Saturday, 16 July 2016

वर्ष का सौलहवाँ रविवार, वर्ष - सी

वर्ष का सौलहवाँ रविवार
पहला पाठ उत्पत्ति गं्रथ 18ः1-10
कोलोसियों 1ः24-28
लूकस 1038-42

प्रभु येसु मार्था और मरियम के घर जाते हैं। मार्था अच्छा से अच्छा भोजन तैयार कर उनका अपने घर में स्वागत करती है। वहीं मरियम प्रभु के चरणों में बैठकर उनके वचन सुनती है। यह कहानी भले समारी के दृष्टांँत के तुरन्त बाद आती है। इन दोनों कहानियों से पहले सुसमाचार हमें अनन्त जीवन प्राप्त करने का सूत्र बताता है। और वह सूत्र है अपने प्रभु ईष्वर को अपने सारे हृदय, सारी आत्मा, सारी शक्ति और सारी बुद्धी से प्यार करो और अपने पडोसी को अपने समान प्यार करो’’ (लूक 10ः27)। ऐसा प्रतीत होता है कि इन कहानियों के माध्यम से सुसमाचार लेखक ने प्रभु की इस आज्ञा को रोजमर्रा की जिंदगी में कैसे लागू करना चाहिए इस बात को समझाने की कोषिष की है। जहाँ एक ओर मरियम अपने जीवन से प्रभु को कैसे प्यार करना चाहिए ये सिखाती है वहीं दूसरी ओर भला समारी अपने पडोसियों को किस प्रकार प्यार करना चाहिए ये सिखाता है। ईष्वर को प्रेम करना व अपने पडोसी को प्रेम करना, स्वर्ग राज्य में प्रवेष के लिए ये दोनो महत्वपूर्ण रास्ते हैं।
प्रभु मार्था से कहते हैं कि तुम व्यर्थ ही बहुत सारी चिज़ों की चिंता करती हो। और जो सबसे ज्यादा आवष्यक है उसे भूल रही हो। प्रभु उसके सेवा सत्कार की निंदा नहीं कर रहे थे। सेवा सत्कार भी जरूरी है। आज के पहले पाठ में वचन इसी बात पर जोर देता है। अब्राहम अपने घर आये मेहमानों का बडी आवभगत के साथ स्वागत करता व उनकी मेहमान नवाज़ी करता है। प्रभु येसु स्वयं कई घरों में मेहमान के रूप में गये व लोगों की सेवा सत्कार को स्वीकार किया। उदा. के लिए ज़केयुस (लूक 19ः1-10), मत्ती (मत्ती 9ः9-13), और सिमोन फरीसी (लूक. 7ः36-49) आदि के घर। इसलिए यदि हम कहें कि प्रभु मार्था के कार्यों की निंदा कर रहे थे तो शायद हम गलत हैं। प्रभु मार्था और मरियम के जीवन के उदाहरण से हमें बस यही सिखाना चाहते हैं कि हमें हमारे जीवन में महत्व किस बात को देना है। आज यदि मैं आप से पूछूंँ कि सुबह से लेकर शाम तक की दिनचर्या में आपको सबसे ज़्यादा चिंता किस बात की रहती है। तो विभिन्न के उत्तर मिलेंगे। माता-पिता को बच्चों की, बच्चों को पढाई की, परीक्षा की, होमवर्क की, मज़दूर को काम की, नौकरी करने वालों को पदौन्नती की, सैलरी में इज़फा होने की, गरीब को रोजी-रोटी की आदि विभिन्न चिंतायें। और हम हमारी पूरी जिंदगी इन चिंताओं का हल ढूँढने में बिता देते हैं। परन्तु प्रभु का वचन हमें साफ-साफ कहता है - ‘‘चिंता मत करो - न अपने जीवन निर्वाह की, कि हम क्या खायें और न अपने शरीर की कि हम क्या पहनें...चिंता करने से तुम में कौन अपनी आयु घडी भर बढा सकता है? ... और वचन आगे कहता है तुम्हारा स्वर्गिक पिता जानता है कि तुम्हें इन सब चिजों की ज़रूरत है। तुम सबसे पहले ईष्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज में लगे रहो और ये सब चिजे़ तुम्हें यूँ हीे मिल जायेगी।’’ (मत्ती 6ः25, 32-33)। यही है आज के सुसमाचार की षिक्षा मरियम को दुनियाभर के कामों की चिंता थी परन्तु प्रभु कहते हैं मरियम ने उत्तम भाग चुन लिया।  मरियम ने सिर्फ अच्छा नहीं सर्वोत्तम भाग चुन लिया है। मरियम के लिए प्रभु के चरणों में बैठकर उनके वचनों को सुनना सबसे उत्तम लगा। यह उनका व्यक्गित निर्णय था। उन्होंने बाकि काम काज को अलग रखकर प्रभु येसु के चरणों में बैठकर वचन सुनने का निर्णय लिया।
ख्रीस्त में प्यारे भाईयों और बहनों क्या मरियम येसु के चरणों में बैठकर पिता ईष्वर की महिमा कर रही थी? अथवा क्या प्रभु येसु की वाणी सुनने के बारे में पिता ईष्वर ने धर्मग्रंथ में हमें कोई आदेष दिया है? जि हाँ! ताबोर पर्वत पर उनके रूपान्तरण के समय पिता की वाणी यह कहते हुए सुनाई पडी थी - ‘‘यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यंत प्रसन्न हूँ; इसकी सुनो।’’ (मत्ती 17ः5)। जि हाँ प्रभु येसु के वचनों को सुनने के लिए आदेष स्वयं पिता परमेष्वर की ओर से है। और हाँ प्रभु का वचन सुनने से हमारे जीवन में क्या होता है? इसके बारे में आईये हमस ब मनन चिंतन करें।
संत पौलुस रोमियों को लिखे पत्र अध्याय 10ः17 में हमें सिखाते हैं कि प्रभु के वचन सुनने से हममें विष्वास उत्पन्न होता है। ‘‘इस प्रकार हम देखते हैं कि सुनने से विष्वास उत्पन्न होता है और जो सुना जाता है, वह है मसीह का वचन’’ वचन सुनने से हम पवित्र हो जाते हैं - ‘‘मैंने जो षिक्षा तुम्हें दी है उसके कारण तुम शुद्ध हो गये हो’’ (योहन 15ः3)। वचन हमें चंगा करता है - ‘‘उसे किसी जडी -बुटी या लेप से स्वास्थ्यलाभ नहीं हुआ बल्कि प्रभु! तेरे शब्द ने उसे चंगा किया’’ (प्रज्ञा 16ः12)। तथा ‘‘उसने अपनी वाणी भेजकर उन्हें स्वस्थ किया’’ (स्तोत्र 107ः20)। वचन हमारे लिए सच्चा भोजन है जो हमें वास्तविक जीवन सच्चा जीवन प्रदान करता है- ‘‘मनुष्य सिर्फ रोटी से ही नहीं जीता है। वह ईष्वर के मुख से निकलने वाले हर एक शब्द से जीता है’’ (मत्ती 4ः4)। प्रभु के वचन सुनने से हम प्रभु येसु के परिवार के वास्तविक सदस्य बन जाते हैं - ‘‘मेरी माता और मेरे भाई वही हैं जो ईष्वर का वचन सुनते और उनका पालन करते हैं’’ (लूकस 8ः21)। उनके शब्दों में अनन्त जीवन का संदेष छिपा है संत पेत्रुस प्रभु से कहते हैं - ‘‘प्रभु हम किसके पास जायें, आपके ही शब्दों मे अनन्त जीवन का संदेष है’’ (योहन 6ः68)। प्रभु वचन हमे सही मार्ग दिखाता है - ‘‘तेरा वचन मुझे ज्योति प्रदान करता और मेरा पथ आलोकित करता है’’ (स्तोत्र 119ः105)। और जो वचन सुनते हैं उनके लिए प्रभु एक बहुत ही सुन्दर प्रतीज्ञा करते हैं - ‘‘जो मेरी षिक्षा सुनता और जिसने मुझे भेजा उस में विष्वास करता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है। वह दोषी नहीं ठहराया जायेगा। वह तो मृत्यु को पार कर जीवन में प्रवेष कर चुका है’’ (योहन 5ः24)
आइये हम आज अपने आप से पूछें कि हम हमारे जीवन में प्रभु व उसके वचनों को कितनी प्राथमिकता देते हैं? हमारी रोज़मर्रा की भागदौड भरी जिंदगी में, जहाँ सुबह से लेकर शाम तक हम बस इसी जुगाड में लगे रहते हैं कि हम क्या खायें, क्या पियें, और क्या पहनें, क्या हम प्रभु को उनके वचनों को प्राथमिकता दे पाते हैं? हम मेंसे कितने लोग ऐसे हैं जो रोज पवित्र बाइबल का कम से कम एक वाक्य रोज़ पढता है। और उस पर मनन चिंतन करते हुए व उसके ऊपर अपना जीवन बिताने की कोषिष करता है। यदि हम ये करते हैं तो प्रभु के ये वचन हमारे लिए ही हैं  - ‘‘जो मेरी षिक्षा सुनता और जिसने मुझे भेजा उस में विष्वास करता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है। वह दोषी नहीं ठहराया जायेगा। वह तो मृत्यु को पार कर जीवन में प्रवेष कर चुका है’’ जि हाँ, वह व्यक्ति मृत्यु को पार कर अनन्त जीवन में प्रवेष कर चुका है।

Sunday, 10 July 2016

वर्ष का पन्द्रहवां रविवार (वर्ष - स)

15th Sunday of the year
Cycle C

विधिविवरण ग्रन्थ ३०:१०-१४ 

कोलोसियों १:१५-२० 
लुकस १०:२५-३७ 

किसी दिन एक व्यक्ति प्रभु येसु के पास आता और उनसे पूछता है कि अनन्त जीवन प्राप्त करने के लिए उसको क्या करना चाहिए। प्रभु यह जानकर कि वह शास्त्री याने यहूदी धर्मग्रंथ का ज्ञाता है] उससे पूछते हैं कि धर्मग्रंथ क्या कहता है। यहूदियों के धर्मग्रंथ तौराह में तकरीबन 613 आज्ञायें है लेकिन वह शास्त्री बडी ही चतुराई से उन सारी आज्ञाओं का सार सिर्फ दो आज्ञाओं में समेटते हुवे कहता है अपने प्रभु-ईष्वर को अपने सारे हृदय] सारी आत्मा सारी शक्ति और सारी बुद्धी से प्यार करो और अपने पडोसी को अपने समान प्यार करो।** प्रभु ने कहा तुम अनन्त जीवन का रास्ता जानते हो, यही करो और तुम जीवन प्राप्त करोगे। अपने प्रष्न की सार्थकता दिखलाने के लिए उसने ईसा से कहा] लेकिन मेरा पडोसी कौन है? और प्रभु उसे भले समारी का सुन्दर दृष्टान्त सुनाते हैं। हम सब इस कहानी से भली-भाँति परिचित हैं।
 यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो ईष्वर की दृष्टि में सही भला कार्य करता है। वह अपने जीवन में ईष्वर की दया और प्रेम को चरितार्थ करता है] उसे जीता है। मेरा पडोसी कौन है इसके तीन सम्भावित उत्तर यह कहानी हमें देती है। पहला उत्तर उन डाकुओं की ओर से आता है उनके लिए अपने परिवार घर कुटम्ब से बाहर रहने वाला, अपने बगल में रहने वाला, या फिर कोई मुसाफिर एक पडोसी नहीं था उनके जीवन का दर्षन यही है कि वे किस प्रकार से दूसरों को लूटे] उनसे माल हडप लें] उनकी चीजों को हथिया लें। उनकी स्वार्थपुर्ति में पीडित का क्या हाल होता है उसकी उनको परवाह नहीं किसी किसी रूप में ऐसी मानसिकता बहुत सारे लोगों की होती है। अपने बल] रोब] सामाजिक राजनैतिक धाक के बल पर वे गरीब कमजोर तबके के लोगों को अपना निषाना बनाते हैं। और उनका आर्थिक] सामाजिक शारीरिक शौषण करते हैं।

प्रष्न का दूसरा जवाब आता है लेवी याजक के व्यवहार से। जब उन्होंने उस घायल पीडित व्यक्ति को देखा तो वे उस के बारे में कुछ नहीं सोच पाये उन्हें सिर्फ अपनी ही चिंता थी। कहीं लूटेरे वापस आकर उन पर धावा बोल दे तो? और क्या पता पीडित व्यक्ति जिंदा भी है कि मर गया है( उनके धार्मिक कानून के मुताबिक ये दोनों पुजारी तबके के व्यक्ति यदि किसी मृत शरीर का स्पर्ष कर लेते तो वे अषुद्ध माने जाते] और उन्हें प्रभु के मंदिर में सेवा करने से सात दिन तक के लिए वंचित किया जातागणना ग्रंथ 19%11½ उन्होंने अपने धार्मिक कर्तव्य को प्रेम दया के काम से ऊपर माना। हम मेसे अधिकतर इस वर्ग में आते हैं। हम यहीं असफल हो जाते हैं। हमारी इच्छा तो होती है कि हम लोगों की भलाई उनकी मदद करने आगे बढें पर हमारे सामने हजारों सवाल खडे हो जाते हैं।
किसी का ऐक्सिडेंट हुंआ है] रोड पर पडा है] पर रिस्क वाली बात है] पुलिस केस है] कौन लफडे में पडे, इतनी भीड खडी है कोई भी तो कुछ नहीं कर रहा है] तो मैं क्यों आफत मौल लूँ। मेरा पडोसी कौन है इस सवाल का जवाब हमारे जीवन में एक स्वार्थि रूप ले लेता है। डर हमारा सबसे बडा दुष्मन है इस परिस्थिति में प्यार का विपरीत नफरत नहीं अपितु डर है। जहाँ सच्चा प्यार है वहाँ कोई डर नहीं।’’प्रेम में भय नहीं होता। पूर्ण प्रेम भय दूर कर देता है] क्योकि भय में दंड की आषंका रहती है और जो डरता है] उसका प्रेम पूर्णता तक नहीं पहुँचा है’’ ¼योहन 4%19½ जहाँ प्यार वहाँ भय शंका गायब हो जाती है और हम हिम्मत साहस के साथ बोलने जोखिम उठाने के लिए योग्य बन जाते हैं। 
जिस रोड से वह व्यक्ति जा रहा था वो येरिखो रोड था। भौगोलिक दृष्टि से यह इलाका एक सुनसान घाटी वाला इलाका था और उसमें इस प्रकार की वारदात होना स्वाभिविक था। वहाँ आये दिन इस प्रकार की घटनायें हुआ करती थी।
ख्रीस्त में प्यारे भाईयों और बहनों हम सभी येरीखो से येरूसालेम की ओर यात्रा कर रहे हैं। इस येरिखो पर रोड हम भी कई प्रकार के मुसाफिरों से मिलते हैं। दुःखित] पीडित] व्यथित] निराष] हताष] परेषान] गरीब] निःस्सहाय] और लाचार।
येरिखो रोड से गुज़रते समय हम इन की ओर किस निगाह से देखते हैं? उन लुटेरों की निगाह से कि हम किस तरह से उनकी नादानी कमज़ोरी का फायदा उठा सकें अपने स्वार्थ की पूर्ति कर सकें? या फिर उस लेवी याजक की तरह जिनकी रोजी रोटी पक्की थी] जिन्हांने कभी गरीबी का अनुभव नहीं किया था\ वे कतरा के चले जाते हैं। उन्हें दया सेवा से बढकर अपनी पवित्रता धार्मिक प्रपंच कायदे कानून ज्यादा प्रिय थे( या फिर हम उस भले समारी की तरह व्यवहार करते हैं जिसकी समाज में कोई औकात नहीं थी\ जिन्हें यहूदी लोग हीनता की दृष्टी से देखते थे। जिसने अपनी जाती बिरादरी की परवाह किये बिना\ एक जोखिम भरा काम किया उसके दिल में दया प्रेम की जो भावना उमड रही थी उसकी तुलना में जो जोखिम वो उठा रहा था वह नगण्य थी। उसे दया दिखाने सेवा करने के सिवा कुछ और नज़र ही नहीं रहा था। पिछले सप्ताह भी मैंने मदर तेरेसा का उदाहरण दिया था और आज फिर उनका ही उदाहरण देता हूँ। वे थी एक सच्ची पडोसन उन सब लोगों की जो कलकत्ता की गलियों में तडप रहे थे उन्होंने वहाँ किसी गरीब भिखारी अनाथ अथवा दलीत को नहीं परन्तु स्वयं प्रभु येसु को तडपते देखा उनकी सेवा करने के लिए उन्हें कोई भी नहीं रोक सका। उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि लोग क्या कहेंगे, कहीं ये घायल व्यक्ति मर गया तो मेरे माथे आयेगा। आदि।
आज का यह दृष्टाँत एक ओर जहाँ उन लोगों पर एक गहरा प्रहार है जो दूसरों के दुख कष्टों पर ध्यान नहीं देते उनके प्रति उदासिनता देखाते हैं वहीं दूसरी ओर यह हम सब कोपिता ईष्वर जैसे दयालु बनने¼लूकस 6:36) के लिए एक खुला निमंत्रण है। हम दुःखितों पीडितों को उदारता] दयालुता] कोमलता सौम्यता भरे  हृदय] से  प्यार करने के लिए बुलाये गये हैं। येरिखो जाने वाला रोड कहीं ओर नहीं हमारे घर के सापने से ही जाता है; वह हमारे घर में भी हो सकता है; हमारे परिवार में भी हो सकता है। जहाँ-जहाँ दुःखित मानवता कराहती है वहाँ-वहाँ यरिखो रोड है। यदि मेरा भाई दुःखित है तो वह येरिखो रोड पर है] यदि मेरे वृद्ध दादा-दादी पीडित है तो वे येरिखो रोड पर हैं] यदि मेरी माँ परेषान है] तो वह येरिखो रोड पर है] यदि मेरे बच्चे बिमार हैं, परेषान हैं निराष हैं हताष हैं( तो वे येरिखो रोड पर हैं] यदि मेरे पिताजी रोजी रोटी की जुगाड में मष्क्कत कर रहे हैं दर-दर भटक रहे हैं तो वे येरिखो रोड पर हैं।
क्या मैं मेरे आस-पास येरिखो रोड पर दुखित- व्यथित इन लोगों के छोटे-बडे दुख-कष्टों की ओर ध्यान देता हूँ( उनके दुःखों को परेषानियों को हल्का करने करने का प्रयास करता हूँ( या फिर मैं उस याजक लेवी की तरह अपनी दुनिया में मस्त हुवे फिरता रहता हूँ\
संत पापा फ्रांसिस कहते हैं कि आज की दुनिया में उदासीनता का संस्कृति पनपती जा रही है। ¼Culture of indefference) हम लोगों के दुखों में शामिल होना नहीं चाहते क्योंकि हम सुरक्षित रहना चाहते हैं। आईये हम प्रभु से प्रार्थना करें कि वह हमें इस दया के वर्ष में पिता ईष्वर के समान दयालू बनना सिखायें।   आमेन।