कुछ दिन पहले प्रख्यात पेंटेकोस्टल पास्टर बेन्नी हिन् का एक वीडियो देखने को मिला जिसमें वे पवित्र यूखरिस्त के बारे में बतलाते हुए कहते हैं कि एक अध्ययन में ये सामने आया है कि कैथोलिक चर्च में पवित्र यूखरिस्त के दौरान ज्यादा लागों को चंगाई मिलती है। क्योंकि वे पवित्र यूखरिस्त में विश्वास करते हैं। अपने चर्च का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि उनके लिए तो यूखरिस्त में प्रभु येसु की केवल प्रतीकात्मक उपस्थिति होती है। परन्तु प्रभु येसु ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा कि - ‘‘ले लो और खाओ। यह मेरा शरीर है” (मत्ती 26:26)। उन्होंने यह नहीं कहा कि यह रोटी मेरे शरीर का प्रतीक है। पर उन्होंने कहा यह मेरा शरीर है। और संत योहन 6:53 में भी प्रभु येसु ने स्पष्ट कहा है - ‘‘यदि तुम मानव पुत्र का मांस नहीं खाओगे और उसका रक्त नहीं पियोगे, तो तुम्हें जीवन प्राप्त नहीं होगा”।
प्रभु येसु के इस संसार में आने का उद्देश्य ही यह था कि उनके द्वारा हमें अनन्त जीवन प्राप्त हो। संत योहन 3:16 में लिखा है - ‘‘ईश्वर ने संसार को इतना प्रेम किया कि उसने उसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो कोई उस में विश्वास करता है, उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे”। अनन्त जीवन का खजाना, अनन्त जीवन का उपहार पवित्र यूखरिस्त में छिपा है।
द्वितीय वैटिकन महासभा सिखलाती है कि पवित्र युखरिस्त कलीसिया के जीवन का स्रोत और उसकी पाराकाष्ठा है। (Lumen Gentium, 11) इसी से कलीसिया को जीवन मिलता है और इसी में कलीसिया का अंतिम लक्ष्य निहित है। अन्य संस्कारों में तो हमें ईश्वर की कृपा मिलती है परन्तु पवित्र यूखारिस्त में तो हमें कृपाओं को प्रदान करने वाला ईश्वर स्वयं प्राप्त होता है। क्योंकि यूखरिस्त तो स्वयं प्रभु येसु ही हैं, और बिना उनके कलीसिया की कल्पना करना संभव नहीं।
पर एक बडा सवाल यह उठता है कि इस प्रभु येसु को ग्रहण करने वालों ने उन्हें कितनी गहराई से समझा है? क्या आपने कभी कल्पना की कि यदि आप भी प्रभु येसु के समय उनके साथ होते और आपको उन्हें स्पर्श करने का अवसर मिलता! कितना सुखद और कितना अनुग्रहकारी क्षण होता वह, है न? अगर छूना नहीं मिलता तो कम से कम उनकी एक झलक भी देखने को मिल जाती तो भी हम तो अपने को बडा सौभाग्यशाली मानते, है न? माँ मरियम की महानता पर प्रवचन देते समय मैं कई बार इस बात को रखता हूँ कि वे इसलिए महान मानी जाती है क्योंकि उन्होंने ईश्वर के पुत्र को नौ महिनों तक अपने गर्भ में रखा। उन्होंने सृष्टिकर्त्ता को नौ महिनों तक अपनी कोख में रखा। जरा विचार कीजिए कि यदि सिर्फ नौ महिनों तक येसु की देह को अपने गर्भ में रखने से यदि माता मरिय सब नारियों में धन्य बन गई तो हर रविवार या फिर हर रोज उसी येसु को अपने दिल में ग्रहण करने वाले हम कितने महान हो सकते हैं। क्या हम इस बात को दिल से मानते हैं कि हमारे दिल में रोज आने वाला येसु वही येसु है जो मरियम के गर्भ में था? क्या यह वही येसु है जो जोसफ और मरियम के साथ नाज़रेथ में करीब तीस साल रहा? क्या यह वही येसु है जिसने अंधों को आँखें और मुर्दों को जान दी? जी हाँ यह वही प्रभु है.
तब दूसरा सवाल यह खडा होता है कि यदि प्रभु येसु अपनी उसी महिमा में पवित्र यूखरिस्त में हमारे दिल में आते हैं तो फिर हमें जो उन्हें ग्रहण करते हैं उस प्रभु की उपस्थिति का प्रभाव हमारे जीवन में क्यों नहीं पडता? पवित्र यूखरिस्त ग्रहण करने के पहले और ग्रहण करने के बाद मुझ में क्या परिवर्तन आता है? यूखरिस्त ग्रहण करने के कितने समय तक मैं इस अनुभुति में रहता हूँ कि प्रभु मेरे दिल में है?
एक और बडा सवाल हमेशा मेरे मन में कौंधता रहता है कि यदि जीवित प्रभु येसु मेरे हृदय में हैं तो फिर भी क्यों मेरे जीवन में संकट, दुःख, बीमारी, निराशा और परेशानियाँ है? अथवा जब मैं कठिनाईयों के दौर से गुजरता हूँ तब यूखरिस्तीय प्रभु मेरे अंदर क्या कर रहे होते हैं? क्या वे सो रहे होते हैं? जी हाँ, काफी हद तक यह कहा जा सकता है कि प्रभु सो जाते होंगे। वास्तव में तो प्रभु कभी सोते नहीं। स्तोत्र 121:4 में प्रभु का वचन कहता है -‘‘इस्राएल का रक्षक न तो सोता है और न झपकी लेता है”। पर मत्ती 8:23-27 में हम पाते हैं कि प्रभु येसु अपने शिष्यों के साथ नाव में सवार होकर कहीं जा रहे थे। और वे एक आँधी में फँस जाते हैं। उस बवंडर के बीच पवित्र सुसमाचार हमें बतलाता है कि प्रभु येसु सो रहे होते हैं। क्या प्रभु येसु वास्तव में सो रहे थे? क्या वे वास्तव में इतनी गहरी नींद में थे कि वहाँ पर क्या हो रहा है उन्हें पता भी नहीं चला? मैं नहीं सोचता वे वास्तव में गहरी नींद में थे। दरअसल शिष्यों के पास उनसे बात करने का समय नहीं था। शिष्य अपनी ही धुन में थे। इसलिए येसु विश्राम करने चले जाते हैं। शायद हम भी यूखरीस्तीय प्रभु को इसी प्रकार सोने भेज देते हैं। एक बार पवित्र परम प्रसाद ग्रहण किया और फिर भूल गये प्रभु को। हम व्यर्थ ही जीवन में परेशान रहते हैं, जबकि हमारा जिंदा खुदावन्द हरदम हमारे साथ रहता है। शिष्यों की तरह व्यर्थ ही जिंदगी के छोटे-मोटे तूफानों से घबराकर अपने हिसाब से अपने जीवन की नाव को बचाने के प्रयास करते रहते हैं। जब सब कुछ हमारी क्षमता के परे होने लगता है तब हमें उस प्रभु की याद आती है। हमें हमारे प्रभु को सुलाना नहीं उन्हें हमारी जिंदगी में व्यस्त रखना है। यदि आपका कोई अजीज मित्र आपसे मिलने आपके घर इस उम्मीद से आये कि मिलकर ढेर सारी बातें करेंगे, अपना सुख-दुख साझा करेंगे व साथ में कुछ समय बितायेंगे। ज़रा सोचिए यदि आप उसे समय नहीं देते, आप अपने मोबाइल, टीवी या फिर कम्प्यूटर में व्यस्थ हैं तो आपके उस दोस्त को कैसा लगेगा? प्रभु येसु आपसे रोज बातें करना चाहते हैं; रोज आपका हाल पूछना चाहते हैं; आपकी रोज की खैर-खबर रखना चाहते हैं; आपके दुखों को हल्का करना चाहते हैं; आपकी जिंदगी के बोझ को अपने ऊपर लेना चाहते हैं; वे कहते हैं - ‘‘थके माँदे और बोझ से दबे हुए लोगों तुम सबके सब मेरे पास आओ मैं तुम्हें विश्राम दूँगा”। (संत मत्ती 11,28)
वे आपके जीवन को लेकर चिंतित है; उनके मन में आपके लिए एक योजना है। ‘‘तुम्हारे लिए निर्धारित अपनी योजनाएँ मैं जानता हूँ - तुम्हारे हित की योजनाएँ, अहित की नहीं तुम्हारे लिए आशामय भविष्य की योजनाएँ”। (यिरमियाह 29:11)। वे चाहते हैं कि आपको अपनी उस सुखद योजना के बारे में बताए, आपसे उस पर चर्चा करें।
क्या हम हमारे दिल में रहने वाले प्रभु येसु से बातचीत करते हैं? उनकी बातों को सुनते हैं? अपने जीवन में उनकी रजा, उनकी मरजी क्या है, क्या हम उनसे यह पूछते हैं? दिन में कितनी बार हम उनको याद करते हैं? वो तो हमारे सबसे करीब हैं; हमारे दिल में अंदर हैं, हमेशा इस इंतजार में कि हम कब उनसे बात करने का समय निकालेंगे। वो अपने प्यार भरे लब्जों से दिन में कितनी ही बार हमें पुकारते हैं। पर हम कितनी ही बार उनकी वाणी को अनसुना कर देते हैं। हर घडी जब प्रलोभन व बुराई की शक्तियाँ हमें अपनी ओर खींचती हैं तो वह प्रभु येसु कितनी बार हमें उनसे बचने के लिए आगाह करते हैं; पर हम उनके प्रयासों को नज़रअंदाज कर देते हैं। हम उन्हें हमारे दिल के एक कोने में सोने को मज़बूर कर देते हैं।
आईये हम पवित्र संस्कार के प्रति अपने नज़रिये को बदलें और उसमें उपस्थित प्रभु की वास्तविक उपस्थिति का आभास स्वयं को हर पल करायें। विशेष करके प्रभु यसु के शरीर और रक्त को ग्रहण करने के तुरन्त बाद के मूल्यवान पलों में कुछ क्षण शाँत रहकर येसु से संवाद करने, और उनसे बातचीत करने में लीन हो जायें। जितनी घनिष्टता से हम उनसे जुडेंगे उतना अधिक हम उनका दिव्य अनुभव प्राप्त करेंगे। प्रभु येसु को हम अपना सबसे करीबी मित्र बना लें। उनकी उपस्थिति की अनुभुति हर पल हमारे मन में रहे। यदि ऐसा हुआ तो फिर न तो कोई प्रलोभन, न कोई शैतान की ताकत, न कोई बुराई, न कोई विपत्ति, न कोई बीमारी, न कोई महामारी, न कोरोना वायरस और न कोई किसी प्रकार की निराशा हमें विचलित कर सकती है क्योंकि येसु ने इन सब पर विजय प्राप्त की है। (योहन 16:33)। आमेन।
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