दिया। समाज से बहिष्कृत कोढियों को बडी ही नम्रता से स्पर्ष कर उन्हें चंगा किया। सच्चा प्रेम बुराई का लेखा नहीं रखता। मत्ती 18,21 में प्रभु येसु का शिष्य  पेत्रुस उनके पास आता और पूछता है कि प्रभु यदि कोई उनके विरूद्ध अपराध करता जाये तो उन्हें कितनी बार तक माफ किया जाये, सात बार तक। प्रभु उनसे कहते हैं कि सत्तर गुना सात बार माफ करना चाहिए। याने प्रभु पेत्रुस से कहा रहे हैं कि आप दूसरों के अपराधों का लेखा क्यों रखते हो? प्रभु हमारे अपराधों का लेखा नहीं रखता। और प्रभु हमारे अपराधों को नज़रअंदाज़ करता है। आगे हम पढते हैं कि सच्चा प्रेम दूसरों के पाप से नहीं उनके सदाचरण से प्रसन्न होता है। संत योहन 8  में हम एक पापिनी स्त्री के बारे में पढते हैं। सारे फरिसी उसके पापों को उजागर कर रहे थे। उसकी पापमय जिंदगी को उजागर कर रहे थे। परन्तु प्रभु येसु उसके पापों को ढंक देते और उससे कहते हैं - मैं भी तुम्हें दंड नही दूँगा शांति ग्रहण कर जाओ। हम तो फरसियों की तरह दूसरों की बुराईयों को जाहिर करने, दूसरों की कमियों को उजागर करने में माहीर हैं। प्रभु हमारी बुराईयों को नज़रअंदाज कर देते हैं। छोटा बना देते हैं। प्र्भु येसु के प्रेम में हम वे सारे गुण पाते हैं जो संत पौलुस के इस पत्र में बतलाए गये हैं। इस वचन के आधार पर हम अपने प्रेम को परखें। मेरा प्रेम कैसा  है? मेरे प्रेम  में कितनी सच्चाई है। आज हम प्रभु येसु मसीह से एक सच्चे प्रेम की सबक सिखें उनका पूरा जीवन एक मसीही के लिए, एक विश्वासी  के लिए एक आदर्श  हैं। एक मसीही या ईसाई  वही है जो मसीह का अनुसरण करता है और उनका अनुकरण करता है।  
अपने जीवन के अंतिम पलों में प्रभु येसु ने अपने शिष्यों  को बहुत ही महत्वपूर्ण शिक्षा दी जिसे हम संत योहन अध्याय 13 से लेकर 17 तक में पाते हैं. 13,34 में प्रभु कहते हैं - 
मैं तुम लोगों को एक नयी आज्ञा देता हूँ। तुम एक दूसरे को प्यार करो जिस प्रकार मैं ने तुम लोगों को प्यार किया उसी प्रकार तुम भी एक दूसरे को प्यार करो। यदि तुम एक दूसरे को प्यार करोगे तो उसी से लोग जान जायेंगे कि तुम मेरे  हो।  संत योहन के सुसमाचार 13,4 से लेकर हम पढते हैं प्रभु येसु अपने शिष्यों  के पैर धोते हैं,. यहूदी प्रथा में यह काम एक सेवक अथवा नौकर का है। वे कहते हैं कि तुम मुझे गुरू और प्रभु कहते हो और गुरू और प्रभु होते हुए भी यदि मैं ने तुम्हारे पैर धोये हैं तो तुम्हें भी अपने भाई बहनों के पैर धोना चाहिए। इतना बडा उदाहरण देने के बाद येसु ने कहा मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूँ - ‘‘एक दूसरे को प्यार करो, जैसे मैंने तुम्हें प्यार किया है वैसे ही तुम दूसरों को प्यार करो। क्यों जिससे कि लोग यह जान जायें कि तुम मेरे शिष्य  हो। येसु के शिष्य  होने की पहचान क्या है? गले में क्रूस या रोज़री पहनने से कोई ईसाई बनता है?, महज बपतिस्मा ग्रहण करने से क्या कोई येसु का शिष्य  बनेगा? ईसाई नाम रख लेने से  क्या कोई येसु का शिष्य बनेगा? मसीही होने की पहचान क्या है प्रभु स्वयं हमें बतलाते हैं। तुम्हारे प्रेम के द्वारा लोग  जान जायेंगे कि तुम मेरे शिष्य हो। प्रेम करना कितना कठीन है। वास्तव में प्रेम एक आध्यात्मिक गुण है। और वही व्यक्ति प्रेम कर  सकता है,  प्यार कर सकता है जो आध्यात्मिक है। और यही कारण है कि जिन स्थानों में आध्यात्मिकता नहीं है। जहाँ बहुत ज्यादा भौतिकतावाद है, उपभौतिकतावाद है, जहाँ शरीर पर ज्यादा जोर दिया जाता है, सांसारिकता पर ज्यादा जोर दिया जाता है वहाँ लोग प्रेम नहीं कर पाते हैं। और न ही उनका प्रेम टिकता है। हम अक्सर  जो करते हैं वो प्रेम नहीं है, प्यार नहीं है। अंग्रजी में दो शब्द हैं - एक है लव और दूसरा है लाइक।   हम जो अधिकतर करते हैं वो है लाइक करना, हम लव नहीं करते। अक्सर जिसको हम प्यार समझ रखें हैं वो प्यार नहीं, पसंद है। हमें कोई पसंद है क्योंकि हमें उसका शरीर पसंद है; उसकी नाक पसंद है; उसका चेहरा पसंद है; उसका हाव-भाव या फिर अदायें पसंद है; उसकी आँखें हमें पसंद हैं; उसकी बोली हमें पसंद है; उसकी चाल हमें पसंद है; उसकी प्रतिभायें हमें पसंद है; उसका व्यवहार हमें पसंद हैं। अक्सर जिसे हम प्यार कहते हैं वो वास्तव में पसंद है। ईश्वर  के प्रेम और संसार के प्रेम में  क्या अंतर है? एक विश्वासी  के प्रेम और एक अविष्वासी के प्रेम में क्या अंतर है? संत मत्ती के सुसमाचार 5,46-47 में प्रभु हमें समझाते हैं - यदि तुम उन्हीं से प्यार करते हो जो तुम्हें प्यार करते हैं तो इसमें पुरस्कार का दावा कैसे कर सकते हो? गैरयहूदी भी तो ऐसा ही करते हैं। याने गैर ईसाई भी तो ऐसा ही करते हैं। और यदि तुम अपने ही भाईयों को नमस्ते करते हो तो इसमें कौन सा बडा काम करते हो? गैर यहूदी भी तो ऐसे ही करते हैं। हम अक्सर प्यार करते हैं। लेकिन किसको? अपने ही लोगों को। अपने माता-पिता को, अपने भाई-बहनों को, अपने बच्चों को, अपने रिश्तेदारों को, अपने परिजनों को, अपने गोत्र के लोगों को, अपनी भाषा या बोली वाले लोगों को। हम उनके यहाँ आना जाना करते हैं जो हमारे यहाँ आते जाते हैं। हम उनकी मदद करते हैं जो हमारी मदद करते हैं। हम उनका भला चाहते हैं जो हमारा भला चाहते हैं। हम उनको बढावा देते हैं जो हमें बढावा देते हैं। क्या यह ईश्वरीय  प्रेम है? प्रभु येसु ने कहा कि जिस प्रकार मैं ने तुम्हें प्यार किया वैसे ही तुम एक दूसरों को प्यार करो। ईष्वर ने हमें किस प्रकार प्यार किया? योहन 3,16 में हम पढते हैं - ‘‘ईष्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने उसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया ताकि जो कोई उसमें विश्वास  करे उसका विनाश  न हो बल्किा वह अनन्त जीवन प्राप्त करे। ईष्वर ने संसार से इतना प्यार किया कि उसके लिए अपने एकमात्र बेटे को कुर्बान कर दिया। वास्तव में प्रभु येसु ने सारे संसार के लिए अपने आपको आर्पित कर दिया। इसी बात को प्रभु येसु संत योहन 15,13 में कहते हैं -  प्रे‘‘इससे बडा कोई प्रेम नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिए अपने प्राण अर्पित कर दे।’’ इससे बडा कोई प्रेम हो सकता है क्या? प्रभु ने हमसे कोई मीठी बोली नहीं बोली, प्रभु ने हमें कोई संदेश  मात्र नहीं दिया। हमे प्रेम  का प्रवचन मात्र नहीं दिया, हमें उन्होंने प्रेम का सिर्फ वरदान ही नहीं दिया परन्तु उन्होंने अपने का प्रमाण अपने प्राणों की बली देकर दिया। स्तोत्र 103, 11 में वचन हम से कहता है - ‘‘आकाश पृथ्वी के ऊपर जितना ऊँचा है, उतना महान है अपने भक्तों के प्रति प्रभु का प्रेम।" प्रभु येसु बिल्कुल निर्दोष थे, उनका कोई दोष था। फिर भी उन्हें  पर चढाया गया। उन वेदना भरे क्षणों में भी उन्होंने अपने विरोधियों और अत्याचारियों को यह कह कर माफ कर दिया - हे पिता इन्हें क्षमा कर कि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। उनको सताने वाले उन पर जुल्म ढाने वालों की वे भलाइ्र्र की बात करते हैं। उन्हें दंड से व मौत से बचाने का वे पिता से निवेदन करते हैं। कितना महान प्रेम!  यदि हम अपने को ईसाई मानते हैं  तो हमें सच्चे प्रेम की राहों को अपनाना होगा , लोग हमें  नाम से नहीं हमारे जीने के तरीके से  जाने कि हम ईसाई  हैं।  लोग हम में येसु के प्यार की झलक देखें। आमेन