Saturday, 4 December 2021

Second Sunday of Advent 2021, Sunday Reflections in Hindi

 बारूक 5ः1-9

फिलि. 1ः4-6,8-11
लुक 3ः1-6
इस्राएली लोग ईष्वर की चुनी हुई प्रजा थी। ईष्वर ने उन्हें सभी राष्ट्रों व देषों में से अपनी निजी प्रजा के रूप में चुन लिया था। वे नबियों के द्वारा उनसे कहते हैं - ‘‘चाहे पहाड टल जाये और पहाडियाँ डाँवाडोल हो जायें किंतु तेरे प्रति मेरा प्रेम नहीं टलेगा और तेरे लिए मेरा शाँति विधान नहीं डाँवाडोल होगा’’ (इसा. 42ः6)। ‘‘तुम मेेरी दृष्टी में मुल्यवान हो और महत्व रखते हो और मैं तुम्हें प्यार करता हूँ’’ (इसा. 43ः4)। ‘‘क्या स्त्री अपना दूधमुहा बच्चा भुला सकती है? कया वह अपनी गोद के पुत्र पर तरस नहीं खायेगी? यदि वह भुला भी दे, तो भी मैं तुम्हें कभी नहीं भुलाऊँगा’’ (इसा. 49ः15)। ऐसा अटल व घनिष्ट प्रेम था यहोवा का अपनी प्रजा के प्रति।
लेकिन इस्राएली प्रजा एक धोखेबाज प्रजा निकली। दूसरा इतिहास ग्रंथ 36ः14 में प्रभु का वचन कहता है - ‘‘याजकों के नेताओं और जनता में भी बहुत अधिक अधर्म फैल गया, क्योंकि उन्होेंने गैर-यहूदी राष्ट्रों के घृणित कार्यों का अनुकरण किया और प्रभु द्वारा प्रतिष्ठित येरूसालेम मंदिर को अपवित्र कर दिया।’’उन्होंने अपने प्रेमी ईष्वर को भूला कर देवी-देवताओं की पूजा की। उन्होंने उस प्रेमी पिता के प्यार को ठुकरा दिया। उन्होंने ईष्वर से बेवफाई की। उन्होंने वो सारे चिन्ह और चमत्कार भूला दिये जिसे ईष्वर ने उनकी आँखों के सामने किये थे। वचन आगे कहता है कि कई नबियों ने उन्हें बार-बार चेतावनी दी कि पाप व बुराई के जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो वह सही नहीं है; ईष्वर के धार्मिकता के मार्ग से भटक कर शैतान के मार्ग पर तुम्हारा जाना सही नहीं है। यह ईष्वर को कतई पसन्द नहीं है। तुम लौटकर वापस आ जाओ। अपना कुमार्ग त्यागकर अपने प्रेमी पिता के पास वापस आ जाओ। पर इस्राएलियों ने नबियों की बातों पर ध्यान नहीं दिया। उल्टे उन पर अत्याचार किये व कईयों को मार डाला। तब ईष्वर जो कि अब तक अपनी प्रजा के साथ था; युद्ध के समय उनकी तरफ से लडता था; शत्रुओं से उनकी रक्षा करता था; उन्हें उनसे भी अधिक शक्तिषाली राजाओं के विरूद्ध विजय दिलाता था; अब इन्हें त्याग देता है। प्रभु ने अपनी चुनी हुई प्रजा को अपने ही भाग्य पर छोड दिया। इसके विषय में प्रभु का वचन इतिहास ग्रंथ 36ः15 में कहता है - ‘‘प्रभु उनके पूवर्जाें का ईष्वर उनके पास अपने दूतों को निरन्तर भेजता रहा; कयोंकि उसे अपने मंदिर तथा अपनी प्रजा पर तरस आता था। किंतु उन्होंने ईष्वर के दूतों का उपहास किया, उसके उपदेषों का तिरस्कार किया और उसके नबियों की हँसी उडाई। अंत में ईष्वर का क्रोध अपनी प्रजा पर फूट पडा और उसे बचने का कोई उपाय नहीं रहा।’’
तब खल्दैयियों के राजा ने उन पर आक्रमण किया; उनकी आस्था व धार्मिकता के प्रतीक येरूसालेम मंदिर को तहस-नहस कर दिया; ईष्वर के मंदिर को सुपूर्दे खाक कर दिया। सारे देश को उजाड दिया; कईयों का वध कर दिया; व बाकि लोगों को बंदी बनाकर बाबुल देश उनकी गुलामी करने ले जाया गया। वहाँ करीब पचास साल तक वे बाबुल के निर्वासन में रहे; उनकी गुलामी करते रहे। वहाँ से इन्होंने प्रभु को पुकारा, इन्होंने अपने किये पर पश्चताप किया; इन्होंने प्रभु को अपनी दुर्दषा में पुकारा और प्रभु ने उनकी सुध ली। क्योंकि स्तोत्र 103ः 10-12 में वचन कहता है ‘‘प्रभु दया और अनुकम्पा से परिपूर्ण है; वह सहनषील और अत्यंत प्रेममय है; वह सदा दोष नहीं देता और चिरकाल तक क्रोध नहीं करता।’’ और प्रव. 17ः20-23 में वचन कहता है - ‘‘ईष्वर पश्चताप करने वालों को अपने पास लौटने देता और निराष लोगों को ढारस बंधाता है।’’ इसलिए प्रभु आज के पहले पाठ में उन्हें सांत्वना भरे शब्दों में कहता है - ‘‘येरूसालेम! अपने शोक और संताप के वस्त्र उतार और सादा के लिए ईष्वर की महिमा का सौंदर्य धारण कर...येरूसालेम! उठ खडा हो जा, पर्वत पर चढ़ कर पूर्व की ओर दृष्टि लगा। देख, प्रभु की आज्ञा से तेरे पुत्र पष्चिम और पूर्व से एकत्र हो गये हैं। वे आनन्द मना रहे हैं, क्योंकि ईष्वर ने उनकी सुधी ली है...दयामय तथा न्यायी ईष्वर इस्राएल को आनन्द प्रदान करेगा और अपनी महिमा के प्रकाष से उसका पथप्रदर्षन करेगा।’’
बपतिस्मा ग्रहण करके हम सभी प्रभु की चुनी हुई प्रजा बन गये हैं। हम सब नये येरूसालेम यानी प्रभु की कलीसिया के सदस्य हैं; हम सब नयी इस्राएली प्रजा कहलाते हैं। प्रभु ने हम सब से अनन्त प्रेम से प्रेम किया है। जो प्रेमभरे वचन प्रभु ने इस्राएली जनता से कहे थे वे आज हमसे भी कहते हैं। तुम मेरी दृष्टि में मुल्यवान हो...चाहे माँ अपने दुधमुँहे बच्चे को भूला भी दे तो भी मैं तुम्हें नहीं भूलाऊँगा आदि। आईये हम अपने आप का जाँच करके देखें कि हम उन इसा्रएली लोगों से कितने भिन्न हैं। क्या हम, भी हमसे प्रेम करने वाले ईष्वर को त्याग कर बुराई के मार्ग पर नहीं चलते? क्या हम भी हमारे कार्यों द्वारा उनको अप्रसन्न नहीं करते? क्या हमने भी जानबुझकर हमसे अनन्त प्रेम करने वाले ईष्वर के दिल को नहीं तोडा? क्या हमने उनको अपने पापों के कारण दुःख नहीं पहुँचाया?
तो आईये हम भी प्रभु के पास वापस लौट चलें। यह आगमन का समय हमारे लिए प्रभु के पास पुनः लौट आने का उचित समय है। आइये हम आज के सुसमाचार के वचनों पर मनन चिंतन करें। आज के सुसमाचार में संत योहन बपतिस्ता हमें अपने पापों पर पश्चताप करते हुए प्रभु के लिए अपने आपको तैयार करने को कहते हैं। वे कहते हैं ‘‘प्रभु का मार्ग तैयार करो’’ हम सब को प्रभु के लिए मार्ग तैयार करने की ज़रूरत है। योहन बपतिस्ता का काम था प्रभु के रास्ते को सीधा करना। हमें भी पश्चताप, क्षमा, शाँति, प्रेम व पवित्रता के जीवन द्वारा प्रभु के रास्ते को सीधा करना है। ‘‘हर पहाड व पहाडी समतल की जाये’’ हमें हमारे जीवन से घमंड के पहाडों को खोदकर समतल करना है। ‘‘हर घाटी भर दी जाये’’ घाटी को भरना अथवा खाई को पाटना, हमें याद दिलाता है हमारी खोखली धार्मिकता की। जिस विष्वास की हम घोषणा करते हैं और जिस प्रकार का जीवन हम रोज वास्तव में जीते हैं इसके बीच एक बहुत बडी खाई है, जिसे हमें समतल करना है। हमें हमारे विष्वास व दैनिक जीवन के बीच की खाई को भरकर दोनों में समानता लाना है। हमारी कथनी व करनी में समानता लाना है। ‘‘टढे-मेढे रास्ते सीधे कर दिये जायेंगे’’ हमारे पापमय रास्ते, बुराईयों भरे रास्ते को हमें सीधा करना है। बुराईयों के टेढे-मेढे रास्ते को सुधारकर हमें सीधा करना है। याने हमारे जीवन में सुधार लाना है।
यह सब करना तभी संभव है जब हमें हमारी गलतियों का आभास होगा। जब हमें लगेगा कि हाँ मैं सचमुच प्रभु से दूर हो गया हूँ, मुझे जब ये लगने लगेगा कि हाँ मुझे प्रभु के पास लौट आना चाहिए। और इसके लिए सच्चे मन से पश्चताप करते हुवे पापस्वीकार संस्कार के द्वारा प्रभु से व अपने पडोसियों से मेलमिलाप करने व पवित्र युखरिस्त में भाग लेने से बेहतर रास्ता और क्या हो सकता है। माता कलीसिया इस आगमनकाल में हमें पश्चताप करने व अपनी पापमय जिंदगी से मन फिराकर प्रभु के पास लौटने का एक सुअवसर प्रदान करती हैं। आईये हम इस पवित्र समय का पूरा लाभ उठायें। व प्रभु के लिए स्वयं को अच्छी तरह से तैयार करें।

आमेन।  

Tuesday, 8 June 2021

Feast of Sacred Heart of Jesus 11 June 2021

 

पहला पाठ : होशेआ 11:1, 3-4, 8-9

दूसरा पाठ: एफेसियों 3:8-12, 14-19

सुसमाचार : सन्त योहन का सुसमाचार 19:31-37




आज हम प्रभु येसु ख्रीस्त के अति पवित्रतम हृदय का पर्व मनाते हैं। हृदय का पवित्र बाइबल में क्या महत्व अथवा स्थान है? पवित्र बाइबल में करीब 1000 से भी ज्यादा बार हृदय शब्द का प्रयोग हुआ है। कैथोलिक धर्म की धर्म शिक्षा के नम्बर 2563 (CCC2563) में हृदय  को किसी मनुष्य का छिपा हुआ केंद्र कहा गया है। केवल ईश्वर ही इसे पूरी तरह से समझ सकता है. 


यदि मुझे किसी को जानना है तो उस व्यक्ति को मेरे सामने अपना दिल को खोलना होगा। कई बार किसी बात का यकिन दिलाने के लिए हमारा कोई अजीज़ दोस्त हम से कहता हैं कि मैं तुम्हें मेरे दिल की बात बता रहा हूँ। इसका मतलब क्या हुआ? यह कि वह व्यक्ति अपनी सबसे भीतर की बात व अपनी सबसे व्यक्तिगत बात को हमारे सामने रख रहा है। और दूसरे शब्दों में यदि हम कहें तो वह अपना दिल हमारे सामने खोल रहा है; वह अपने भीतर छिपी सच्चाई को हमारे सामने रख रहा है। और भी सटीक रूप  से कहें तो वह व्यक्ति यह चाहता है कि हम उसे उस रूप में समझें जैसा वो वास्तव में है।

आज का यह पर्व हमें यह याद दिलाता है कि सारी कायनात के खुदा, हम सब को बनाने और हमारा अस्तित्व बनाये रखने वाले ईश्वर ने अपना दिल हमारे लिये खोला दिया है। पवित्र हृदय के प्रति हमारी भक्ति का आधार यही है। आज के पहले पाठ में प्रभु का वचन कहता है कि उन्होंने इस्राएलियों को उनकी किसी श्रेष्ठता के कारण नहीं अपनाया पर प्रभु ने उनके प्रति अपने प्रेम के खातिर उन्हें अपनी प्रजा बनाया।  यहोवा ईश्वर उन्हें बच्चों की भाँति  दुलार और प्यार करता है - इस्राएल जब बालक था, तो मैं उसे प्यार करता था और मैंने मिस्र देश से अपने पुत्र को बुलाया। मैंने एफ्राईम को चलना सिखाया। मैं उन्हें गोद में उठाय करता था, किन्तु वे नहीं समझे कि मैं उनकी देखरेख करता था मैं उन्हें दया तथा प्रेम की बागडोर से टहलाता था। जिस तरह कोई बच्चे को उठा कर गले लगाता है, उसी तरह मैं भी उनके साथ व्यवहार करता था। मैं झुक कर उन्हें भोजन दिया करता था।
 संत योहन के पहले पत्र 4:16  में प्रभु का वचन हमें ईश्वर की परिभाषा बतलाता है।  और वो है - ईश्वर प्रेम है. ईश्वर का अस्तित्व ही प्रेम है . 

इसलिए पवित्र हृदय के प्रति भक्ति का मलतब होता है ईश्वर के अस्तित्व व उसके सार-तत्व के प्रति भक्ति। दूसरे शब्दों में पवित्र हृदय की भक्ति ईश्वर के प्रति भक्ति ही है, उस रूप में जैसा कि वह अपने आप को हम पर प्रकट करना चाहता है। पूर्व संत पिता बेनेडिक्ट सौलहंवें  कहते हैं - ‘‘उनके छिदे हुए हृदय में स्वयं ईश्वर का हृदय खोला गया है। यहाँ हम देखते हैं कि ईश्वर कौन है और ईश्वर कैसा है। अब स्वर्ग बंद नहीं रहा। ईश्वर अदृष्य से बाहर आ गया है ।’’

यदि ईश्वर अपने आप को इस रूप में प्रकट नहीं करते तो शायद हमें उन्हें जानने का मौका नहीं मिलता। हमें बस ईश्वर के इस निमंत्रण को स्वीकार करना है। येसु अपना दिल  खोलकर हमें यह बतलाना चाह रहे हैं कि ईश्वर मनुष्यों के साथ एक रिशता कायम करना चाहते हैं। हमें दिल से अपनाना चाहते हैं। दुनिया का कोई भी धर्म ईश्वर की ऐसी सुन्दर तस्वीर हमारे सामने नहीं पेश  करता है। केवल मसीहत में खुदा इंसान से इतना अधिक प्यार करता है  कि वह हम में से एक जैसा बन जाता है ताकि वह हमारे लिए अपना दिल खोल सकें और हम उनके साथ प्रेम के रिश्ते  में जुड जायें। 

 समारी स्त्री के वाकये में येसु उस स्त्री से पानी माँगता है। प्रभु प्यासा है। क्रूस से भी उन्होंने यह कहा था - ‘‘मैं प्यासा हूँ।’’ (योहन १९:२८).   हमारा ईश्वर आज भी प्यासा है, हमारे लिए। आज भी उसका दिल हमारे लिए खुला हुआ है। वह हर रोज अपना दिल खोलकर हमें अपने पास बुलाता है। संत मत्ती ११:28 में प्रभु येसु हम से कहते है - "थके मांदे  और बोझ से दबे हुए लोगों! तुम सब के सब मेरे पास आओ . मैं तुम्हें विश्राम दूंगा. मैं स्वाभाव से नम्र और विनीत हूँ. " वो अपने प्रेमी ह्रदय के करीब हम सब को बुला रहा है . वो हमें अपने प्रेम के सागर में डूबा देना चाहता है . वह हर रोज हमें यह निमंत्रण देता है कि हम उनके प्यार को  जाने, पहचानें व उसके प्रेम में दिवाने हो जायें। उसके प्रेम के रस में अपने का डुबो दें। उसके छिदे हुए हृदय से टपकते लहू व जल से हम अपने पापमय जीवन को धो लें। और अपने आप को येसु के प्रेमी हृदय में छिपा लें जो सिर्फ और सिर्फ हमारे खातिर माँस बना, ताकि एक मानवीय हृदय से ईश्वर अपने बच्चों से प्यार कर सके। आईये हम येसु के पवित्रम हृदय की तस्वीर को हमारे जेहन में लायें जो कि सारी मानवजाती के प्यार के लिए दहक रहा है। और अपने आपको व सारी मानवजाती को प्रभु येसु के अति पवित्रतम् हृदय के प्रति समर्पित करें व प्रार्थना करें जिससे  जैसा कि आज के दूसरे पाठ में संत पौलुस कहते हैं - "आप लोग  येसु के प्यार की लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, और गहराई   को समझ सकें" (ऐफेसयों 3 :18) और उनके प्रेम के निमंत्रण को स्वीकार कर उनके प्रेम में निरंतर बढते जायें। आमेन।


Sweet Heart of Jesus, 
be my love.

Happy Feast to All. 

Monday, 7 June 2021

Feast of Corpus Christi: Reflection in Hindi By Fr Preetam Vasuniya

 आज हम प्रभु येसु ख्रीस्त के अति पवित्रतम शरीर एवं रक्त का पर्व मना रहे हैं। कोरोना की महामारी, लॉक डाऊन, और सामाजिक दुरी के इस दौर में कई कैथोलिक विश्वासियों को सबसे ज्यादा जिस बात ने दुखित और विचलित किया वो है महीनो तक पवित्र यूखरिस्त नहीं ग्रहण कर पाना। इस लॉक डाउन के दौरान कई विश्वासियों ने पवित्र यूखरिस्त के आभाव में अपने को काफी अधूरा और खली महसूस किया। कईयों की येसु को दिल में ग्रहण करने के लिए आत्मिक भूख और प्यास बहुत तीव्र हो गई होगी। 


कुछ दिन पहले प्रख्यात पेंटेकोस्टल पास्टर बेन्नी हिन् का एक वीडियो देखने को मिला जिसमें वे पवित्र यूखरिस्त के बारे  में बतलाते हुए कहते हैं कि एक अध्ययन में ये सामने आया है कि कैथोलिक चर्च में पवित्र यूखरिस्त के दौरान ज्यादा लागों को चंगाई मिलती है। क्योंकि वे पवित्र यूखरिस्त में विश्वास करते हैं। अपने चर्च का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि उनके लिए तो यूखरिस्त में प्रभु येसु की केवल प्रतीकात्मक उपस्थिति होती है। परन्तु प्रभु येसु ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा कि - ‘‘ले लो और खाओ। यह मेरा शरीर है” (मत्ती 26:26) उन्होंने यह नहीं कहा कि यह रोटी मेरे शरीर का प्रतीक है। पर उन्होंने कहा यह मेरा शरीर है। और संत योहन 6:53 में भी प्रभु येसु ने स्पष्ट कहा है - ‘‘यदि तुम मानव पुत्र का मांस नहीं खाओगे और उसका रक्त नहीं पियोगेतो तुम्हें जीवन प्राप्त नहीं होगा
प्रभु येसु के इस संसार में आने का उद्देश्य ही यह था कि उनके द्वारा हमें अनन्त जीवन प्राप्त हो। संत योहन 3:16 में लिखा है - ‘‘ईश्वर ने संसार को इतना प्रेम किया कि उसने उसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दियाजिससे जो कोई उस में विश्वास करता हैउसका सर्वनाश न होबल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे। अनन्त जीवन का खजानाअनन्त जीवन का उपहार पवित्र यूखरिस्त में छिपा है।  

द्वितीय वैटिकन महासभा सिखलाती है कि पवित्र युखरिस्त कलीसिया के जीवन का स्रोत और उसकी पाराकाष्ठा है। (Lumen Gentium, 11) इसी से कलीसिया को जीवन मिलता है और इसी में कलीसिया का अंतिम लक्ष्य निहित है। अन्य संस्कारों में तो हमें ईश्वर की कृपा मिलती है परन्तु पवित्र यूखारिस्त में तो हमें कृपाओं को प्रदान करने वाला ईश्वर स्वयं प्राप्त होता है। क्योंकि यूखरिस्त तो स्वयं प्रभु येसु ही हैंऔर बिना उनके कलीसिया की कल्पना करना संभव नहीं।

पर एक बडा सवाल यह उठता है कि इस प्रभु येसु को ग्रहण करने वालों ने उन्हें कितनी गहराई से समझा हैक्या आपने कभी कल्पना की कि यदि आप भी प्रभु येसु के समय उनके साथ होते और आपको उन्हें स्पर्श करने का अवसर मिलता! कितना सुखद और कितना अनुग्रहकारी क्षण होता वहहै नअगर छूना नहीं मिलता तो कम से कम उनकी एक झलक भी देखने को मिल जाती तो भी हम तो अपने को बडा सौभाग्यशाली मानतेहै नमाँ मरियम की महानता पर प्रवचन देते समय मैं कई बार इस बात को रखता हूँ कि वे इसलिए महान मानी जाती है क्योंकि उन्होंने ईश्वर के पुत्र को नौ महिनों तक अपने गर्भ में रखा। उन्होंने सृष्टिकर्त्ता को नौ महिनों तक अपनी कोख में रखा। जरा विचार कीजिए कि यदि सिर्फ नौ महिनों तक येसु की देह को अपने गर्भ में रखने से यदि माता मरिय सब नारियों में धन्य बन गई तो हर रविवार या फिर हर रोज उसी येसु को अपने दिल में ग्रहण करने वाले हम कितने महान हो सकते हैं। क्या हम इस बात को दिल से मानते हैं कि हमारे दिल में रोज आने वाला येसु वही येसु है जो मरियम के गर्भ में थाक्या यह वही येसु है जो जोसफ और मरियम के साथ नाज़रेथ में करीब तीस साल रहाक्या यह वही येसु है जिसने अंधों को आँखें और मुर्दों को जान दीजी हाँ यह वही प्रभु है. 

तब दूसरा सवाल यह खडा होता है कि यदि प्रभु येसु अपनी उसी महिमा में पवित्र यूखरिस्त में हमारे दिल में आते हैं तो फिर हमें जो उन्हें ग्रहण करते हैं उस प्रभु की उपस्थिति का प्रभाव हमारे जीवन में क्यों नहीं पडतापवित्र यूखरिस्त ग्रहण करने के पहले और ग्रहण करने के बाद मुझ में क्या परिवर्तन आता हैयूखरिस्त ग्रहण करने के कितने समय तक मैं इस अनुभुति में रहता हूँ कि प्रभु मेरे दिल में है? 

एक और बडा सवाल हमेशा मेरे मन में कौंधता रहता है कि यदि जीवित प्रभु येसु मेरे हृदय में हैं तो फिर भी क्यों मेरे जीवन में संकटदुःखबीमारीनिराशा और परेशानियाँ हैअथवा जब मैं कठिनाईयों के दौर से गुजरता हूँ तब यूखरिस्तीय प्रभु मेरे अंदर क्या कर रहे होते हैंक्या वे सो रहे होते हैंजी हाँकाफी हद तक यह कहा जा सकता है कि प्रभु सो जाते होंगे। वास्तव में तो प्रभु कभी सोते नहीं। स्तोत्र 121:4 में प्रभु का वचन कहता है -‘‘इस्राएल का रक्षक न तो सोता है और न झपकी लेता है पर मत्ती 8:23-27 में हम पाते हैं कि प्रभु येसु अपने शिष्यों के साथ नाव में सवार होकर कहीं जा रहे थे। और वे एक आँधी में फँस जाते हैं। उस बवंडर के बीच पवित्र सुसमाचार हमें बतलाता है कि प्रभु येसु सो रहे होते हैं। क्या प्रभु येसु वास्तव में सो रहे थेक्या वे वास्तव में इतनी गहरी नींद में थे कि वहाँ पर क्या हो रहा है उन्हें पता भी नहीं चलामैं नहीं सोचता वे वास्तव में गहरी नींद में थे। दरअसल शिष्यों के पास उनसे बात करने का समय नहीं था। शिष्य अपनी ही धुन में थे। इसलिए येसु विश्राम करने चले जाते हैं। शायद हम भी यूखरीस्तीय प्रभु को इसी प्रकार सोने भेज देते हैं। एक बार पवित्र परम प्रसाद ग्रहण किया और फिर भूल गये प्रभु को। हम व्यर्थ ही जीवन में परेशान रहते हैंजबकि हमारा जिंदा खुदावन्द हरदम हमारे साथ रहता है। शिष्यों की तरह व्यर्थ ही जिंदगी के छोटे-मोटे तूफानों से घबराकर अपने हिसाब से अपने जीवन की नाव को बचाने के प्रयास करते रहते हैं। जब सब कुछ हमारी क्षमता के परे होने लगता है तब हमें उस प्रभु की याद आती है। हमें हमारे प्रभु को सुलाना नहीं उन्हें हमारी जिंदगी में व्यस्त रखना है। यदि आपका कोई अजीज मित्र आपसे मिलने आपके घर इस उम्मीद से आये कि मिलकर ढेर सारी बातें करेंगेअपना सुख-दुख साझा करेंगे व साथ में कुछ समय बितायेंगे। ज़रा सोचिए यदि आप उसे समय नहीं देतेआप अपने मोबाइलटीवी या फिर कम्प्यूटर में व्यस्थ हैं तो आपके उस दोस्त को कैसा लगेगाप्रभु येसु आपसे रोज बातें करना चाहते हैंरोज आपका हाल पूछना चाहते हैंआपकी रोज की खैर-खबर रखना चाहते हैंआपके दुखों को हल्का करना चाहते हैंआपकी जिंदगी के बोझ को अपने ऊपर लेना चाहते हैंवे कहते हैं - थके माँदे और बोझ से दबे हुए लोगों तुम सबके सब मेरे पास आओ मैं तुम्हें विश्राम दूँगा। (संत मत्ती 11,28)
वे आपके जीवन को लेकर चिंतित हैउनके मन में आपके लिए एक योजना है। ‘‘तुम्हारे लिए निर्धारित अपनी योजनाएँ मैं जानता हूँ - तुम्हारे हित की योजनाएँअहित की नहीं तुम्हारे लिए आशामय भविष्य की योजनाएँ। (यिरमियाह 29:11) वे चाहते हैं कि आपको अपनी उस सुखद योजना के बारे में बताएआपसे उस पर चर्चा करें।

क्या हम हमारे दिल में रहने वाले प्रभु येसु से बातचीत करते हैंउनकी बातों को सुनते हैंअपने जीवन में उनकी रजाउनकी मरजी क्या हैक्या हम उनसे यह पूछते हैंदिन में कितनी बार हम उनको याद करते हैंवो तो हमारे सबसे करीब हैंहमारे दिल में अंदर हैंहमेशा इस इंतजार में कि हम कब उनसे बात करने का समय निकालेंगे। वो अपने प्यार भरे लब्जों से दिन में कितनी ही बार हमें पुकारते हैं। पर हम कितनी ही बार उनकी वाणी को अनसुना कर देते हैं। हर घडी जब प्रलोभन व बुराई की शक्तियाँ हमें अपनी ओर खींचती हैं तो वह प्रभु येसु कितनी बार हमें उनसे बचने के लिए आगाह करते हैंपर हम उनके प्रयासों को नज़रअंदाज कर देते हैं। हम उन्हें हमारे दिल के एक कोने में सोने को मज़बूर कर देते हैं।
आईये हम पवित्र संस्कार के प्रति अपने नज़रिये को बदलें और उसमें उपस्थित प्रभु की वास्तविक उपस्थिति का आभास स्वयं को हर पल करायें। विशेष करके प्रभु यसु के शरीर और रक्त को ग्रहण करने के तुरन्त बाद के मूल्यवान पलों में कुछ क्षण शाँत रहकर येसु से संवाद करनेऔर उनसे बातचीत करने में लीन हो जायें। जितनी घनिष्टता से हम उनसे जुडेंगे उतना अधिक हम उनका दिव्य अनुभव प्राप्त करेंगे। प्रभु येसु को हम अपना सबसे करीबी मित्र बना लें। उनकी उपस्थिति की अनुभुति हर पल हमारे मन में रहे। यदि ऐसा हुआ तो फिर न तो कोई प्रलोभनन कोई शैतान की ताकतन कोई बुराईन कोई विपत्तिन कोई बीमारी, न कोई महामारी, न कोरोना वायरस और न कोई किसी प्रकार की निराशा हमें विचलित कर सकती है क्योंकि येसु ने इन सब पर विजय प्राप्त की है। (योहन 16:33)। आमेन।

Friday, 28 May 2021

पवित्र त्रित्व का रविवार: 30 May 2021 Hindi Reflection by Fr. Preetam Vasuniya


 पवित्र त्रित्व का रविवार


निर्गमन 4:32-34, 39-40 
रोमियों 8:14-17 
मत्ती 28:16-20 
आज हम पवित्र त्रिएक ईश्वर का रविवार मनाते हैं। और आज के दिन शायद प्रवचन देना सबसे मुश्किल  होता है। क्योंकि पवित्र त्रित्व का रहस्य ईश्वर के अस्तित्व का सबसे गहरा रहस्य है। ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में, या उनके देहधारण को या फिर उनके पुनरूत्थान को काफी हद तक समझा जा सकता है। परन्तु एक ही ईश्वर होते हुए भी उसमें तीन जन होना, वो भी बिना किसी भिन्नता के, बिना किसी विरोधाभास के और बिना किसी वर्गिकरण के। ऐसे एक अटूट व परिपूर्ण एकतारूपी ईश्वर के अस्तित्व को समझना साधारण व सीमित मानव बुद्धी के बस की बात नहीं।

कई लोग इसे समझाने के लिए कई ऐसे उदाहरण पेश करते हैं जिसे हम हमारी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अनुभव कर सकते हैं और समझ सकते हैं। जैसे कई लोग पानी की तीन विभिन्न अवस्थाओं का हवाला देते हुए कहते हैं जैसे पानी का मौलिक रूप H2O है, पर वह तीन विभिन्न अवस्थाओं में पाया जाता है जैसे द्रव (तरल पानी), ठोस (बर्फ) और गैस (भाप)। इन तीनों रूपों में वह है तो वही पानी पर तीन विभिन्न अवस्थाओं में मौजूद रहता है। वैसे ही ईश्वर है तो एक ही वास्तविकता एक ही अस्तित्व पर वह तीन विविध रूपों में अपने आप को प्रकट करता है - पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा।

परन्तु सच्चाई यह है कि कोई भी अनुभवजन्य ज्ञान या उदाहरण पवित्र त्रित्व को समझाने के लिए सटीक या पर्याप्त नहीं है। क्योंकि यह ‘ईश्वर’ का रहस्य है। इसायाह 55ः8-9 में वही ईश्वर हम से कहते हैं - ‘‘तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं है और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं है। जिस तरह आकाश पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचा है उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊँचे हैं।’’

जब हम पवित्र त्रित्व के बारे में बात करते हैं  तो मैं इसकी शुरूआत संत योहन के पहले पत्र अध्याय 4ः8 से करना उचित समझता हूँ। जहाँ पर संत योहन ईश्वर की परिभाषा इन शब्दों में पेश  करते हैं - ‘‘ईश्वर प्रेम है।’’
हम ख्रीस्तीयों की सबसे हटकर एक पहचान है और वह है हमारी ईश्वर की समझ या ईश्वर की पहचान। ख्रीस्तीयों के लिए ईश्वर प्यार है। एक यहूदी या फिर मुस्लिम यह कहेंगे कि ईश्वर प्यार करता है। यह सच है। परन्तु ईसाईत की अलग पहचान इस बात को लेकर है कि हमारे लिए ‘ईश्वर प्यार है।’ दूसरे शब्दों में प्यार वह कोई चीज नहीं जिसे ईश्वर करता है परन्तु प्यार ईश्वर की परिभाषा है, प्यार ईश्वर की एक पहचान है। या फिर प्यार ईश्वर का अस्तित्व है। ‘ईश्वर प्यार है’ यह दावा ही पवित्र त्रित्व को समझने व पहचानने का आधार है। ईश्वर प्यार है और ईश्वर त्रित्व है ये दोनों एक ही बात की और इंगित करते हैं।

यदि हम यह कहते हैं कि ईश्वर प्यार है तो ईश्वर के अपने अस्तित्व के भीतर ही यह प्यार क्रियाशील होना चाहिए। याने ईश्वर के एक ही अस्तित्व में प्यार करने वाला, प्यार पाने वाला और प्यार स्वयं मौजूद होना चाहिए। जि हाॅं ईश्वर संसार से प्यार करता है यह सत्य है। परन्तु आदिकाल से ईश्वर की पहचान यह है कि वह प्यार है। और इसलिए हमें यह कहना उचित है कि ईश्वर प्यार है और अपने अंदर उस प्यार की तीन भूमिकायें हैं। पिता जो कि प्यार का उद्गम है, और  जो पुत्र से प्रेम  करता है और पिता पुत्र के बीच का यह प्रेम ही आत्मा है। पवित्र त्रियेक ईश्वर यह बतलाता है कि उसमें प्रेम की परिपूर्णता है। जिसमें प्रेम की परिपूर्णता है वही सच्चा और पूर्ण ईश्वर हो सकता है। पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा में प्रेम की परिपूर्णता विद्यमान है। जब हम प्रेम की बात करते हैं तो हमारा अनुभव हमें यह बतलाता है कि प्यार कभी निश्छल नहीं हो सकता है परन्तु प्यार हमेशा गतिशील रहता है। यदि मुझमें किसी के प्रति प्यार है तो वह प्यार मेरे भीतर निष्क्रिय रूप में पडा नहीं रहता पर वह गतिशील  या क्रियाशील  होकर अपनी अभिव्यक्ति का रास्ता खोजता है। वह शब्दों द्वारा, उपहार द्वारा, आलिंगन द्वारा, स्पर्श द्वारा, चुंबन द्वारा या फिर मन में प्रेम भरी एक कल्पना द्वरा व्यक्त किया जाता है।

उसी प्रकार जब हम कहते हैं कि ईश्व प्यार है तो यह प्यार अपने आप में निष्क्रिय नहीं रह सकता। वह अपनी अभिव्यक्ति खोजेगा। हम यह जानते और विश्वाश करते हैं कि ईश्वर अनादिकाल से विद्यमान हैं। यदि ईश्वर अनादि काल से विद्यमान है और वह ईश्वर प्रेम है तो उस ईश्वर को त्रियेक रूप में होना आवश्यक आवश्यक  है। क्योंकि एक ही जन में, अपने आप में प्रेम की अभिव्यक्ति असंभव है। इसलिए ईश्वर जो कि प्यार है वह पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के रूप में एक ही प्यार के बंधन में एक ही सह अस्तित्व में निवास करता हैं। इसलिए पवित्र त्रित्व में ही पूर्ण ईश्वर हो सकता है। अन्यथा ईश्वर में एक अधूरापन रह जाता है। और जिसमें अधूरापन है वह ईश्वर नहीं हो सकता। 

अब ये पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा अपना अलग-अलग अस्तित्व रखने वाले तीन ईश्वर नहीं वरन एक ही ईश्वर के तीन जन हैं। इनका अस्तित्व एक ही है और वह है एकमात्र ईश्वर का अस्तित्व। ये तीनों अलग-अलग अस्तित्व नहीं रख सकते। इन तीनों को एक ही अस्तित्व में परिपूर्णता से बाँधे रखने वाली शक्ति है उनका प्रेम। पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के बीच कभी विभाजित न की जा सकने वाली एकता का रहस्यह है उनका अविभाजित, कभी न तोडा जा सकने वाला और कभी न खत्म होने वाला प्यार। इसलिए प्रभु येसु संत योहन 10ः30 में कहते हैं - ‘‘मैं और पिता एक हैं।’’ और योहन 14ः9 में प्रभु येसु कहते हैं - ‘‘जिसने मुझे देखा है उसने पिता को भी देखा है।’’ और संत पेत्रुस पेंतेकोस्त के दिन अपने प्रथम भाषण में लोगों से नबी योएल के ग्रंथ का हवाला देते हुए पवित्र आत्मा के विषय में की गई भविष्यवाणी के बारे में बतलाते हैं - "मैं अंतिम दिनों सब शरीरधारियों पर अपना आत्मा उतारूँगा।’’ यहाँ पर ईश्वरअपने आत्मा के बारे में कह रहे हैं। जो आत्मा पेंतेकोस्त के दिन प्रेरितो पर उतरा वह ईश्वर से बाहर अस्तित्व रखने वाली कोई आत्मा नहीं परन्तु स्वयं ईश्वर का आत्मा था। याने पवित्र त्रित्व का तीसरा जन स्वयं ईश्वर की त्रियेक सत्ता से प्रसृत होता है।

ईश्वर का त्रिएक रूप में होना हमें क्या सिखलाता है? ईश्वर का त्रिएक अस्तित्व है याने प्रेम की परिपूर्णता का अस्तित्व है। अपने इसी स्वाभाव के कारण ईश्वर हमारी सृष्टि करता है और वही  त्रियेक ईश्वर हमें अपने इस प्रेम में भागिदार होने के लिए बुलाता है। संत योहन 14ः23 में प्रभु येसु कहते हैं - ‘‘यदि कोई मुझे प्यार करेगा तो वह मेरी शिक्षा पर चलेगा। मेरा पिता उसे प्यार करेगा और हम उसके पास आकर उसमें निवास करेंगे।’’
तो यह है पवित्र त्रित्व में विश्वास करने का अंतिम उद्देश्य कि हम ईश्वर के इस असीम और अनन्त प्रेम के भागिदार बन जायें।

संत योहन 14ः1 में प्रभु येसु अपनी ख़्वाहिश इन श्ब्दों में बयाँन करते हैं - "जिससे जहाँ मैं हूँ वहाँ तुम भी रहो’’ प्रभु येसु कहाॅँ है? इसके बारे में योहन 14ः11 में येसु हमें बतलाते हैं  - ‘‘मैं पिता में हूँ ओर पिता मुझमें हैं’’ इसका आशय यह हुआ कि पवित्र त्रिएक ईश्वर हमें अपने प्रेम में एक हो जाने के लिए बुलाता है। याने हम सब पिता पुत्र और पवित्र आत्मा के एकता में भागीदार होकर एक हो जाएँ।  

येसु ख्रीस्त की शिक्षाओं पर चले बिना हम उनसे प्यार नहीं कर पायेंगे और न ही उनके प्यार के सहभागी बन पायेंगे। तो सबसे पहले हमें येसु ख्रीस्त  को पहचानना उन्हें स्वीकार करना और उनकी आज्ञाओं को मानना होगा। तब हम उनसे प्यार कर पायेंगे और स्वयं पिता हमें प्यार करेगा और पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा हममें आकर निवास करेंगे। 
आमेन।

Thursday, 13 May 2021

स्वर्गारोहण का पर्व, the Solemnity of the Ascension, 16 May, 2021: #Reflection in Hindi by Fr. Preetam Vasuniya

Act .1:1-11 

Eph. 4:1-13

Mk. 16:15-2021

स्वर्गारोहण का पर्व अपने आप में एक खास पर्व है जिस दिन हमारे मुक्तिदाता प्रभु येसु ख्रीस्त अपना मुक्तिकार्य सम्पन्न कर इस संसार से आरोहित कर लिये जाते हैं। स्वर्गारोहण की बात जब आती है तब यहूदियों के ब्रह्माण्ड शास्त्र को समझना गौरतलब है। यहूदियों के मतानुसार तीन लोक होते हैं - पृथ्वी लोक, स्वर्गलोक और अधोलोक। प्रभु येसु के स्वार्गारोहण के संदर्भ में इन तीनों लोकों को एक अलग-अलग अस्तित्व में देखते हुए यह कहना उचित नहीं होगा कि येसु इस लोक को पूरी तरह छोडकर दूसरे लोक में चले गये। और यूं कहें कि अपने स्वर्गारोहण के बाद प्रभु येसु इस दुनिया में अपनी अनुपस्थिति छोड गये। नहीं, येसु के स्वर्गारोहण के समय कुछ हट कर और विशेष कार्य सम्पन्न होता है। उनका पुनरूत्थान, स्वर्गारोहण और पवित्र आत्मा का प्रेरितों पर उतरना ये तीनों घटनायें एक दूसरे से बेहद जुडी हुई हैं। पुनरूत्थान के बाद प्रभु येसु का शरीर रूपान्तरित हो जाता है। जो है तो शरीर पर उसे साधारण मानवीय ऑंखें पहचान नहीं पाती। वे उन्हें कोई आत्मा समझ बैठते हैं। तब वे उनके सामने भूनी हुई मछली का एक टुकडा खाते हैं और उनकी ऑंखों का भ्रम दूर करते हैं। (संत लूकस 24:36-42) जैसे उनका वह शरीर जो योहन 1:14 के अनुसार कुँवारी के गर्भ में देह धारण करता है वह अब रूपान्तरित होकर एक पुनरूत्थित शरीर बन जाता है। अपने स्वर्गारोहण में वैसे ही येसु इस दुनिया की वास्तविकता को स्वर्गीक वास्तविकता में तब्दील कर देते हैं। अपनेपिता हमारेकी प्रार्थना में प्रभु येसु इसी की कामना करते हुए कहते हैं - हे पिता तेरा राज्य इस धरती पर आये। तो हमारी मुक्ति का अर्थ इस पापमय संसार से छुटकारा पाकर कहीं दूसरे लोक में बच भागना नहीं, पर ईश्वर द्वारा हमारे इस संसार को एक नया रूप देना है, उनका राज्य हमारे बीच स्थापित करना है। जैसा कि स्तोत्रकार स्तोत्र 57:12 में कहता है - समस्त पृथ्वी पर तेरी महिमा प्रकट हो। इसे समझने के लिए हमें पेंतेकोस्त के दिन जो होता है उसपर ध्यान देना ज़रूरी है। ये दोनों घटनायें याने प्रभु का स्वर्गारोहण और पवित्र आत्मा का उतरना एक दूसरे से घनिष्टता से जुडी हुई है। इन दोनों घटनाओं में, एक में येसु दुनिया से स्वर्ग जाते हैं और दूसरी में स्वर्ग से पवित्र आत्मा नीचे आता है। तो येसु मसीह का स्वर्गारोहण इस लोक से किसी अन्य लोक में जाना नहीं परन्तु दुनियाई वास्तविकता को स्वर्गिक वास्तविकता में परिवर्तित करना है। यह स्वर्ग और पृथ्वी का मिलन है। यहॉं पृथ्वी का स्वर्ग के द्वारा रूपान्तरण होता है। स्वर्गिक शक्ति दुनिया को रूपान्तरित करती है।

और यहाँ हम  जिस रूपांतरण की बात कर रहे हैं वह रूपांतरण कोई प्राकृतिक अथवा  भौतिक रूपांतरण नहीं। इसका सीधा सा मतलब मनुष्यों के  रूपांतरण से है।   संत पौलुस कलोसियों 1:24 में कहते हैं कि कलीसिया मसीह का शरीर और उनकी परिपूर्णता है। मसीह सब कुछ, सब तरह से पूर्णता तक पहुँचा देते हैं। 

इससे हमें यह समझ में आता हैं कि कलीसिया   याने विश्वासियों का समुदाय प्रभु येसु का रहस्य्मय शरीर हैं।  यदि कलीसिया मसीह का शरीर है तो पेंतेकोस्त के दिन कलीसिया रूपी इसी शरीर को मसीह ने अपना आत्मा भेज कर परिपूर्णता प्रदान की है। इससे हमको यह समझ में आता है कि येसु अपने स्वर्गारोहण के द्वारा कलीसिया को रूपान्तरित करते हैं, पवित्र करते हैं, परिपूर्ण करते हैं और एक नया रूप देते हैं। वे धरती पर की कलीसिया को स्वर्गिक कलीसिया से जोडते हैं। जिसे पवित्र मिस्सा बलिदान की अवतरणिका में पुरोहित व्यक्त करते हुये कहते हैं कि हम स्वर्ग के समस्त दूतगणों के स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए तेरा गुणगान करते और गाते हैं - पवित्र, पवित्र, पवित्र प्रभु विश्वमंडल के ईश्वर... आज हम उस घटना को याद करते हैं जब प्रभु येसु ने इस दुनिया से विदा लेते समय हमें जो की उनका रहस्यमय शरीर हैं, पूरी तरह से अपने आप को बदल कर उनके दिव्य शरीर के अनुरूप बनाने का आह्वान करते हैं।  जैसा कि आज के दूसरे पाठ में संत पौलुस  कहते हैं - "उन्होंने कुछ लोगों को प्रेरित, कुछ को नबी, कुछ को सुसमाचार-प्रचारक और कुछ को चरवाहे तथा आचार्य होने का वरदान दिया। इस प्रकार उन्होंने सेवा-कार्य के लिए सन्तों को नियुक्त किया, जिससे मसीह के शरीर का निर्माण तब तक होता रहेजब तक हम विश्वास तथा ईश्वर के पुत्र के ज्ञान में एक नहीं हो जायें और मसीह की परिपूर्णता के अनुसार पूर्ण मनुष्यत्व प्राप्त कर लें।

 

यही है आज के इस पर्व का सन्देश कि हम पवित्र आत्मा के द्वारा अलग - अलग वरदानों, और कृपाओं से नवाज़े गये हैं , हमें अलग - अलग कार्य करने के  लिए  चुना गया  है।  उन्होंने कुछ लोगों को प्रेरित, कुछ को नबी, कुछ को सुसमाचार-प्रचारक और कुछ को चरवाहे तथा आचार्य होने का वरदान दिया। 

कुछ को मज़दूर, कुछ को किसान,कुछ को शिक्षक, कुछ को विद्यार्थी,कुछ को डॉक्टर,कुछ को इंजिनियर, कुछ को वैज्ञानिक,तो कुछ को राजनेता और कुछ को शासक, जो पर हर किसी के कार्य के पीछे का मकसद एक ही हो - और वह है जैसा कि संत पौलुस कहते हैं - इस प्रकार उन्होंने सेवा-कार्य के लिए सन्तों को नियुक्त किया, जिससे मसीह के शरीर का निर्माण तब तक होता रह।  मसीह के शरीर का निर्माण करते रहना ही हमारे मानवीय जीवन का उद्देश्य होना चाहिए।  और हमें कब तक यह करना है ? संत पौलुस कहते है तब तक - जब तक हम विश्वास तथा ईश्वर के पुत्र के ज्ञान में एक नहीं हो जायें और मसीह की परिपूर्णता के अनुसार पूर्ण मनुष्यत्व प्राप्त कर लें।

पूर्ण मनुष्यत्व प्राप्त करना हमारा जीवन का अंतिम उद्देश्य होना चाहिए।  अभी हम अधूरे हैं, हमारी बुद्धि अधूरी है, हमारा ज्ञान अधूरा है, हमरा प्यार, हमारे रिश्ते, हमारी भावनाएं, सब कुछ अधूरा है। 

यदि हमारा यही हल है तो इस लक्ष्य को हासिल करने में हमारी कौन सहायता करेगा? पवित्र आत्मा।  प्रभु येसु योहन के सुसमाचार 16:13  में कहते हैं - "जब वह सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हे पूर्ण सत्य की ओर ले जायेगा।

प्यारे विश्वासियों, सही मायने में येसु के रहस्मय शरीर के अंग बनने, मसीह की परिपूर्णता के अनुसार पूर्ण मनुष्यत्व हासिल करने के लिए आइये हम खुद को उस शक्ति से संपन्न होने देने के लिए खुद को तैयार करें जो प्रभु येसु ने अपनी कलीसिया के लिए प्रदान किया है और वह शक्ति है पवित्र आत्मा। लूकस 24:49 में उन्होंने प्रेरितों से कहा - देखों, मेरे पिता ने जिस वरदान की प्रतिज्ञा की है, उसे मैं तुम्हारे पास भेजूँगा। इसलिए तुम लोग शहर में तब तक बने रहो, जब तक ऊपर की शक्ति से सम्पन्न हो जाओ।" येसु के आदेश को मानते हुए वे स्वर्गारोहण के बाद अटारी में येसु की मान मरियम के साथ लगातार प्रार्थना तयारी में लगे रहे और पेंटेकोस्ट के दिन उस आत्मा के अभिषेक से भर गए।  आइये हम भी उस आत्मा से भर जाने के लिए खुद को तैयार करें। Amen.