
इसायाह 49ः22-26
प्रे.च. 13ः22-26
लूक 1ः57-66,80
संत योहन बपतिस्ता का जिक्र नये विधान के शुरूआती ग्रंथों में होता है। कई बाइबिल के विद्वान योहन को पुराने विधान और नये विधान के बीच की कडी के रूप में देखते हैं। जितना नाटकीय अंदाज में उनका जन्म और नामकरण होता है उतना ही नाटकीय बाद में उनका किरदार होता है। उद्भूत रीति से बूढापे में अब तक बाँझ कही जाने वाली एलीजे़बेथ के गर्भ से जन्में योहन के बारे में आज का सुसमाचार कहता है - ‘‘बालक बढता गया और उसकी आध्यात्मिक शक्ति विकसित होती गयी।’’ दूसरे शब्दों मंे यदि हम कहें तो वह एक महज बच्चे से आध्यात्मिक दृष्टि से एक सिद्ध पुरूष के रूप बढता जाता है। अथवा यूँ कहें कि वह महान आध्यात्मिक गुरू या नबी के रूप में अपनी पहचान बनाता है। मैं इस वचन की तुलना संत योहन 3ः30 से करना चाहूॅँगा जहाँ पर योहन बपतिस्ता प्रभु येसु की ओर इंगित करते हुए कहते हैं - ‘‘यह उचित है कि वे बढते जायें और मैं घटता जाऊँ।’’
योहन यहाँ हर मसीही के लिए एक आआदर्श बनकर उभरता है। जिसका लक्ष्य या जीवन का उद्देष्य बिलकुल साफ है। वास्तव में देखा जाये तो एक नबी के रूप में उनकी बहुत बडी पहचान बन चुकी थी। उनके अनुयाई बडी संख्या में थे। उनके उपदेशों को लोग बडे ध्यान से सुनते और उनकी बात मानते थे। लूकस 3ः10-11 में हम पढते हैं -‘‘जनता उन से पूछती थी, ‘तो हमें क्या करना चाहिए?’ वह उन्हें उत्तर देते थे ‘जिनके पास दो कुरते हों, वह एक उसे दे दे, जिसके पास नहीं है और जिसके पास भोजन है वह भी ऐसा ही करे।’’
उनकी प्रभावशाली छवी और व्यक्त्वि ने उनको अहंकारी अथवा घमंडी नहीं बनाया जो कि आज की दुनिया की एक बडी समस्या है। हर कोई एक दूसरे से बेहतर बनने की फिराक में रहता है।
घमंड या दूसरों से बडा या बेहतर बनने की अभिलाषा को चार वर्गों में विभाजित करके देखा जा सकता है - 1. धन का घमंड या दूसरों से अधिक धनवान बनने की चाह; 2. रूप या शरीर का घमंड या अपने को दूसरों से ज्यादा सुंदर व शारीरिक रूप से ताकतवर व मसलवान बनाने की चाह; 3. ज्ञान का घमंड या अपने आप को दूसरों से ज्यादा ज्ञानी मानने की चाह; 4. धार्मिक घमंड या स्वयं को दूसरों से ज्यादा धार्मिक मानना।
इन सभी क्षेत्रों में उन्नती करना अपने आप में पाप नहीं है। योहन बपतिस्ता के बारे में कहा गया है कि बालक बढता गया और उसमें आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता गया। उपरोक्त चारों पहलुओं में आगे बढना विकास करना अच्छा है। पर इन बातों पर घमंड करना व इन बातों को लेकर स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझना एक भयंकर पाप है जो मनुष्य को विनाश की ओर ले जाता है। इससे भी घातक है अपनी साडी उपलब्धियों का श्रेय स्वयं लेकर ईश्वर को अपनी जिंदगी से बेदखल कर देना. अपने इस अहंकार ने कई मनुष्यों का पतन किया है।
आज संत योहन बपतिस्ता के जन्मदिन पर यह बालक हमें यही बतलाता है कि जब हम हमारे जीवन कहानी लिख रहे हैं तो उसे हमें येसु को कंेद्र में रखकर लिखना चाहिए जैसे कि योहन ने किया। वह बढता जाये मैं घटता जाऊँ। जब हम हमारे जीवन की कहानी खुद को केंद्र में रखकर लिखेंगे जैसे मैं मेरी कहानी का हीरो हूँ, मैं ही निर्माता हूँ, सारी चीजें मेरे इर्द-गिर्द घुमती है। मैं .. मैं और बस मैं...। इस प्रकार की कहानी का अंत सर्वनश से होगा।
आईये हम प्रभु येसु को अपनी कहानी का हीरो बनायें, हमारे जीवन में येसु को बढने दें, उन्हें अपने जीवन में कार्य करने दें और अपने अहंकार को कम करें। हम संत पौलुस की तरह कहें - ‘‘मैं अब जीवित नहीं रहा, बल्कि मसीह मुझ में जीवित है’’ (गलातियों 2ः20)। तब देखना जीवित येसु किस तरह से हमारी इस कहानी को एक विजयी गाथा में बदल देंगे, जैसा कि यहां बपतिस्ता के साथ हुआ ।
आमेन।
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