Wednesday, 4 November 2015

नवम्बर 8 वर्ष का 32 वाँ रविवार


                    वर्ष का 32 वाँ रविवार                              

                                                                                                पहला पाठ - 1 राजा. 17ः10.16                 
                                                                                                दूसरा पाठ - इब्रा. 9ः24-28                        
                                                                                                 सुसमाचार - मार्क 12ः38-44                     
ख्रीस्त में प्यारे भाईयों और बहनों। आज के पाठों से एक बात खासकरके उभर के सामने आती है। वो है विधवा और उसका दान। आज के सुसमाचार में जहाँ प्रभु मंदिर की दान-पेटी में एक पैसा डालने वाली विधवा की तारिफ करते हैं वहीं दूसरी ओर पहला पाठ सरेप्ता की विधवा का वर्णन करता है जो अपनी अत्यन्त गरीबी की हालत में भी अपना भोजन नबी एलियाह के साथ बाँटने को राजी हो जाती है। इसलिए आज मैं इस रविवार को विधवाओं का रविवार कहना पसंद करूँगा। विधवा जिसे हमारे समाज में तुच्छ दृष्टी से देखा जाता है। कई समाजों में विधवा को अषुभ माना जाता है। सुहाग उजड जाने के बाद नारी का मान-सम्मान और महत्व कम हो जाता है। उसे अबला व निस्साहाय देखकर कई लोग उसका आर्थिक, सामाजिक व शारीरिक शोषण करते हैं। लेकिन पवित्र बाईबल विधवाओं को बहुत ही महत्व देती है। प्रभु विधवाओं और अनाथों का विषेष ख्याल रखता है। सम्पूर्ण बाइबल में करीब 50 बार विधवाओं के बारे में वर्णन किया गया है। निर्ग. 22ः21 में प्रभु कहते हैं - ‘‘तुम विधवा व अनाथ के साथ दुव्र्यव्यहार मत करो। यदि तुम उनके साथ दुव्र्यव्यहार करोगे और वे मेरी दुहाई देंगें तो मैं उनकी पुकार सुनूँगा।’’ येरे. 22ः3 में प्रभु का वचन कहता है - ‘‘विदेषियों, अनाथों, और विधवाओं के साथ अन्याय मत करो।’’ और लूकस 7ः11 में हम पाते हैं नाईन नामक नगर में एक विधवा का एकलौता पुत्र मर जाता है। प्रभु को उस विधवा पर तरस आता है और वह उसे नवयुवक को जिवनदान देता है। जि हाँ विधवा, अनाथ और गरीब प्रभु के दिल में खास स्थान रखते हैं। और आज प्रभु हमें ऐसी ही गरीब दो विधवाओं के उदाहरण द्वारा हमारे जीवन में उदारतापुर्वक दान देने व प्रभु के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने का पाठ पढाते हैं।
आईये हम दन दोनों विधओं के चरित्र पर मनन चिंतन करें। पहली है सरेप्ता की विधवा जिसका वर्णन हमने पहले पाठ में सुना। यह घटना उस समय की है जब प्रभु के आदेषानुसार तीन साल तक बारीष नहीं हुई और इस्राएल में भारी अकाल पडा था। तीन साल तक कोई फसल पैदा नहीं हुई थी। इधर ये अभागिन विधवा अपने पुत्र के साथ अपने जीवन का अंतिम भोजन करने जा रहंी थी। उसके पास मुट्ठी भर आटा व कुप्पी में थोडा सा तेल बाकि रह गया था। वो नबी एलियाह से कहती है कि इसे खाकर व अपने पुत्र के साथ मर जायेंगी। आगे कोई उम्मिद नहीं है उनके पास। ऐसे में प्रभु का सेवक, नबी एलियाह, उससे खाने को कुछ माँगता है और कहता है कि जब तक यह अकाल खत्म न हो जाये तब तक प्रभु इस आटे और तेल को खत्म नहीं होने देगा। उस विधवा ने प्रभु पर विष्वास किया और जैसा नबी ने कहा था उसने वैसा ही किया। नबी के लिए भोजन बनाकर उसे खिलाया। और प्रभु की महिमा देखिये, तीन साल तक न तो उनका आटा खत्म हुआ और न ही उनका तेल।
वैसा ही सुसमाचर में हमने सुना प्रभु उस विधवा की तारिफ करते हैं जिसने तंगी में रहते हुवे भी उसके पास जो भी था पूरा दान पेटी में डाल दिया। उस विधवा का दान बडे-बडे अमीरों, जिनने अपनी समृद्धी में से कुछ दिया, उनकी तुलना में कुछ भी नहीं था पर प्रभु की निगाहों में वह सबसे अधिक था। प्रभु कहते हैं इस विधवा ने सबसे अधिक दिया है।
प्यारे भाईयों और बहनों हम दान पुण्य करने, चन्दा देने आदि में कभी न हिचकें। प्रभु का वचन प्रव. 29ः13.14 में हमसे कहता है ‘‘अपने धन का त्याग भाई और मित्र के लिए दान कर दो और ज़मीन के नीचे उसमें जंग न लगने दो। अपने सर्वोच्च प्रभु की आज्ञा के अनुसार अपने धन का उपयोग करो। और तुम सोने की अपेक्षा उससे अधिक लाभ उठाओगे।’’ प्रभु का वचन कहता है कि हम प्रभु की आज्ञा के अनुसार हम अपने धन का उपयोग करें। और प्रभु की आज्ञा ये है कि हम अपनी संपत्ति का उपयोग परहित में करें।
वचन कहता है कि हम हमारा धन दूसरों के हित में लगा दें दूसरों की भलाई हेतु त्याग कर दें। हमारा दान त्यागपूर्ण होना चाहिए। धन को दूसरों के लिए लुटाने व दान करने में काफी फर्क है। आज के सुसमाचार में अन्य लोग अपनी सम्पन्नता में से अपना धन लुटा रहे थे पर उस विधवा ने वास्तव में दान किया। उसने अपना सब कुछ त्याग कर दान किया। जब दान में त्याग की भावना नहीं है तो वह अधिक फलप्रद नहीं होगा। त्याग करना किसे कहतें हैं? जब कोई वस्तु हमें प्रिय है और उसे यदि मुझे किसी को देने को कहा जाये; मैं उसे देना तो नहीं चाहता, दिल में दर्द होता है, पर मैं प्रभु के पे्रम के खातीर, प्रभु को अपना प्रेम दिखाने के लिए उसे दूसरों के हित में त्याग देता हूँ, दान दे देता हूँ। यह है त्यागमय दान। ऐसे दान में ज्यादा वजन होता है, ज्यादा महत्व होता है। हम हर साल सेमिनारी बन्द होते समय अपने पुनाने कपडे इकट्ठे करके गरीबों को बाँट देते हैं। यह एक अच्छा काम है, पुण्य का काम है। लेकिन इसके अलावा यदि मैं मेरे जेब खर्च से किसी एक गरीब बच्चे के लिए नये कपडे खरीदकर देता हूँ तो ये त्यागमय दान होगा। इसका मुझे अधिक प्रतिफल मिलेगा।
इसलिए हम अपनी सम्पत्ति, अपना धन दूसरों के लिए त्याग करना सिखें, दूसरों के साथ मिलकर बाँटना सिखें, तथा प्रभु के लिए उसे भेंट करना सिखंे, चर्च में प्रभु को भेंट अर्पित करें प्रभु के लिए बलिदान चढायें। क्योंकि प्रव. 35ः16-13 में प्रभु का वचन हमसे कहता है - खाली हाथ प्रभु के सामने मत जाओ, क्योंकि ये सब बलिदान आदेष के अनुकूल है। धर्मी का चढावा वेदी की शोभा बढाता है और उसकी सुगन्ध सर्वोच्च ईष्वर तक पहूँचती है। धर्मी का बलीदान सुग्राह्य होता है, उसकी स्मृति सदा बनी रहेगी। प्रसन्न मुख होकर दान चढाया करों और खुष्ी से दषमांष दो। जिस प्रकार सर्वोच्च ईष्वर ने तुम्हें दिया है उसी प्रकार तुम भी उसे सामथ्र्य के अनुसार उदारतापुर्वक दो, क्योंकि प्रभु प्रतिदान करता है, वह तुम्हें सात गुना लौटा देगा।’’ यहाँ तीन बातें खास ध्यान देने योग्य हैं - हम प्रसन्न मुख से  दान चढायें, कुडकुडाकर नहीं, जबदरस्ति नहीं। दूसरी बात हम अपने सामथ्र्य के अनुसार अनुसार उदारपुर्वक दें। हमारी आर्थिक क्षमता के अनुसार हम भेंट चढायें। तीसरी बात वचन हमें बताता है वह है- प्रभु प्रतिदान करता है, वह तुम्हें सात गुना लौटा देगा। जि हाँ हमारा दिया दान कभी खाली नहीं जायेगा। वचन कहता है प्रभु एक का सात गुना हमें लौटा देगा। लेकिन जब हम दान करते हैं तो इसका हमारा उद्देष्य ये गुना वापस पाना नहीं होना चाहिए। ये लौटाना व प्रतिदान करना तो प्रभु का काम है। प्रतिदान की चिन्ता हमें नहीं करनी चाहिए। आज मैंने दान दिया और कल मैं उठकर उसका फल पाने की अपेक्षा करूँ तो ये भी गलत है। तो हमारे दान का फल इस दुनिया में पाने की उम्मीद करना हमारे लिए उचित नहीं है। प्रभु हमसे मत्ती के सुसमाचार 6ः19-21 में कहते हैं - ‘‘पृथ्वी पर अपने लिए पूँजी जमा नहीं करो, जहाँ मोरचा लगता है, कीडे खाते हैं और चोर सेंध लगा कर चुराता है, स्वर्ग में अपने लिए पूँजी जमा करो जहाँ न तो मोरचा लगता है, न कीडे खाते हैं और न ही चोर चुरा सकता हैै। क्योंकि जहाँ तुम्हारी पूँजी होगी वहीं तुम्हारा हृदय भी होगा।’’
इसलिए आज हम कुरिन्थियों को लिखे अपने पत्र 9ः6-7 में संत पौलुस द्वारा बतायी इस षिक्षा पर मनन चिंतन करें जहाँ वचन हमसे कहता है- ‘‘इस बात का ध्यान रखें कि जो कम बोता है, वह कम लुनता है और जो अधिक बोता है वह अधिक लुनता है। हर एक ने अपने मन में जितना निष्चित किया है उनता ही दें। वह अनिच्छा से अथवा लाचारी से ऐसा न करें। क्योंकि ईष्वर प्रसन्नता से देने वाले को प्यार करता है।’’
आईये हम आज ईष्वर से ये कृपा माँगें कि प्रभु हमें धन के मोह से मुक्त कर एक उदार दिल इंसान बना दें ताकि हम हमारे जीवन में ज़रूरतमंद लोगों की सेवा हमारे त्यागमय दान द्वारा कर सकें। व स्वर्ग में अपने लिए पूँजी जमा कर सकें। 
आमेन। 

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