Saturday, 29 June 2019

वर्ष का तेरहवां रविवार हिंदी प्रवचन 30 जून 2019



आज के पाठों में हम बुलाहट के विषय में सुनते हैं। पहले पाठ में प्रभु ईश्वर एलीशा को नबी एलियाह के उत्तराधिकारी के रूप में बुलाते हैं। बुलाहट के चिन्ह स्वरूप नबी एलियाह उसके ऊपर अपनी चादर डाल देते हैं। उस समय एलीशा अपने खेती के काम में व्यस्त था। वह इस दुनिया की कमाई में मस्त था। पर जैसे ही उसे सांसारिक कमाई से भी बडकर आत्मिक कमाई का बुलावा मिलता है वह खत्म हो जाने वाली कमाई को छोडकर आत्मिक धन कमाने एलियाह के पीछे चल देता है जो कि कभी खत्म नहीं होगा। वह अपनी खेती, अपने बैल सब कुछ का त्याग कर देता है। अपने सांसारिक चीजों के त्याग के प्रतीक रूप में उसने अपने हल में जुते बैल को मारा और उसी हल की लकडी से उसे पकाया तब मजदूरों को भोजन कराकर सब कुछ का त्याग करते हुए वह ईश्वर भक्त का अनुयायी बन जाता है।

प्रभु की राहों पर चलने के लिए बहुत कुछ छोडना और बहुत कुछ का त्याग करना पडता है। सुसमाचार में प्रभु येसु कहते हैं - ‘‘लोमडियों की अपनी माँदे है और आकाश के पक्षियों के अपने घौंसले, परन्तु मानव पुत्र के लिए सिर रखने को भी जगह नहीं है”। कोई व्यक्ति जो येसु का अनुयायी तो बनना चाहता था पर जिसे अपने परिवार व रिश्ते नातों से बहुत अधिक लगाव था प्रभु उससे कहते हैं – “मुरदों को अपने मुरदे दफनाने दो तुम जाकर ईश्वर के राज्य का प्रचार करो”। क्या इसका मतलब यह हुआ कि ईश्वर के राज्य में सांसारिक रिश्तों नातों का कोई औचित्य नहीं अथवा कोई महत्व नहीं? हरगिज़ नहीं।

संत मत्ती 10:37 में प्रभु येसु कहते हैं - ‘‘जो अपने पिता या अपनी माता को मुझसे अधिक प्यार करता है वह मेरे योग्य नहीं”। यहाँ पर बात साँसारिक रिश्तों नातों की नहीं परन्तु बात उचित चुनाव की है। ईश्वर और संसार के बीच मैं सबसे पहले किसको चुनता हूँ। ईश्वर और संसार के बीच चयन में मेरी प्राथमिकता किस के लिए है। संसार के लिए या फिर ईश्वर के लिए? वचन कहता है जो मुझसे अधिक दुनिया को और दुनिया के रिश्तों को महत्व देता है वह उसके लायक नहीं है।

प्यारे विश्वासियों हमारा सारा जीवन ईश्वर और संसार के बीच के इसी चयन में बीतता है। हमें जिंदगी के हर पडाव पर, जीवन के हर कदम पर यह चुनाव करना होता है। और इस चुनाव अथवा चयन करने में ईश्वर हमारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं करता। संत पौलुस आज के दूसरे पाठ में हमें कहते हैं - ‘‘मसीह ने हमें स्वतंत्र बने रहने के लिए बुलाया है”। परन्तु वे आगे हमें आगाह करते हुए कहते हैं कि हमारी यह स्वतंत्रता हमारे लिए भोग विलास का कारण न बन जाये। याने ईश्वर द्वारा प्रदत इस स्वतंत्रता का दुरूपयोग कर हम अपने आप को सांसारिक भोग विलास के लिए न सौंप दें। संत पौलुस हमसे कहते हैं - ‘‘आप लोग आत्मा की प्रेरणा के अनुसार चलेंगे तो शरीर की वासनाओं को तृप्त नहीं करेंगे”। इस दुनिया के दूषण से मुक्त रहने के लिए आत्मा की प्रेरणा के अनुसार चलना अति आवश्यक है।

तो आईये आज हम ईश्वर से आशिष व कृपा मॉंगें कि हम उनकी कृपा से आत्मा से प्रेरित जीवन जीयें और येसु मसीह के नक्शे कदम पर चलने के लिए हर पग पर ईश्वर को सांसारिक चीजों व सुखों के ऊपर महत्व दें। और हमेशा उन्हें अपने जीवन में प्राथमिकता देते हुए अपने आत्मा द्वारा हमारा संचालन करने दें। आमेन।

✍ -फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)



Wednesday, 26 June 2019

प्रभु येसु ख्रीस्त के अति पवित्रतम हृदय का पर्व 28 June 2019

विधिविवरण 7:6-11
1 योहन 4: 7- 16 
मत्ती 11: 25-30 

आज हम प्रभु येसु ख्रीस्त के अति पवित्रतम हृदय का पर्व मनाते हैं। हृदय का पवित्र बाइबल में क्या महत्व अथवा स्थान है? पवित्र बाइबल में करीब 1000 से भी ज्यादा बार हृदय शब्द का प्रयोग हुआ है। कैथोलिक धर्म की धर्म शिक्षा के नम्बर 2563 (CCC2563) में हृदय  को किसी मनुष्य का छिपा हुआ केंद्र कहा गया है। केवल ईश्वर ही इसे पूरी तरह से समझ सकता है. 


यदि मुझे किसी को जानना है तो उस व्यक्ति को मेरे सामने अपना दिल को खोलना होगा। कई बार किसी बात का यकिन दिलाने के लिए हमारा कोई अजीज़ दोस्त हम से कहता हैं कि मैं तुम्हें मेरे दिल की बात बता रहा हूँ। इसका मतलब क्या हुआ? यह कि वह व्यक्ति अपनी सबसे भीरत की बात व अपनी सबसे व्यक्तिगत बात को हमारे सामने रख रहा है। और दूसरे शब्दों में यदि हम कहें तो वह अपना दिल हमारे सामने खोल रहा है; वह अपने भीतर छिपी सच्चाई को हमारे सामने रख रहा है। और भी सटीक रूप  से कहें तो वह व्यक्ति यह चाहता है कि हम उसे उस रूप में समझें जैसा वो वास्तव में है।

आज का यह पर्व हमें यह याद दिलाता है कि सारी कायनात के खुदा, हम सब को बनाने और हमारा अस्तित्व बनाये रखने वाले ईश्वर ने अपना दिल हमारे लिये खोला दिया है। पवित्र हृदय के प्रति हमारी भक्ति का आधार यही है। आज के पहले पाठ में प्रभु का वचन कहता है कि उन्होंने इस्राएलियों को उनकी किसी श्रेष्ठता के कारण नहीं अपनाया पर प्रभु ने उनके प्रति अपने प्रेम के खातिर उन्हें अपनी प्रजा बनाया. और आज के दूसरे पाठ में प्रभु का वचन हमें ईश्वर की परिभाषा बतलाता है. और वो है - ईश्वर प्रेम है. ईश्वर का अस्तित्व ही प्रेम है . 

इसलिए पवित्र हृदय के प्रति भक्ति का मलतब होता है ईश्वर के अस्तित्व व उसके सार-तत्व के प्रति भक्ति। दूसरे शब्दों में पवित्र हृदय की भक्ति ईश्वर के प्रति भक्ति ही है, उस रूप में जैसा कि वह अपने आप को हम पर प्रकट करना चाहता है। पूर्व संत पिता बेनेडिक्ट सौलहंवें  कहते हैं - ‘‘उनके छिदे हुए हृदय में स्वयं ईश्वर का हृदय खोला गया है। यहाँ हम देखते हैं कि ईश्वर कौन है और ईश्वर कैसा है। अब स्वर्ग बंद नहीं रहा। ईश्वर अदृष्य से बाहर आ गया है ।’’

यदि ईश्वर अपने आप को इस रूप में प्रकट नहीं करते तो शायद हमें उन्हें जानने का मौका नहीं मिलता। हमें बस ईश्वर के इस निमंत्रण को स्वीकार करना है। येसु अपना दिल  खोलकर हमें यह बतलाना चाह रहे हैं कि ईश्वर मनुष्यों के साथ एक रिशता कायम करना चाहते हैं। हमें दिल से अपनाना चाहते हैं। दुनिया का कोई भी धर्म ईश्वर की ऐसी सुन्दर तस्वीर हमारे सामने नहीं पेश  करता है। केवल मसीहत में खुदा इंसान से इतना अधिक प्यार करता है  कि वह हम में से एक जैसा बन जाता है ताकि वह हमारे लिए अपना दिल खोल सकें और हम उनके साथ प्रेम के रिश्ते  में जुड जायें। 

 समारी स्त्री के वाकये में येसु उस स्त्री से पानी माँगता है। प्रभु प्यासा है। क्रूस से भी उन्होंने यह कहा था - ‘‘मैं प्यासा हूँ।’’ (योहन १९:२८).   हमारा ईश्वर आज भी प्यासा है, हमारे लिए। आज भी उसका दिल हमारे लिए खुला हुआ है। वह हर रोज अपना दिल खोलकर हमें अपने पास बुलाता है। आज के सुसमाचार में वो प्रभु येसु हम से कहते है - "थके मांदे  और बोझ से दबे हुए लोगों! तुम सब के सब मेरे पास आओ . मैं तुम्हें विश्राम दूंगा. मैं स्वाभाव से नम्र और विनीत हूँ. " वो अपने प्रेमी ह्रदय के करीब हम सब को बुला रहा है . वो हमें अपने प्रेम के सागर में डूबा देना चाहता है . वह हर रोज हमें यह निमंत्रण देता है कि हम उनके प्यार को  जाने, पहचानें व उसके प्रेम में दिवाने हो जायें। उसके प्रेम के रस में अपने का डुबो दें। उसके छिदे हुए हृदय से टपकते लहू व जल से हम अपने पापमय जीवन को धो लें। और अपने आप को येसु के प्रेमी हृदय में छिपा लें जो सिर्फ और सिर्फ हमारे खातिर माँस बना, ताकि एक मानवीय हृदय से ईश्वर अपने बच्चों से प्यार कर सके। आईये हम येसु के पवित्रम हृदय की तस्वीर को हमारे जेहन में लायें जो कि सारी मानवजाती के प्यार के लिए दहक रहा है। और अपने आपको व सारी मानवजाती को प्रभु येसु के अति पवित्रतम् हृदय के प्रति समर्पित करें व प्रार्थना करें जिससे  जैसा कि संत पौलुस कहते हैं - "आप लोग  येसु के प्यार की लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, और गहराई   को समझ सकें" (ऐफेसयों 3 :18) और उनके प्रेम के निमंत्रण को स्वीकार कर उनके प्रेम में निरंतर बढते जायें। आमेन।


Sweet Heart of Jesus, 
be my love.

Happy Feast 

Saturday, 22 June 2019

संत योहन बपतिस्ता का जन्मोत्सव 24 June 2019


इसायाह 49ः22-26
प्रे.च. 13ः22-26
लूक 1ः57-66,80

संत योहन बपतिस्ता का जिक्र नये विधान के शुरूआती ग्रंथों  में होता है। कई बाइबिल के विद्वान योहन को पुराने विधान और नये विधान के बीच की कडी के रूप में देखते हैं। जितना नाटकीय अंदाज में उनका जन्म और नामकरण होता है उतना ही नाटकीय बाद में उनका किरदार होता है। उद्भूत रीति से बूढापे में अब तक बाँझ कही जाने वाली एलीजे़बेथ के गर्भ से जन्में योहन के बारे में आज का सुसमाचार कहता है - ‘‘बालक बढता गया और उसकी आध्यात्मिक शक्ति विकसित होती गयी।’’ दूसरे शब्दों मंे यदि हम कहें तो वह एक महज बच्चे से आध्यात्मिक दृष्टि से एक सिद्ध पुरूष के रूप बढता जाता है। अथवा यूँ कहें कि वह महान आध्यात्मिक गुरू या नबी के रूप में अपनी पहचान बनाता है। मैं इस वचन की तुलना संत योहन 3ः30 से करना चाहूॅँगा जहाँ पर योहन बपतिस्ता प्रभु येसु की ओर इंगित करते हुए कहते हैं - ‘‘यह उचित है कि वे बढते जायें और मैं घटता जाऊँ।’’ 

योहन यहाँ हर मसीही के लिए एक आआदर्श बनकर उभरता है। जिसका लक्ष्य या जीवन का उद्देष्य बिलकुल साफ है। वास्तव में देखा जाये तो एक नबी के रूप में उनकी बहुत बडी पहचान बन चुकी थी। उनके अनुयाई बडी संख्या में थे। उनके उपदेशों  को लोग बडे ध्यान से सुनते और उनकी बात मानते थे। लूकस 3ः10-11 में हम पढते हैं -‘‘जनता उन से पूछती थी, ‘तो हमें क्या करना चाहिए?’ वह उन्हें उत्तर देते थे ‘जिनके पास दो कुरते हों, वह एक उसे दे दे, जिसके पास नहीं है और जिसके पास भोजन है वह भी ऐसा ही करे।’’
उनकी प्रभावशाली  छवी और व्यक्त्वि ने उनको अहंकारी अथवा घमंडी नहीं बनाया जो कि आज की दुनिया की एक बडी समस्या है। हर कोई एक दूसरे से बेहतर बनने की फिराक में रहता है।

घमंड या दूसरों से बडा या बेहतर बनने की अभिलाषा को चार वर्गों में विभाजित करके देखा जा सकता है - 1. धन का घमंड या दूसरों से अधिक धनवान बनने की चाह; 2. रूप या शरीर का घमंड या अपने को दूसरों से ज्यादा सुंदर व शारीरिक रूप से ताकतवर व मसलवान बनाने की चाह; 3. ज्ञान का घमंड या अपने आप को दूसरों से ज्यादा ज्ञानी मानने की चाह; 4. धार्मिक  घमंड या स्वयं को दूसरों से ज्यादा धार्मिक मानना।
इन सभी क्षेत्रों में उन्नती करना अपने आप में पाप नहीं है। योहन बपतिस्ता के बारे में कहा गया है कि बालक बढता गया और उसमें आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता गया। उपरोक्त चारों पहलुओं में आगे बढना विकास करना अच्छा है। पर इन बातों पर घमंड करना व इन बातों को लेकर स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझना एक भयंकर पाप है जो मनुष्य को विनाश  की ओर ले जाता है। इससे भी घातक है अपनी साडी उपलब्धियों का श्रेय स्वयं लेकर ईश्वर को अपनी जिंदगी से बेदखल कर देना.  अपने इस अहंकार ने कई मनुष्यों का पतन किया है।
 आज संत योहन बपतिस्ता के जन्मदिन पर यह बालक हमें यही बतलाता है कि जब हम हमारे जीवन कहानी लिख रहे हैं तो उसे हमें येसु को कंेद्र में रखकर लिखना चाहिए जैसे कि योहन ने किया। वह बढता जाये मैं घटता जाऊँ। जब हम हमारे जीवन की कहानी खुद को केंद्र में रखकर लिखेंगे जैसे मैं मेरी कहानी का हीरो हूँ, मैं ही निर्माता हूँ, सारी चीजें मेरे इर्द-गिर्द घुमती है। मैं .. मैं और  बस मैं...। इस प्रकार की कहानी का अंत सर्वनश  से होगा।
आईये हम प्रभु येसु को अपनी कहानी का हीरो बनायें, हमारे जीवन में येसु को बढने दें, उन्हें अपने जीवन में कार्य करने दें और अपने अहंकार को कम करें। हम संत पौलुस की तरह कहें - ‘‘मैं अब जीवित नहीं रहा, बल्कि मसीह मुझ में जीवित है’’ (गलातियों 2ः20)। तब देखना जीवित येसु किस तरह से हमारी इस कहानी को एक विजयी गाथा में बदल देंगे, जैसा कि यहां बपतिस्ता के साथ हुआ ।
आमेन।

Friday, 21 June 2019

येसु के पवित्रतम शरीर और रक्त का महोत्सव (Corpus Christi) 23 June 2019


उत्पत्ति 14:18-20; 
1 कुरिन्थियों 11:23-26
 लूकस 9:11-17

आज हम प्रभु येसु ख्रीस्त के अति पवित्रतम शरीर एवं रक्त का पर्व मना रहे हैं। कुछ दिन पहले प्रख्यात पेंटेकोस्टल प्रवचक बेन्नी हिंन का एक विडियो देखने को मिला जिसमें वे पवित्र यूखरिस्त के बारे मंा बतलाते हुए कहते हैं कि एक अध्ययन में ये सामने आया है कि कैथोलिक चर्च में पवित्र यूखरिस्त के दौरान ज्यादा लागों को चंगाई मिलती है। क्योंकि वे पवित्र यूखरिस्त में विश्वास करते हैं। अपने चर्च का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि उनके लिए तो यूखरिस्त में प्रभु येसु की केवल प्रतीकात्मक उपस्थिति होती है। परन्तु प्रभु येसु ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा कि - ‘‘ले लो और खाओ। यह मेरा शरीर है” (मत्ती 26:26)। उन्होंने यह नहीं कहा कि यह रोटी मेरे शरीर का प्रतीक है। पर उन्होंने कहा यह मेरा शरीर है। और संत योहन 6:53 में भी प्रभु येसु ने स्पष्ट कहा है - ‘‘यदि तुम मानव पुत्र का मांस नहीं खाओगे और उसका रक्त नहीं पियोगे, तो तुम्हें जीवन प्राप्त नहीं होगा
प्रभु येसु के इस संसार में आने का उद्देश्य ही यह था कि उनके द्वारा हमें अनन्त जीवन प्राप्त हो। संत योहन 3:16 में लिखा है - ‘‘ईश्वर ने संसार को इतना प्रेम किया कि उसने उसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो कोई उस में विश्वास करता है, उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करेअनन्त जीवन का खजाना, अनन्त जीवन का उपहार पवित्र यूखरिस्त में छिपा है।  
द्वितीय वैटिकन महासभा सिखलाती है कि पवित्र युखरिस्त कलीसिया के जीवन का स्रोत और उसकी परकाष्ठा है। (Lumen Gentium, 11) इसी से कलीसिया को जीवन मिलता है और इसी में कलीसिया का अंतिम लक्ष्य निहित है। अन्य संस्कारों में तो हमें ईश्वर की कृपा मिलती है परन्तु पवित्र यूखारिस्त में तो हमें कृपाओं को प्रदान करने वाला ईश्वर स्वयं प्राप्त होता है। क्योंकि यूखरिस्त तो स्वयं प्रभु येसु ही हैं, और बिना उनके कलीसिया की कल्पना करना संभव नहीं।
पर एक बडा सवाल यह उठता है कि इस प्रभु येसु को ग्रहण करने वालों ने उन्हें कितनी गहराई से समझा है? क्या आपने कभी कल्पना की कि यदि आप भी प्रभु येसु के समय उनके साथ होते और आपको उन्हें स्पर्श करने का अवसर मिलता! कितना सुखद और कितना अनुग्रहकारी क्षण होता वह, है न? अगर छूना नहीं मिलता तो कम से कम उनकी एक झलक भी देखने को मिल जाती तो भी हम तो अपने को बडा सौभाग्यशाली मानते, है न? माँ मरियम की महानता पर प्रवचन देते समय मैं कई बार इस बात को रखता हूँ कि वे इसलिए महान मानी जाती है क्योंकि उन्होंने ईश्वर के पुत्र को नौ महिनों तक अपने गर्भ में रखा। उन्होंने सृष्टिकर्त्ता को नौ महिनों तक अपनी कोख में रखा। जरा विचार कीजिए कि यदि सिर्फ नौ महिनों तक येसु की देह को अपने गर्भ में रखने से यदि माता मरिय सब नारियों में धन्य बन गई तो हर रविवार या फिर हर रोज उसी येसु को अपने दिल में ग्रहण करने वाले हम कितने महान हो सकते हैं। क्या हम इस बात को दिल से मानते हैं कि हमारे दिल में रोज आने वाला येसु वही येसु है जो मरियम के गर्भ में था? क्या यह वही येसु है जो जोसफ और मरियम के साथ नाज़रेथ में करीब तीस साल रहा? क्या यह वही येसु है जिसने अंधों को आँखें और मुर्दों को जान दी? जी हाँ यह वही प्रभु है. 

तब दूसरा सवाल यह खडा होता है कि यदि प्रभु येसु अपनी उसी महिमा में पवित्र यूखरिस्त में हमारे दिल में आते हैं तो फिर हम जो उन्हें ग्रहण करते हैं उस प्रभु की उपस्थिति का प्रभाव हमारे जीवन में क्यों नहीं पडता? पवित्र परम प्रसाद ग्रहण करने के पहले और ग्रहण करने के बाद मुझ में क्या परिवर्तन आता है? परमप्रसाद ग्रहण करने के कितने समय तक मैं इस अनुभुति में रहता हूँ कि प्रभु मेरे दिल में है।

एक और बडा सवाल हमेशा मेरे मन में कौंधता रहता है कि यदि जीवित प्रभु येसु मेरे हृदय में हैं तो फिर भी क्यों मेरे जीवन में संकट, दुःख, बीमारी, निराशा और परेशानियाँ है? अथवा जब मैं कठिनाईयों के दौर से गुजरता हूँ तब यूखरिस्तीय प्रभु मेरे अंदर क्या कर रहे होते हैं? क्या वे सो रहे होते हैं? जी हाँ, काफी हद तक यह कहा जा सकता है कि प्रभु सो जाते होंगे। वास्तव में तो प्रभु कभी सोते नहीं। स्तोत्र 121:4 में प्रभु का वचन कहता है -‘‘इस्राएल का रक्षक न तो सोता है और न झपकी लेता है। पर मत्ती 8:23-27 में हम पाते हैं कि प्रभु येसु अपने शिष्यों के साथ नाव में सवार होकर कहीं जा रहे थे। और वे एक आँधी में फँस जाते हैं। उस बवंडर के बीच पवित्र सुसमाचार हमें बतलाता है कि प्रभु येसु सो रहे होते हैं। क्या प्रभु येसु वास्तव में सो रहे थे? क्या वे वास्तव में इतनी गहरी नींद में थे कि वहाँ पर क्या हो रहा है उन्हें पता भी नहीं चला? मैं नहीं सोचता वे वास्तव में गहरी नींद में थे। दरअसल शिष्यों के पास उनसे बात करने का समय नहीं था। शिष्य अपनी ही धुन में थे। इसलिए येसु विश्राम करने चले जाते हैं। शायद हम भी यूखरीस्तीय प्रभु को इसी प्रकार सोने भेज देते हैं। एक बार पवित्र परम प्रसाद ग्रहण किया और फिर भूल गये प्रभु को। हम व्यर्थ ही जीवन में परेशान रहते हैं, जबकि हमारा जिंदा खुदावन्द हरदम हमारे साथ रहता है। शिष्यों की तरह व्यर्थ ही जिंदगी के छोटे-मोटे तूफानों से घबराकर अपने हिसाब से अपने जीवन की नाव को बचाने के प्रयास करते रहते हैं। जब सब कुछ हमारी क्षमता के परे होने लगता है तब हमें उस प्रभु की याद आती है। हमें हमारे प्रभु को सुलाना नहीं उन्हें हमारी जिंदगी में व्यस्त रखना है। यदि आपका कोई अजीज मित्र आपसे मिलने आपके घर इस उम्मीद से आये कि मिलकर ढेर सारी बातें करेंगे, अपना सुख-दुख साझा करेंगे व साथ में कुछ समय बितायेंगे। ज़रा सोचिए यदि आप उसे समय नहीं देते, आप अपने मोबाइल, टीवी या फिर कम्प्यूटर में व्यस्थ हैं तो आपके उस दोस्त को कैसा लगेगा? प्रभु येसु आपसे रोज बातें करना चाहते हैं; रोज आपका हाल पूछना चाहते हैं; आपकी रोज की खैर-खबर रखना चाहते हैं; आपके दुखों को हल्का करना चाहते हैं; आपकी जिंदगी के बोझ को अपने ऊपर लेना चाहते हैं; वे कहते हैं - ‘‘थके माँदे और बोझ से दबे हुए लोगों तुम सबके सब मेरे पास आओ मैं तुम्हें विश्राम दूँगा। (संत मत्ती 11,28)
वे आपके जीवन को लेकर चिंतित है; उनके मन में आपके लिए एक योजना है। ‘‘तुम्हारे लिए निर्धारित अपनी योजनाएँ मैं जानता हूँ - तुम्हारे हित की योजनाएँ, अहित की नहीं तुम्हारे लिए आशामय भविष्य की योजनाएँ। (यिरमियाह 29:11)। वे चाहते हैं कि आपको अपनी उस सुखद योजना के बारे में बताए, आपसे उस पर चर्चा करें।
क्या हम हमारे दिल में रहने वाले प्रभु येसु से बातचीत करते हैं? उनकी बातों को सुनते हैं? अपने जीवन में उनकी रजा, उनकी मरजी क्या है, क्या हम उनसे यह पूछते हैं? दिन में कितनी बार हम उनको याद करते हैं? वो तो हमारे सबसे करीब हैं; हमारे दिल में अंदर हैं, हमेशा इस इंतजार में कि हम कब उनसे बात करने का समय निकालेंगे। वो अपने प्यार भरे लब्जों से दिन में कितनी ही बार हमें पुकारते हैं। पर हम कितनी ही बार उनकी वाणी को अनसुना कर देते हैं। हर घडी जब प्रलोभन व बुराई की शक्तियाँ हमें अपनी ओर खींचती हैं तो वह प्रभु येसु कितनी बार हमें उनसे बचने के लिए आगाह करते हैं; पर हम उनके प्रयासों को नज़रअंदाज कर देते हैं। हम उन्हें हमारे दिल के एक कोने में सोने को मज़बूर कर देते हैं।
आईये हम पवित्र संस्कार के प्रति अपने नज़रिये को बदलें और उसमें उपस्थित प्रभु की वास्तविक उपस्थिति का आभास स्वयं को हर पल करायें। विशेष करके प्रभु यसु के शरीर और रक्त को ग्रहण करने के तुरन्त बाद के मूल्यवान पलों में कुछ क्षण शाँत रहकर येसु से संवाद करने, और उनसे बातचीत करने में लीन हो जायें। जितनी घनिष्टता से हम उनसे जुडेंगे उतना अधिक हम उनका दिव्य अनुभव प्राप्त करेंगे। प्रभु येसु को हम अपना सबसे करीबी मित्र बना लें। उनकी उपस्थिति की अनुभुति हर पल हमारे मन में रहे। यदि ऐसा हुआ तो फिर न तो कोई प्रलोभन, न कोई शैतान की ताकत, न कोई बुराई, न कोई विपत्ति, न कोई बीमारी और न कोई निराशा हमें विचलित कर सकती है क्योंकि येसु ने इन सब पर विजय प्राप्त की है। (योहन 16:33)


Wednesday, 12 June 2019

अति पवित्र त्रिएक ईश्वर का पर्व 16 जून 2019, हिंदी मनन चिंतन


पवित्र त्रित्व का रविवार

नीति वचन 8ः22-31
रोमियों 5ः1-5
योहन 16ः1-5

आज हम पवित्र त्रिएक ईश्वर का रविवार मनाते हैं। और आज के दिन शायद प्रवचन देना सबसे मुश्किल  होता है। क्योंकि पवित्र त्रित्व का रहस्य ईश्वर के अस्तित्व का सबसे गहरा रहस्य है। ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में, या उनके देहधारण को या फिर उनके पुनरूत्थान को काफी हद तक समझा जा सकता है। परन्तु एक ही ईश्वर होते हुए भी उसमें तीन जन होना, वो भी बिना किसी भिन्नता के, बिना किसी विरोधाभास के और बिना किसी वर्गिकरण के। ऐसे एक अटूट व परिपूर्ण एकतारूपी ईश्वर के अस्तित्व को समझना साधारण व सीमित मानव बुद्धी के बस की बात नहीं।

कई लोग इसे समझाने के लिए कई ऐसे उदाहरण पेश करते हैं जिसे हम हमारी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अनुभव कर सकते हैं और समझ सकते हैं। जैसे कई लोग पानी की तीन विभिन्न अवस्थाओं का हवाला देते हुए कहते हैं जैसे पानी का मौलिक रूप H2O है, पर वह तीन विभिन्न अवस्थाओं में पाया जाता है जैसे द्रव (तरल पानी), ठोस (बर्फ) और गैस (भाप)। इन तीनों रूपों में वह है तो वही पानी पर तीन विभिन्न अवस्थाओं में मौजूद रहता है। वैसे ही ईश्वर है तो एक ही वास्तविकता एक ही अस्तित्व पर वह तीन विविध रूपों में अपने आप को प्रकट करता है - पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा।

परन्तु सच्चाई यह है कि कोई भी अनुभवजन्य ज्ञान या उदाहरण पवित्र त्रित्व को समझाने के लिए सटीक या पर्याप्त नहीं है। क्योंकि यह ‘ईश्वर’ का रहस्य है। इसायाह 55ः8-9 में वही ईश्वर हम से कहते हैं - ‘‘तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं है और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं है। जिस तरह आकाष पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचा है उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊँचे हैं।’’

जब हम पवित्र त्रित्व के बारे में बात करते हैं  तो मैं इसकी शुरूआत संत योहन के पहले पत्र अध्याय 4ः8 से करना उचित समझता हूँ। जहाँ पर संत योहन ईश्वर की परिभाषा इन शब्दों में पेश  करते हैं - ‘‘ईश्वर प्रेम है।’’
हम ख्रीस्तीयों की सबसे हटकर एक पहचान है और वह है हमारी ईश्वर की समझ या ईश्वर की पहचान। ख्रीस्तीयों के लिए ईश्वर प्यार है। एक यहूदी या फिर मुस्लिम यह कहेंगे कि ईश्वर प्यार करता है। यह सच है। परन्तु ईसाईत की अलग पहचान इस बात को लेकर है कि हमारे लिए ‘ईश्वर प्यार है।’ दूसरे शब्दों में प्यार वह कोई चीज नहीं जिसे ईश्वर करता है परन्तु प्यार ईश्वर की परिभाषा है, प्यार ईश्वर की एक पहचान है। या फिर प्यार ईश्वर का अस्तित्व है। ‘ईश्वर प्यार है’ यह दावा ही पवित्र त्रित्व को समझने व पहचानने का आधार है। ईश्वर प्यार है और ईश्वर त्रित्व है ये दोनों एक ही बात की और इंगित करते हैं।

यदि हम यह कहते हैं कि ईश्वर प्यार है तो ईश्वर के अपने अस्तित्व के भीतर ही यह प्यार क्रियाशील होना चाहिए। याने ईश्वर के एक ही अस्तित्व में प्यार करने वाला, प्यार पाने वाला और प्यार स्वयं मौजूद होना चाहिए। जि हाॅं ईश्वर संसार से प्यार करता है यह सत्य है। परन्तु आदिकाल से ईश्वर की पहचान यह है कि वह प्यार है। और इसलिए हमें यह कहना उचित है कि ईश्वर प्यार है और अपने अंदर उस प्यार की तीन भूमिकायें हैं। पिता जो कि प्यार का उद्गम है, और  जो पुत्र से प्रेम  करता है और पिता पुत्र के बीच का यह प्रेम ही आत्मा है। पवित्र त्रियेक ईश्वर यह बतलाता है कि उसमें प्रेम की परिपूर्णता है। जिसमें प्रेम की परिपूर्णता है वही सच्चा और पूर्ण ईश्वर हो सकता है। पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा में प्रेम की परिपूर्णता विद्यमान है। जब हम प्रेम की बात करते हैं तो हमारा अनुभव हमें यह बतलाता है कि प्यार कभी निश्छल नहीं हो सकता है परन्तु प्यार हमेशा गतिशील रहता है। यदि मुझमें किसी के प्रति प्यार है तो वह प्यार मेरे भीतर निष्क्रिय रूप में पडा नहीं रहता पर वह गतिशील  या क्रियाशील  होकर अपनी अभिव्यक्ति का रास्ता खोजता है। वह शब्दों द्वारा, उपहार द्वारा, आलिंगन द्वारा, स्पर्श द्वारा, चुंबन द्वारा या फिर मन में प्रेम भरी एक कल्पना द्वरा व्यक्त किया जाता है।

उसी प्रकार जब हम कहते हैं कि ईश्व रप्यार है तो यह प्यार अपने आप में निष्क्रिय नहीं रह सकता। वह अपनी अभिव्यक्ति खोजेगा। हम यह जानते और विश्वाश करते हैं कि ईश्वर अनादिकाल से विद्यमान हैं। यदि ईश्वर अनादि काल से विद्यमान है और वह ईश्वर प्रेम है तो उस ईश्वर को त्रियेक रूप में होना आवश्यक आवश्यक  है। क्योंकि एक ही जन में, अपने आप में प्रेम की अभिव्यक्ति असंभव है। इसलिए ईश्वर जो कि प्यार है वह पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के रूप में एक ही प्यार के बंधन में एक ही सह अस्तित्व में निवास करता हैं। इसलिए पवित्र त्रित्व में ही पूर्ण ईश्वर हो सकता है। अन्यथा ईश्वर में एक अधूरापन रह जाता है। और जिसमें अधूरापन है वह ईश्वर नहीं हो सकता। 

अब ये पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा अपना अलग-अलग अस्तित्व रखने वाले तीन ईश्वर नहीं वरन एक ही ईश्वर के तीन जन हैं। इनका अस्तित्व एक ही है और वह है एकमात्र ईश्वर का अस्तित्व। ये तीनों अलग-अलग अस्तित्व नहीं रख सकते। इन तीनों को एक ही अस्तित्व में परिपूर्णता से बाँधे रखने वाली शक्ति है उनका प्रेम। पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के बीच कभी विभाजित न की जा सकने वाली एकता का रहस्यह है उनका अविभाजित, कभी न तोडा जा सकने वाला और कभी न खत्म होने वाला प्यार। इसलिए प्रभु येसु संत योहन 10ः30 में कहते हैं - ‘‘मैं और पिता एक हैं।’’ और योहन 14ः9 में प्रभु येसु कहते हैं - ‘‘जिसने मुझे देखा है उसने पिता को भी देखा है।’’ और संत पेत्रुस पेंतेकोस्त के दिन अपने प्रथम भाषण में लोगों से नबी योएल के ग्रंथ का हवाला देते हुए पवित्र आत्मा के विषय में की गई भविष्यवाणी के बारे में बतलाते हैं - "मैं अंतिम दिनों सब शरीरधारियों पर अपना आत्मा उतारूँगा।’’ यहाँ पर ईश्वरअपने आत्मा के बारे में कह रहे हैं। जो आत्मा पेंतेकोस्त के दिन प्रेरितो पर उतरा वह ईश्वर से बाहर अस्तित्व रखने वाली कोई आत्मा नहीं परन्तु स्वयं ईश्वर का आत्मा था। याने पवित्र त्रित्व का तीसरा जन स्वयं ईश्वर की त्रियेक सत्ता से प्रसृत होता है।

ईश्वर का त्रिएक रूप में होना हमें क्या सिखलाता है? ईश्वर का त्रिएक अस्तित्व है याने प्रेम की परिपूर्णता का अस्तित्व है। अपने इसी स्वाभाव के कारण ईश्वर हमारी सृष्टि करता है और वही  त्रियेक ईश्वर हमें अपने इस प्रेम में भागिदार होने के लिए बुलाता है। संत योहन 14ः23 में प्रभु येसु कहते हैं - ‘‘यदि कोई मुझे प्यार करेगा तो वह मेरी शिक्षा पर चलेगा। मेरा पिता उसे प्यार करेगा और हम उसके पास आकर उसमें निवास करेंगे।’’
तो यह है पवित्र त्रित्व में विश्वास करने का अंतिम उद्देश्य कि हम ईश्वर के इस असीम और अनन्त प्रेम के भागिदार बन जायें।

संत योहन 14ः1 में प्रभु येसु अपनी ख़्वाहिश इन श्ब्दों में बयाँन करते हैं - "जिससे जहाँ मैं हूँ वहाँ तुम भी रहो’’ प्रभु येसु कहाॅँ है? इसके बारे में योहन 14ः11 में येसु हमें बतलाते हैं  - ‘‘मैं पिता में हूँ ओर पिता मुझमें हैं’’ इसका आशय यह हुआ कि पवित्र त्रिएक ईश्वर हमें अपने प्रेम में एक हो जाने के लिए बुलाता है।

येसु ख्रीस्त की शिक्षाओं पर चले बिना हम उनसे प्यार नहीं कर पायेंगे और न ही उनके प्यार के सहभागी बन पायेंगे। तो सबसे पहले हमें येसु ख्रीस्त  को पहचानना उन्हें स्वीकार करना और उनकी आज्ञाओं को मानना होगा। तब हम उनसे प्यार कर पायेंगे और स्वयं पिता हमें प्यार करेगा और पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा हममें आकर निवास करेंगे। 
आमेन।



Thursday, 6 June 2019

पेंटेकोस्ट रविवार 9 जून 2019


प्रेरित चरित २:11 
2 कुरिन्थियों १२:3 -7 
योहन २०:१९-२३ 

आज कलीसिया का जन्मदिन है। और इस दृष्टिकोण से हम सब का भी जन्मदिन हैं जो कि कलीसिया रूपी शरीर के अंग हैं। आज जब हम कलीसिया का जन्मदिन मनाते हैं तब आईये हम कलीसिया की प्रकृति के बारे में मनन करें। हम ने बचपन में धर्मशिक्षा में पढा है और हर रविवार को धर्मसार में हम बोलते हैं - ‘‘मैं एक ही, पवित्र, कैथोलिक और प्रेरितिक कलीसिया में विश्वास करता हूँ।“ जी हॉं कलीसिया जिसके हम सब अंग हैं वह ‘एक’ है, ‘पवित्र’ है, ‘कैथोलिक’ है, और ‘प्रेरितिक’ है। ये चारों बातें कलीसिया के प्रारम्भ याने पेंतेकोस्त के दिन से ही कलीसिया में देखी जा सकती हैं। जब प्रभु येसु स्वर्ग में आरोहित हो गये शिष्यगण अटारी में ‘‘सब एक हृदय होकर नारियों, ईसा की माता मरियम तथा उनके भाईयों के साथ प्रार्थना में लगे रहते थे।“ (प्रे.च. 1:14)। वे सब प्रार्थना में एक हृदय थे। प्रभु येसु ने अपने अंतिम भोज के समय यही प्रार्थना की थी - ‘‘पिता जिस तरह तू मुझ में है और मैं तुझ में, उसी तरह वे भी हम में एक हो जायें” (योहन 17:21)। कलीसिया जिसकी पेंतेकोस्त के दिन शुरूआत हुई वो एक थी। विभाजित कलीसिया सच्ची कलीसिया की पहचान नहीं। जहॉं एकता है, एकरूपता है, मसीह प्रेम का बंधन है, भाईचारा और मेल-मिलाप है वही सच्ची कलीसिया है। विभाजनकारी मानसिकता आज कलीसिया के टुकडे-टुकडे कर कलीसिया के मौलिक रूप को बिगाड रही है। आज पेंतेकोस्त का यह दिन सारे विश्वासियों को एक ही चरागाह में लौटने का दिन हो।
दूसरा- कलीसिया पवित्र है, क्योंकि कलीसिया पेंतेकोस्त के दिन पवित्र आत्मा से भरपूर हो जाती है। पवित्र आत्मा जो कि पिता और पुत्र को एक करने वाला प्यार है कलीसिया के ऊपर उतर आता है। यह वही आत्मा है जो सृष्टि से पहले अथाह गर्त पर विचरता था। उसी आत्मा को आज के सुसमाचार में प्रभु येसु अपने पुनरूत्थान के बाद शिष्यों को फूँककर प्रदान करते हैं और कहते हैं - ‘‘पवित्र आत्मा को ग्रहण करो” (योहन 20:22)। संत योहन 3:5 में प्रभु येसु कहते हैं - ‘‘जब तक कोई जल और पवित्र आत्मा से जन्म न ले, तब तक वह ईश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता”। संत योहन प्रकाशना ग्रंथ 21:27 में कहते हैं कि स्वर्ग में कोई भी, जो कि अपवित्र है प्रवेश नहीं कर सकता। इसलिए पवित्र आत्मा के द्वारा अपने को पवित्र करना कलीसिया के लिए बहुत जरूरी है। अपने प्रथम दिन याने पेंतेकोस्त के दिन कलीसिया पवित्र आत्मा से भरकर पवित्र हो जाती है और बदले में दूसरों को भी इस पवित्रता का हिस्सा बनाने के लिए वचन व विश्वास का प्रचार करने निकल पडती है।
तीसरा- कलीसिया कैथोलिक है। कैथोलिक का अर्थ है सार्वभौमिक अथवा विश्वव्यापी। प्रभु येसु अपने अंतिम आदेश के रूप में संत मत्ती के सुसमाचार 28:19 में कहते हैं - ‘‘तुम जाकर सब राष्ट्रों को शिष्य बनाओ।” पेंतेकोस्त के दिन ‘‘पृथ्वी भर के सब राष्ट्रों से आये हुए . . . हर एक अपनी-अपनी भाषा मंष शिष्यों को बोलते सुन रहा था” (प्रे.च. 2:5-6)। याने मसीह का संदेश किसी विशेष देश या भाषा के लोगों के लिए नहीं बल्कि समस्त संसार के लोगों के लिए है। इसे पवित्र आत्मा ने पेंतेकोस्त के दिन साबित कर दिया कि कलीसिया का दायरा सिर्फ येरूसालेम अथवा यहूदियों तक ही सीमित नहीं पर यह हर भाषा, हर देश व हर जाति के लिए है। जैसा कि प्रभु येसु ने अपने शिष्यों से अपने स्वर्गारोहण से पहले कहा था - ‘‘पवित्र आत्मा तुम लोगों पर उतरेगा और तुम्हें सामर्थ्य प्रदान करेगा और तुम लोग येरूसालेम, सारी यहूदिया और समारिया में तथा पृथ्वी के अंतिम छोर तक मेरे साक्षी होंगे” (प्रे.च. 1:8) पोंतियुस पिलातुस ने भी किसी न किसी रूप में मुक्तिदाता के क्रूस पर ‘येसु नाज़री यहूदियों का राजा’इस लेख को विभिन्न भाषाओं में लिखवाकर यह साबित किया कि येसु सारी दुनिया के राजा हैं।
चौथा - कलीसिया प्रेरितिक है। संत पौलुस एफेसियों 2:20 में कलीसिया के विषय में कहते हैं - ‘‘आप लोगों का निर्माण उस भवन के रूप में हुआ है, जो प्रेरितों तथा नबियों की नींव पर खडा है और जिसका कोने का पत्थर स्वयं येसु मसीह है।” कलीसिया का निर्माण 12 प्रेरितों की नींव पर किया गया है जो कि नये इस्राएल के बारह कुलपति हैं।
प्रेरित का मतलब होता है - भेजा हुआ। इस दृष्टि से हर एक विश्वासी येसु मसीह द्वारा भेजा गया है। इसलिए हर बपतिस्माधारी एक मिशनरी बन जाता है। मिशन कार्य सिर्फ किन्हीं गिने चुने लोगों का काम नहीं पर हर एक विश्वासी जो कि कलीसिया का अंग है एक मिशनरी है अथवा एक प्रेरित है।
जैसे ही पवित्र आत्मा प्रेरितों पर उतरा वे वचन के प्रचार में जुट गये। वे लोगों को बतलाने लग गये कि येसु मसीह कौन हैं, उनके कार्य क्या हैं, वे क्यों इस संसार में आये, और उनमें विश्वास करने से हमें क्या मिलेगा आदि। हमें भी हमारे बपतिस्मा में, दृढीकरण संस्कार में, हमारे पुरोहिताई संस्कार में तथा अन्य अवसरों पर जब हमने पवित्र आत्मा के अभिषेक की प्रार्थना की है हमें पवित्र आत्मा का अभिषेक भरपूर मिला है। पर क्या हमने अब तक उन शिष्यों की तरह येसु का संदेश लोगों तक पहुँचाने की पहल की है? उन्होंने बिना समय गवॉंये सुसमाचार सुनाना प्रारम्भ कर दिया। हमने कितना समय अब तक गॅंवा दिया है। यदि हम इस कार्य में असफल हैं तो हमने कलीसिया के प्रेरितिक स्वभाव को खो दिया है।
आज फिर से येसु हम सबों पर अपना पवित्र आत्मा भेज रहे हैं और हमें एक ही, पवित्र, कैथोलिक एवं प्रेरितिक कलीसिया के रूप में गठित कर रहे हैं। तो आईये हम सब येसु मसीह में एक बनें, पवित्र बनें, कैथोलिक बनें याने सब प्रकार के लोगों को कलीसिया में मिलायें और प्रेरितिक बनें याने बिना वक्त गॅंवाए येसु मसीह के सुसमाचार के प्रचार में लग जायें। आमेन।