Wednesday, 30 October 2019

सब संतों का पर्व 1 नवंबर 2019


ख्रीस्त में प्यारे भाईयों और बहनों हम हर रवीवार व पर्वों की मिस्सा में तथा अन्य प्रार्थनाओं में प्रेरितों का धर्मसार बोलते हैं और उसमें यह कहते हैं - मैं एक ही पवित्रकाथलिक व प्रेरितिक कलीसिया में विश्वास करता हूँ। हम ऐसी कलीसिया में विश्वास करते हैं जो पवित्र है। जि हाँ कलीसिया पवित्र है। तथा आज हम उस पवित्रता को विशेष  रूप से मना रहे हैं जो कि सब संतो के जीवन में विशेष रूप से प्रकट की गयी है। आज हम सब संतों का पर्व मना रहे हैं। आईये हम ईश्वर में आनन्द मनायें। आज स्वर्ग में एक असाधरण उत्सव मनाया जा रहा है। हम भी उस स्वर्गीय समारोह में इस मिस्सा बलिदान के दौरान भाग लें। पूजन-विधी के कैलंडर में यद्यपि कुछ ही संतों के पर्व निर्धारित किये गये हैं। लेकिन आज कलीसिया उन असंख्य धर्मी संत आत्माओं को याद करती है जो प्रभु की पवन उपस्थिति में रहकर उसकी महिमा गेट हैं। 
शायद कलीसिया के इतिहासकार ही ये बता पायेंगे कि सबसे पहले कलीसिया ने किसे संत घोषित किया था। पर हमें यह तो अच्छी तरह से पता है कि पवित्र बाईबल के अनुसार सबसे पहले संत की घोषणा स्वयं प्रभु येसु ने की थी - उस भले डाकू को यह कहते हुवे, ’’आज ही तुम मेरे साथ स्वर्ग में होंगे।’’

इस प्रकार कलीसिया ने कई व्यक्तियों को उनके जीवन-चरित्र व प्रभु से उनके करीबी रिश्ते के कारण संत घोषित किया है। इन्हें देखकरइनके जीवन पर मनन-चिंतन करके हमें भी उस स्वर्गीय धाम की ओर आगे बढते रहने के लिए प्रोत्साहन व प्रेरणा मिलती है। इन आत्माओं में जो कि हमारी ही तरह इन्सान थेइस दुनिया में हमारी ही तरह परिवारों में जन्में व अपने स्थानीय समाज में पले बढे। पर इस भौतिक संसार के मोहों से ऊपर उठकर इन्होंने स्वयं को ख्रीस्त के अनुरूप बना लिया। अब इनके द्वारा प्रभु हमसे बोलते हैं, वे हमसे कहते हैं - "तुम्हारी मानवीय कमज़ोरियाँ मैं जानता हूँइनके बावजूद भी तुम संत बन सकते हो। ये संतगण भी तुम्हारी ही तरह इस दुनिया में थे पर इन्होंने सदा पिता ईश्वर की ईच्छा को पुरा कियासदा पिता की मरजी पूरी करने के लिए जीए। इसलिए अब ये तुम्हारे लिए आदर्श  हैं एक नमूना है। इन्हें देखकर उन राहों पर तुम भी चले आओ जो राहें मेरे स्वर्गीय धाम की ओर जाती हों।" मेरे साथियों के साथ मैं एक बार ध्यान आश्रम कांकरिया गया था, वहां एक दिन हम फादर के साथ पहाड पर चढे। ऊपर चढने के लिए कोई रास्ता नहीं था। मेरे कुछ साथी झाडियों मेंसे रास्ता खोजते हुवे पहले ऊपर चढ गये व वहाँ से बाकी लोगों को बताने लगे उधर से नहीं इधर से आओ.....हाँ इस तरफ से...। मैं सोचता हूँ ये संतगण भी इसी तरह हमसे पहले स्वर्ग पहूँचकर हमें इशारा कर-करके बुला रहे हैं - ये वाला रास्ता सही है....जिस रस्ते से हम आये हैं वही सही रास्ता है, इसी पर चले आओ। ये संत स्त्री पुरूष व बच्चे हमारे मार्गदर्शक व प्रेरणा स्रोत हैं। इसलिए यह उचित है कि हम प्रभु येसु की अति प्रिय इन मित्रों व उनके सच्चे अनुयायों को प्यार करें उनका उनुकरण करें व उनका आदर सम्मान करें। आज हम ईश्वर को धन्यवाद दें कि उन्होंने हमारे इन असंख्य संत लोगों के जीवन में अपने मुक्ति कार्य को सम्पन्न किया है।

आज के  पहले पाठ में जो कि प्रकाशना ग्रंथ अघ्याय से लिया गया हैहम ये पाते हैं कि संत योहन एक दिव्य दर्शन में संत जनों के एक विशाल जनसमूह  को देखते हैं इतने अधिक लोग कि उनकी गिनती कोई भी नहीं कर सकता। क्या हम उस संतों के समुदाय में शामिल होंगे..क्या हमारी गिनती उनमें होगीजी हाँ सम्भावना बहुत ज्यादा है। आप और मैं संतों की उस भीड में से एक हो सकते हैं। प्यारे भाईयों-बहनों वचन कहता है - मैं ने सभी राष्ट्रोंवंशोंप्रजातियोंऔर भाषाओं का ऐसा जनसमूह देखा जिसकी गिनती कोई भी नहीं कर सकता। याने वो सभी राष्ट्रों अथवा देशों से होंगे - अमेरिकारोमयेरूसालेमपाकिस्तानभारत...सब वंशों से - आप के वंश से मेेरे पूर्वज आपके पूर्वज और आने वाली संततीसब प्रजातियाँ चाहे आर्यन हो या द्रवीडियनमैंगोलियन हो या फिर निग्रो मद्रासी हो या फिर आदिवासी सब उसमें शामिल हैसब भाषा-भाषी - अंग्रजी बोलने वाले या फिर हिन्दीमलयालम या कोंकणीउर्दू या मराठी या तमील सबके सब इस दल में शामिल हैं। प्रभु ने अपने झूंड में हम सबको गिन रखा है। अब हम चाहे तो इसी के अंदर रहें या फिर इसमें से बाहर हो जायें। इस झूंड में बने रहने के लिए आज का वचन कहता है- "ये वे लोग हैं जिन्होंने मेमने रक्त से अपने वस्त्रों को धोकर उजले कर लिये हैं। इसलिए ईश्वर के सिंहासन के सामने खडे रहते और दिन रात उसके मंदिर में उसकी सेवा करते हैं।’’ संतो के समूदाय में बने रहने के लिए हमें मेमने रक्त से अपने वस्त्रों को धोकरअपने आप को साफ करना है। हमें क्रूसित मेमने के रक्त से खुद को धोकर साफ करने की ज़रूरत है। संत योहन का ला पत्र 1:7  में प्रभु का वचन कहता है - ‘‘उसके पुत्र प्रभु ईसा मसीह का रक्त हमें हर पाप से शुद्ध करता है।’’ प्रभु येसु का लहू है दुनिया का सबसे शक्तिशाली डिटर्जेंट जो पाप के गहरे से गहरेकाले से भी काले दाग को धोकर  साफ कर देता है। प्रभु का वचन हमें कहता है नबी इसायाह के ग्रंथ 1:18  में ‘‘तुम्हारे पाप सिंदूर की तरह लाल ही क्यों न हो वे हीम की तरह उज्ज्वल हो जायेंगे। वे किरमिज की तरह मटमैले क्यों न हो वे ऊन की तरह श्वेत हो जायेंगे।’’

बपतिस्मा संस्कार में हमें शुद्धता के प्रतीक स्वरूप श्वेत वस्त्र प्रदान किया गया था जिसे हमने अंत तक शुद्ध रखने की प्रतीज्ञा की थी। याने उस वस्त्र के समान अंत तक शुद्ध बने रहने की प्रतीज्ञा की थी। हम जानते हैं कि हमारी मानवीय कमज़ोरियों के कारण हम वैसे ही नहीं रहे जैसे कि हम बपतिस्मा के समय थे। पर मेमने का रक्तहमारे प्रभु येसु का रक्त हमें फिर से शुद्ध कर सकता है। हर मेल-मिलाप संस्कार व पवित्र युखरिस्त में सच्चे मन व सच्ची तैयारी से भाग लेने पर यही होता है। हमारे सारे पाप दोष धुल जाते हैं और हम पुनः शुद्धश्वेत हो जाते हैं।

रक्त का मतलब होता है जीवन। तो ख्रीस्त के रक्त का मतलब होगा ख्रीस्त का जीवन। अतः ख्रीस्त के रक्त से स्वयं को धाने का मतलब होगा कि हम ख्रीस्तमय हो जायें। ख्रीस्त के पवित्र संस्कारों को ग्रहण कर हम उसके साथ एक हो जाते हैं। संत पौलुस कहते हैं कि हमारा पुराना स्वभाव मसीह के साथ कू्रस पर चढाया जा चुका है। मैं अब जीवित नहीं रहाबल्कि मसीह मुझमें जीवित हैं। (गला. 2:19) आज जब हम उस मसीह की देह और रक्त को ग्रहण करेंगे तो हम भी यही कहें कि हे प्रभु अब से मुझमें तू ही जीवित रहे।

संत योहन आज के दूसरे पाठ में हमसे कहते हैं - पिता ने हमें कितना प्यार किया है। हम ईश्वर की सन्तान कहलाते हैं और हम वास्तव में वही हैं। यदि हम वास्तव में ईश्वर की ही संतान हैंयदि ईश्वर हमारा पिता है तो हम इस लोक में रहते हुवे उस पिता को क्यों न खोजें। हमसे अनन्त प्रेम से प्रेम करने वाले उसे प्रेमी पिता का चेहरा क्यों न खोजें। हमारी इस जीवन यात्रा में हम उस पिता को खोजते रहें जो हमें प्यार करता है। और जो भी उसे सच्चे मन से खोजेगें उनके लिए संत योहन कहते हैं वे उसे वेैसा ही देंखेंगे जैसा कि वह वास्तव में है। हम उस प्रभु को जैसा वो है वैसा ही देख पायेंगे। इसकेलिए आज का सुसमाचार एक शर्त हमारे सामने रखता है - जिनका हृदय निर्मल है वही ईश्वर  के दर्शन करेंगे। हम सब ईश्वर के मुख के दर्शन करने के लिए बुलाये गये हैं। सब के सब संत बनने के लिए बुलाये गये हैं। प्रभु हर स्त्री पुरूषयुवक-युवतियोंबडे-बुजूर्गोंछोटे बच्चोंविवाहितोंअविवाहितोंसमर्पित भाईयों और बहनोंअमीरों व गरीबों, शिक्षित व अक्षितोंतथा व्यापारियों व किसानों सभी को संतों की संगती में उनके स्वर्गीय सिंहासन के सामने निवास करने के लिए आह्वान करते हैं। इसलिए हम ये न सोचें कि संत केवल फादर सिस्टर व समर्पित लोग ही बन सकते हैं। नहीं हर बिरादरी कव लोग संत बन सकते हैं। संत पिता फ्राँसिस इस संदर्भ में दो टूक शब्दों में  विश्व युवा दिवस के मौके पर युवाओं से कहते हैं। हमें बिना कैसक (फादर लोगों का लिबास) वाले  संत चाहिए। वे आगे कहते हैं हमें जिंस, टीशर्ट  व टेनिस शूज पहनने वाले संत चाहिए जो फिल्में देखते हों व म्युजिक सुनते हों परन्तु अपने जीवन में मसीह को प्रथम स्थान देते हों। हमें संत चाहिए जो रोज़ प्रार्थना के लिए समय देते होंतथा जो ये जानते हों कि पवित्रताशुद्धताव अच्छी चिजों से कैसे प्यार करना चाहिए। हमें 21 वीं सदी के लिए संत चाहिए जो इस संसार में रहते हो लेकिन इस संसार के नहीं है। आईये हम आज ईश्वर से कृपा व आशीष माँगे कि हम इस संसार में रहते हुवे हमारी नज़रें हमारे उस स्वर्गीय निवास की ओर लगाये रखें जहाँ असंख्य दूत व संत ईश्वर के सम्मुख हमारी राह देख रहे हैं। आमेन।  


Tuesday, 22 October 2019

वर्ष का 30 वां रविवार, (C): हिंदी प्रवचन 27 अक्टूबर 2019


नम्रतापूर्ण प्रार्थना प्रभु प्रिय है 

प्रवक्ता ग्रन्थ 35: 12-14, 16-18 
2 तिमथी 4:6-8,16-18 
लूकस 18:9-14 

आज की पूजन विधी के वचनों द्वारा प्रभु हमें यह बतलाना चाहते हैं कि प्रभु के राज्य में दीनहीन-दरिद्रों व विनम्र हृदय वाले लागों का विशेष स्थान है। आज के पहले पाठ में वचन कहता है - प्रभु पददलितों की पुकार सुनता है। वह विनय करने वाले अनाथ अथवा अपना दुखडा रोने वाली विधवा का तिरस्कार नहीं करता। . . . जो सारे हृदय से प्रभु की सेवा करता है, उसकी सुनवाई होती है उसकी पुकार मेघों को चीर कर ईश्वर  तक पहुँचती है। प्रभु हृदय से, एक  सच्चे मन से की गई हर प्रार्थना का उत्तर देता है और हमें न्याय दिलाता है। 

आज के सुसमाचार में हमने एक फ़रीसी व नाकेदार के बारे में पढा, ये दोनों प्रार्थना करने मंदिर जाते हैं। फ़रीसी मंदिर में प्रार्थना करने तो जाता है लेकिन प्रार्थना नहीं करता है। वह प्रभु से कुछ निवेदन नहीं करता। वह तो सिर्फ अपनी तारीफों के पूल  बांँध रहा था। सुसमाचार कहता है कि वह बिना न्याय मिले मंदिर से वापस जाता है। वह खाली हाथ ही वापस लौट जाता है क्योंकि प्रभु की आशीष पाने के लिए उसके पास स्थान ही नहीं था। उसका पूरा जीवन व हृदय स्वयं से, अपने ही अहम् से भरा था। वह फ़रीसी उस ईंट, पत्थर के मंदिर में तो खडा परंतु  उसके  दिल के मंदिर से प्रभु काफी दूर थे ।

वहीं दूसरी ओर नाकेदार को न्याय मिलता है। उसकी प्रार्थना सुनी जाती है। उसे प्रभु की आशीष प्राप्त होती है। वह पाप मुक्त होकर मंदिर से वापस जाता है क्योंकि वह प्रभु के सामने झूक कर विनम्रतापूर्वक प्रार्थना करता है। उसने दूसरों के ऊपर दोष लगाने के बजाय स्वयं की गिरेबांह में झांक कर देखा। और वह अपने पापों पर पश्चाताप करता है। यूँ तो  नाकेदार दूर खडा होकर प्रार्थना करता है पर वह प्रभु के अति करीब था। प्रभु का वचन स्तोत्र 3218 में कहता है प्रभु दुखियों से दूर नहीं है। जिनका मन टूट गया, प्रभु उन्हें संभालता है।" इसका मतलब ये है कि जो दिल से पश्चाताप  करता है, व प्रभु की अपार दयालुता पर भरोसा करता है। प्रभु उनके करीब है। नाकेदार अपनी छाती पीटते हुए कहता है - हे ईश्वर ! मुझ पापी पर दया कर"। वह स्वयं की तारीफ नहीं करता लेकिन ईश्वर  की प्रशंसा  करता है। वह स्वयं को महिमा मंडित करके अपने को सबसे पहले  नहीं रखता। वह ईश्वर  की महानता को जानता व समझता है। वह जानता है कि ईश्वर महान व दयालुता का धनी है।

विनम्रता किसी भी प्रार्थना की नींव अथवा आधार है। हर प्रार्थना यह दर्शाती  है कि हम कमज़ोर व निर्बल प्राणी है। हमें ईश्वर की दया व कृपा की ज़रूरत है। हम हमारे बल पर, हमारी ताकत पर कुछ भी नहीं कर सकते।
इसलिए प्रार्थना करते समय सबसे पहले हमें हमारी मानवीय कमज़ोरियों को प्रभु के सामने कबूल करना चाहिए व हमारी भूल चुकों के लिए प्रभु से माफी मांगना चाहिए जैसा कि उस नाकेदार ने किया। इसिलिए हम हर मिस्सा बलिदान की शुरूआत में दयायाचना करते हैं। पापों पर पश्चाताप कर हम पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा ईश्वर से मिलने के योग्य बन जाते हैं। तब साफ मन व हृदय से हम ईश्वर से वार्तालाप करने के लिए तैयार हो  जाते हैं। और एक स्वच्छ हृदय से निकली प्रार्थना को प्रभु स्वीकार करते हैं। इसलिए चाहे हमारी सामुदायिक प्रार्थना हो या फिर व्यक्तिगत हमें हमेशा  पहले अपने पापों की क्षमा याचना करनी चाहिए। एक बार एक व्यक्ति आद्यत्मिक साधना के बाद जब वापस लौटा तो लोगों ने उससे पूछा - क्या आप पहले पापी थे?“ उसने जवाब दिया - जि हाँ।उन्होंने फिर उनसे पूछा - क्या आप अब भी पापी हो?“ और उसने फिर वही जवाब दिया - जि हाँ।इस पर लोग उसकी हंँसी उडाते हुए कहने लगे कि रिट्रीट में भाग लेने से फिर क्या फरक पडा? उसने उन्हें एक सुंदर जवाब दिया - फ़र्क तो है! पहले मैं पाप की ओर भागा चला जाता था और अब मैं पाप से दूर भागा चला जा रहा हूँ।"
हमें ईश्वर एवं लोगों के सामने विनम्र बनना चाहिए। यदि हम किसी पद पर हैं तो हमें जल्दीबाजी में किसी भी की छोटी-छोटी गलतियां व कमज़ोरियों के लिए उन पर दोष नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि हम स्वयं भी अपने आप में परिपूर्ण नहीं है। हमारी अपनी भी कई कमज़ोरियां है। प्रभु का वचन कहता है कि आप अपने सौंपे हुए लोगों पर अधिकार जता कर नहीं, बल्कि झूंड के लिए आदर्श बनकर जीवन बिताओ (1 पेत्रुस 53) क्योंकि हमारे गुरू और प्रभु स्वयं भी सेवा कराने नहीं बल्कि सेवा करने व बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण अर्पित करने आये हैं“ (मत्ती 2028)
कोई संत है अथवा सज्जन है इसकी पहचान उसकी विनम्रता से हो जाती है। संत बेरनादेत पढाई में बहुत ही कमज़ोर बालिका थी उसकी शिक्षिका ने उससे कहा था कि तुम किसी काम की नहीं हो, पढना तुम्हारे बस की बात नहीं। उस मुर्ख कही जाने वाली लडकी को ही माता मरियम ने कई बार दर्शन  दिये। वे कहती हैं उनका जीवन मात्र एक झाडू के समान हैं। जिस प्रकार से झाडू की जब-जब ज़रूरत पडती उसका उपयोग किया जाता है व फिर उसे कोने रख दिया जाता है। उसी प्रकार वे कहती हैं कि ईश्वर ने माता मरियम के द्वारा संदेश  देने के लिए उनका उपयोग किया व अब उन्हें एक कोने में रख दिया है और वे इस कोने में बहुत खुश है। प्रभु को जब ज़रूरत पडेगी तो वह उन्हें फिर से उठायेगा और अपने राज्य के लिए उपयोग करेगा। हमें भी अपने आप आपको ऐसा ही समझना चाहिए - ईश्वर के हाथ में एक साधन जैसा-  एक बांसुरी, अथवा एक पेन जैसे, वो जैसी धुन बजाना चाहे, वो बजाये अथवा जो भी वो लिखना चाहे वो लिखे. आमेन ।  

Thursday, 17 October 2019

वर्ष का 29 वां रविवार, 20 अक्टूबर २०१९


प्रार्थना का प्रभाव 

✍Now you can listen to the sermon by clicking on the link given below ↴  
https://youtu.be/A9ZOl52SvMA

निर्गमन 17ः8-13
2 तिम 3ः14-2
लूक 18ः1-8
आज के पहले पाठ में हमने सुना कि मूसा जो कि इस्राएलियों का अगुवा था, मैदान में जाकर युद्ध लडने के बजाय पर्वत पर चढकर प्रार्थना करता है। अचरज की बात ये है कि जब तक मूसा हाथ उठाकर प्रार्थना करता रहता है, तब तक इस्राएली विजय होते हैं और जब प्रार्थना बंद हो जाती है तब उनकी हार होती है। ये न केवल एक ऐतिहासिक घटना है, बल्कि हमारे जीवन की एक वास्तविकता है। हमारी मुक्ति के इस मार्ग में प्रार्थना ही एक ऐसा शक्तिशाली साधन  है जो, हमारे जीवन में आने वाली हर मुसीबत व बाधा के ऊपर विजय प्राप्त करने में हमारी सहायता करता है।

हम सब हमारे प्रतिज्ञात देश  स्वर्ग की ओर यात्रा कर रहे हैं।  बहुत ही शक्तिशाली दुश्मनं हमारी इस राह में बाधा डालने के लिए खडे हैं। हमें कई अमालेकियों से युद्ध करना है। हमारे शत्रुओं का सामना करने के लिए हमें बहुत ही शक्तिशाली हथियार की आवश्यकता है,और वह हत्यार है प्रार्थना। मूसा, हारून व हूर के साथ पहाड पर हाथ उठाकर दिन ढलने तक प्रार्थना करते रहे। ये हमारे जीवन की ओर इंगित करता है। हमें हमारी जिंदगी का सूरज ढलने तक प्रार्थना करते रहना है।  जब मूसा पर्वत पर प्रार्थना कर रहा था तब योशुआ नीचे रण भूमि में युद्ध लड रहा था। यह हमें यह सिखलाता है कि प्रार्थना के साथ ही साथ हमारा मानवीय प्रयास भी अति आवश्यक  है। यदि कोई प्रार्थना करे कि प्रभु हमारी गरीबी दूर दीजिए, हमें सम्पन्न बनाईये और वह व्यक्ति रोज़ घर में ही बैठा रहता हो, अथवा कोई ये प्रार्थना करे कि प्रभु हमारे परिवार में शांँति रहे और वह व्यक्ति रोज़ शराब पीकर घर आता और आतंक मचाता  है या फिर कोई बच्चा अच्छे अंकों  से पास होना चाहता है पर पढाई करना नहीं चाहता है, तो शायद प्रभु भी उनके लिए कुछ नहीं कर पायेंगे। प्रभु की कृपा व हमारा प्रयास दोनों का होना अति आवश्यक  है।

सुसमाचार में हमने सुना कि एक विधवा ऐसे न्यायकर्ता के पास जाकर बारम्बार न्याय के लिए आग्रह करती है जो कि अधर्मि था। वह न तो प्रभु से डरता था और न ही किसी की परवाह करता था। परन्तु वह उस विधवा को न्याय दिलाता है क्योंकि वह बार - बार उसके पास आया करती थी। और प्रभु येसु हमसे कहते हैं कि यदि वह अधर्मी न्यायकर्ता उस विधवा की माँग पूरा करते हुए उसे न्याय दिला सकता है तो “क्या ईश्वर अपने चुने हुए लोगों के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं करेगा, जो दिन रात उसकी दुहाई देते रहते हैं?“ 1 थेसलनिकियों 5ः16 में प्रभु का वचन कहता है - “आप लोग हर समय प्रसन्न रहें, और निरन्तर प्रार्थना करते रहें।“ इस संसार की चुनौति भरी राहों पर मुसिबतों का सामना करते हुए आगे बढने के लिए नित्य प्रार्थना की बहुत ही आवश्यकता  है। प्रार्थना का गहरा अनुभव ही इंसान को प्रभु की सुरक्षा व सहायता पर दृढ भरोसा रखने में सहायक सिद्ध हो सकता है। इसलिए प्रार्थना एक-आध दिन का काम नहीं होना चाहिए। मुसिबत में प्रार्थना की और बाद में अगली मुसिबत तक छूट्टी, ऐसा नहीं होना चाहिए। प्रभु कहते हैं “जागते रहो और प्रार्थना करते रहो, जिससे तुम परीक्षा में न पडो“ (मत्ती 26ः41)। याने परीक्षा में पडने पर नहीं, मुसीबत में फँसने पर नहीं परन्तु परीक्षा से पहले ही प्रार्थना करो, मुसीबत से पहले ही प्रार्थना करो। इस संदर्भ में कबीरदासजी का एक दोहा याद आता है:

सुख में सुमिरन सब करे दुःख में करे न कोई।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होई।

इसिलिए संत पौलुस एफेसियों से आग्रह  करते हैं कि “आप लोग हर समय आत्मा में सब प्रकार की प्रार्थना तथा निवेदन करते रहें।“ (एफेसियों 6ः18)।
हमें प्रार्थना को सिर्फ हमारे जीवन का एक भाग नहीं, अपितु हमारे पूरे जीवन को प्रार्थनामय बनाना चाहिए। हमेशा प्रार्थना करने का मतलब यह नहीं कि हम कुछ प्रार्थनाएं रटते फिरें। पर मतलब यह है कि हमारे जीवन का हर क्षण हर पल प्रार्थनामय बनायें। प्रार्थना का मतलब होता है ईश्वर  के साथ संपर्क साधना, उनसे बातें करना, उन्हें अपने सुख-दुःख की कहानी सुनाना व उनसे उनके वचनों को सुनना। प्रार्थनामय जीवन का सर्वोत्तम उदाहरण स्वयं प्रभु येसु हैं। वे नित्य अपने स्वर्गिक पिता के सम्पर्क में बने रहते थे। इसिलिए उन्हें दुःखों का वह प्याला पीने के लिए व हमारी मुक्ति के लिए पर्याप्त शक्ति व सहायता पिता ने प्रदान की।

ऐसा नहीं है कि हम प्रार्थना के द्वारा ईश्वर  की ईच्छा को बदल देते हैं, पर प्रार्थना हमें ज़रूर बदल देती है। प्रार्थना ईश्वर  को हमारे जीवन में कार्य करने के लिए हमारे मन व दिल को खोल देती है। प्रार्थना हमें यह भी याद दिलाती है कि हम अपने आप में परिपूर्ण नहीं हैं। हम हमारे जीवन के लिए, जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं  के लिए ईश्वर पर अश्रित रहते हैं। जब हमें यह लगता है कि हमारी प्रार्थना का उचिज जवाब नहीं मिल रहा है ऐसी परिस्थिति में भी प्रभु येसु हमें प्रार्थना करते रहने का आश्वासन देते हैं। बिना विचलित हुए प्रार्थना करते रहने से हमारी ईच्छा शक्ति मज़बुत व हमारा विश्वास  गहरा हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे नित्य व्यायाम करने से हमारा शरीर, मांस पेशियाँ, हृदय, व फेफडे मज़बूत हो जाते हैं।  

आईये आज हम प्रभु से वही कृपा माँगें, जिससे परिपूर्ण होकर वे अपने स्वर्गीय पिता से नित्य बातें करते थे। आईये हम भी हमारा यह ख्रीस्तीय  जीवन व्यर्थ के सोच-विचार व बातों में नष्ट करने के बजाय, प्रभु स्मरण करते हुए बितायें। हमें ये ज्ञात रहे कि प्रभु, जीवन के हर क्षण हर पल हमारे साथ रहते हैं। हम उनसे संपर्क बनाये रखें। उनसे वर्तालाप करते रहें। प्रभु नबी यरमियाह के ग्रंथ में हमसे वादा करते हैं कि ‘‘जब तुम मुझे पुकारोगे और मुझसे प्रार्थना करोगे, तो मैं तुम्हारी प्रार्थना सुनूँगा’’ यरमियाह 29ः12। 
आमेन । 

Thursday, 10 October 2019

वर्ष का २८ वां रविवार, १३ अक्टूबर २०१९



धन्यवादी बनो किसी का उपकार कभी मत भुलाओ 
(You can now even listen to the homily by clicking the link bellow.)
https://youtu.be/MrI8ebEIFaM

एक तरफ भौतिकतावादी इंसान दिनों दिन स्वार्थी होता जा रहा है। वह सिर्फ अपने लिए खुशियां और सुख व आरामदायक जिंदगी पाना चाहता है। वहीं दूसरी और आज भी कई भले लोग मौजुद हैं जो दूसरों का ख्याल रखते हैं। जो दूसरों की भलाई करते हैं। कई लोग तो अपनी पीडा का भुलाकर दूसरों की पीडा व दुःख को कम करने की चेष्टा करते हैं। जैसा कि आज के पहले पाठ में एक इस्राएली लडकी जिसका एक तरह से अपहरण करके उसे नामान नामक सेनाध्यक्ष के यहाॅं दासी के रूप में बेच दिया जाता है। वह परदेश में एक व्यक्ति की गुलाम बन कर रह रही होती हैं। वहाॅं पर वह अपने रंजो गम भुलाकर वह अपने स्वामी के हित का सोचती है। उसका स्वामी नामान भयंकर कोढ से ग्रसीत था। अपनी दासी के सुझावानुसार वह इस्राएल में नबी एलिशा  के पास जाता है जो उन्हें यर्दन नदी में सात बार डूबकी लगाने को कहता है। और जैसे  ही वह नदी से बाहर आता है उसका शरीर फिर से छोट बालक जैसा स्वच्छ हो जाता है । उसके आनन्द की कोई सीमा नहीं रही। वह इस्राएल के ईश्वर की तारीफ करता है कि उसको छोड पृथ्वी पर और कोई देवता नहीं। तथा वह आभार स्वरूप नबी को कुछ उपहार देना चाहता है। और नबी उस चमत्कार का श्रेय खुद को न देकर ईश्वर को देते हुए उपहार लेने से मना कर देता है।

मित्रों हमारे उपकारकों के प्रति आभारी होना एक उत्तम गुण है। सामने वाला भले ही आपसे ये उम्मीद न करे कि हम  उसका एहसान चुकायें। पर यह हमारा परम कर्तव्य बनता है कि हम हमारा हित करने वालों के शुक्रगुज़ार बनें।
आज के सुसमाचार में प्रभु येसु ने दस काढियों को मुफ्त में चंगा कर दिया। एक कोढ़ी होना उन दिनों एक भयंकर बात थी। कोढी व्यक्ति को समाज और नगर से बाहर कर दिया जाता था। कोई उनके पास तक नहीं आता था। इस बिमारी का  कोई ईलाज भी नहीं था। एक तरफ तो बिमारी और दूसरी तरफ से समाज व अपनों से तिरस्कार, वहीं ऊपर  से कोई ईलाज भी नहीं। एक अत्यंत  निराशामय  परिस्थिति, इस प्रकार वे एक बिना उम्मिद की जिंदगी जीते थे। ऐसे  हालातों में येसु के द्वारा उनका चंगा कर दिया जाना उनके लिए एक नयी जिंदगी मिलने के बराबर था। सब खुश हो जाते हैं , पर बस एक ही लौटकर येसु के पास जाता है और उन्हें धन्यवाद देता है। इतना बडा एहसान और मन में कृतज्ञा का कोई भाव नहीं? येसु को इस पर बडा आश्चर्य हुआ! उन्हें इस बात का दुःख भी हुआ। वे पूछते हैं कि क्या दसों चंगे नहीं हुए? तो बाकी नौ कहाॅं है?

हम में से कुछ  लोग उस समारी कोढी की तरह हैं जो प्रभु के चरणों में गिरकर उनके एहसानों के लिए शुक्रिया अदा करते हैं, वहीं कई लोग बाकी नौ कोढियों की तरह अपनी गरज निकल जाने पर अपने रास्ते चलते बनते हैं। जब तक किसी से फायदा मिलता हो लोग उसके आगे पीछे घुमते हैं पर जब अपना काम हो गया तो वे बिना एहसान जताये वहाॅं से निकल लेते हैं। जब तक कोई हमारा फायदा पहूॅंचाता हो हम उसके गुण गाते हैं जैसे वे कोढी अपनी उस दयनीय परिस्थिति में येसु को गुरू कहकर पुकारते हैं। पर ठीक हो जाने पर उन्हें वो गुरू फिर याद नहीं आते।

ऐसे कई अवसरवादी मित्र और रिश्तेदार  होते हैं, जो केवल अपने फायदे  के लिए  रिश्ता  निभाते हैं। किसी के एहसान से, किसी के दया धर्म से बडा व्यक्ति बन जाने पर वह अपना हित करने वाले व्यक्ति का तिरस्कार कर देते हैं।

किसी का एहसान भुला देना एक बहुत बूरी बात है। हमारे स्कूलों में कितने हजारों बच्चे पढ कर हर साल निकलते हैं, कितने ही बडे-बडे पदों पर असीन है, कितने ही सफल जिंदगी जी रहे हैं। पर उनमें से कितने लोग वास्तव में अपने स्कूल में जाकर अपने टीचर्स, व प्रिंसपल आदि से जाकर मिलते हैं और उनसे कहते हैं कि आज मैं जो कुछ हूॅं आपकी वजह से हूॅं। कुछ लोग ज़रूर ये करते हैं पर अधिकतर नहीं करते। धन्यवाद देना तो दूर की बात मैं ने मेरे ही पढाये बच्चों को कहीं इत्फाक से मिलने पर बिना अभिवादन किये या मिले बिना, दूसरी तरफ नज़रें करके गुज़रते देखा है। कई मिशनरी स्कूलों में पढे बच्चों को बढे होकर मिशन  के विरूद्ध कार्य करते हुए भी देखा है।

जब इस प्रकार की बातें सामने आती है तो वही सवाल हमारे मन में आता है जो आज के सुसमाचार में येसु मसीह के मन में आया। क्या दसों निरोग नहीं हुए? क्या दसों का  भला नहीं हुआ? तो बाकि नौ कहाॅं है? हमारे मन में भी सवाल उठेंगे हमने इतने सारे बच्चों को पढाया, हमने इतने सारे गरीबों की मदद की, हमने इतने सारे बिमारों का इलाज कराया, पर मुट्ठी भर ही उनमें से आभार प्रकट करते हैं। वास्तव में हम सिर्फ धन्यवाद पाने के लिए किसी का भला नहीं करते, किसी की भलाई करते समय हमारी भावना "नेकी कर दरिया में डाल" जैसी होनी चाहिए। परन्तु आज जो सीखने की बात है वो उन लोगों के लिए है जो किसी के उपकारों को भूला देते हैं।

आज हम अपने आप से पूछें कि कहीं हम भी ऐसे लोगों की गिनती में तो नहीं आते जो अपने एहसान करने वालों को नज़रअंदाज कर देते हैं। कितने ही लोग हमारी जिंदगी में आते हैं ? हमारे जीवन को सुंदर बनाते हैं ? हमारी विभिन्न रूपों में मदद करते? हम आज जो भी हैं उस मुकाम तक पहुॅंचने के लिए कितने लोगों ने हमारा  सहयोग किया? क्या मैं कभी उन लोगों को दिल से धन्यवाद बोला हूॅं? क्या मैं मुझे  नौकरी  मिल जाने के बाद मैं मेरे स्कूल  वापस गया हूॅं? क्या मैं ने कभी मेरे बचपन के टीचर्स से मिलकर यह कहा है - 'आपने मेरी जिंदगी संवार दी। आपका ये एहसान मैं कभी नहीं भुलूंगा।' क्या मैं ने अपने माता-पिता को कभी दिल से धन्यवाद कहा है उन सारे उपकारों के लिए जो बचपन से उन्होंने मुझ पर  किये हैं? क्या हमने हमारी कीचन गर्ल, हमारे घर काम करने वाली बाई, हमारे गार्डनर, हमारा कचरा उठाने वाले सफाई कर्मियों आदि को कभी उनकी सेवाओं के लिए उन्हें थैंक्स कहा है?  मित्रों हज़ारों लोग रोज़ हमारे लिए कुछ न कुछ करते हैं, हम उन्हें दिल से थैंक्स बोलकर देखें। अच्छा लेगेगा आपको भी और सामने वाले को भी। और थैंक्स बोलने से हमारा कहाॅं कुछ घट रहा है?

और इन सबसे बढकर ईश्वर को धन्यवाद देना तो हम कभी भी न भूलें। क्योंकि प्रभु का वचन कहता है - "सब बातों के लिए ईश्वर को धन्यवाद दें;  क्योंकि ईसा मसीह के अनुसार आप लोगों के विषय में ईश्वर की इच्छा यही है। (1 थेसलनिकियों 5 :18 ) कितने सारे कारण हैं हमारे पास ईश्वरको धन्यवाद देने के? हमारा पूरा जीवन उनकी  ही रहमत पर टिका हुआ है। तो क्यों न हम उसका हर रोज़ शुक्र अदा करें। ईश्वर को सब बातों के लिए धन्यवाद देना सौ में से एक दिन का काम नहीं बल्कि यह हमारी दैनिक प्रार्थना का अहम हिस्सा होना चाहिए। ईश्वर से हमारा संबंध उन नौ  व्यक्तियों जैसा न हो जो मुश्किल  में तो उन्हें पुकारते हैं पर मुसिबत टलने पर उन्हें याद नहीं करते। कई बार ईश्वर से हमारा संबंध ऐसा ही रहता है। हम मुश्किल  समय में उनसे प्रार्थना करते हैं, और प्रार्थना सुनें जाने पर, अथवा हमारा काम हो जाने पर हम ईश्वर को भूल जाते हैं। एक छोटा सा उदाहरण: जब हम कहीं पर जा रहे होते हैं तो हम बडी व्याकुलता से हमारी सफल यात्रा के लिए प्रार्थना करते हैं। फादर-सिस्टर्स जैसे ही गाडी चालू होती है प्रार्थना प्रारम्भ कर देते हैं क्योंकि  यात्रा के दौरान कुछ अनहोनी हो जाने का डर रहता है। पर जब हम सुरक्षित अपने गंतव्य स्थान पर पहुॅंचते हैं, क्या हम धन्यवाद की कोई प्रार्थना करते हैं जैसे हमने यात्रा प्रारम्भ करते समय की थी। ...... ? यही हालत अन्य बातों में भी होती है।

आईये प्रिय विश्वासियों हम अपने जीवन में ईश्वर और लोगों को  धन्यवाद देने वाले बनें ताकि ईश्वर  आशीष और लोगों की दुआ हमारे जीवन में मिलती रहे। आमेन।

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https://youtu.be/MrI8ebEIFaM

Friday, 4 October 2019

वर्ष का 27 वां रविवार 6 October 2019


ईश्वर में विश्वास से पहाड़ भी हट सकता है।

हब 1:2-3,2:2-4
तिम 1:6-8,13-14
लुक 17:5-10

प्रभु ने कहा है और हमने सुना है, आज के सुसमाचार में - “यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी होता और तुम शहतूत के इस पेड से कहते, उखड कर समुद्र में लग जा, तो वह तुम्हारी बात मान लेता।“ संत मत्ती के सुसमाचार में इसी संदर्भ में प्रभु कहते हैं कि यदि तुम्हारा विश्वास  राई के दाने के बराबर भी हो तो तुम इस पहाड से कहते कि वह समुद्र में जाकर गिर जाये तो ऐसा ही होता। यहां पर प्रभु अलंकारिक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हमारे पास थोडा सा भी विश्वास  है तो हम बडे से बडे मुसिबतों के  पहाडों को  ढा सकते हैं; बडी सी बडी बिमारियों से चंगाई पा सकते हैं; बस दिल में विश्वास  होना चाहिए, कि मेरा खुदा इन मुसीबतों से भी बड़ा है।

सुसमाचार के प्रचारक, प्रेरितों के जीवन में राई के दाने के बराबर, प्रार्थनामय विश्वास  ने मुसिबतों व परेशानियों  के दिग्गज पहाडों को धराशाही कर दिया। हम प्रेरित चरित में पढते हैं कि राजा हेरोद ने याकूब और उसके भाई योहन की हत्या के बाद संत पेत्रुस को बंदी बना लिया था तथा उन्हें कडी सुरक्षा के घेरे  में कारावास में बंद कर दिया। वो उन्हें भी मौत के घाट उतार देना चाह रहा था। प्रेरित चरित 12ः5 में हम पढते हैं “जब पेत्रुस पर इस प्रकार बंदीगृह में पहरा बैठा हुआ था, तो कलीसिया उसके लिए आग्रह के साथ प्रार्थना करती रही।“ कलीसिया पूर्ण  विश्वास  आग्रह से प्रभु से प्रार्थना करती रही.  तब प्रभु एक महान चमत्कार दिखाते हैं। प्रभु का दूत कारावास में से चमत्कारिक ढंग से उन्हें बाहर निकाल ले जाता है संत मत्ती 19ः26 में वचन कहता है - “ईश्वर  के लिए सब कुछ सम्भव है।“ तथा मत्ती 17ः20 में वचन कहता है कि यदि तुम्हारे पास विश्वास है तो तुम्हारे लिए भी कुछ भी असम्भव नहीं है।

आज के पहले पाठ में वचन हमसे कहता है कि धर्मी अपने विश्वास के कारण जीता है। नबी के  ये शब्द उन लोगों को तब सुनाये जाते हैं, जब बाबुल के राजा नबूकदनेज़र ने येरूसलेम पर हमला किया, प्रभु के मंदिर को तहस-नहस कर दिया, प्रभु की वेदी को अपवित्र किया, कईयों का खून बहाया व कईयों को गुलाम बनाकर बाबुल के निर्वासन में ले गया। इस्राएली लोग अपने आप को हारे हुए, निस्सहाय, व परित्यक्त महसूस कर रहे थे। तब नबी उनसे कहते हैं कि आप लोगों ने अपने दुश्मन  के हाथों गहरे घाव पाये हैं परन्तु फिर भी आप विकट परिस्थिति में भी प्रभु में प्रति विश्वास बनाये रखो। वही तुम्हारा उद्धार करेगा।

विश्वास करने के लिए नम्रता बहुत ज़रूरी है। वही व्यक्ति विश्वास में दृढ़ हो सकता है जो यह स्वीकार करता है कि मेरी क्षमताएँ सीमित है, मेरे साधन सीमित है, परन्तु प्रभु के पास असीमित सम्भावनायें है। हम जहाँ सोचना बंद करते हैं प्रभु वहाँ से अपना काम शुरू करते हैं। जब हम सोचते हैं मुसिबतों की आँधी इतनी अधिक है कि हमारे जीवन का चिराग और आगे जल नहीं पायेगा। तब प्रभु कहते हैं मैं इस दीपक को अपनी हथेलियों से ढंक कर रखता हूँ; तू मुझपर भरोसा रखकर आगे बढ़। जब हम जीवन में निराश व हताश हो जाते हैं, असफलताओं का पहाड हम टूट पडता है। हमें आगे बढने के लिए कोई रास्ता, कोई विकल्प नहीं सुझता तब प्रभु हमसे कहते हैं कि सारी सफलताओं और खुशियों  की चाभी मेरे पास है। तू मुझ पर विश्वास रख यदि एक दरवाज़ा बंद होता है तो मैं तेरे लिए दस दरवाजे़ खोल दूँगा। जो प्रभु पर वोश्वास करते हैं उनकी लिए ये सच्चाई है।  

विश्वास की ताकत को मैं ने मेरे जीवन में कई दफा़ अनुभव किया है। मैं मेरे जीवन की एक घटना को आप लोगों के साथ साझा करना चाहता हूँ। बात उन दिनों की है जब मैं आष्टा में ईश शास्त्र का अध्ययन कर रहा था। आस-पास के किसानों की गेंहू-चने की फसल पक कर तैयार थी। कईयों ने फसल काट ली थी, पर खेत में ही पूले पडे हुए थे। करीब दोपहर के समय काले, घने बादल, बिजली व गरजन के साथ बारीश का माहौल बन गया। जैसे ही हमारी क्लास खत्म हुई बूँदा बांँदी शुरू हो गई। मैं ने मेरे एक दोस्त से कहा देख बारीश हो रही है अब बेचारे किसानों का क्या होगा। मेरे साथी ने मुझसे कहा लेट अस प्रे फॉर देम। पता नहीं मुझमें ऐसा क्या  हुआ कि मैं सीधे अपने कमरे में भागकर गया। अपने नोट्स टेबल पर रखे व वहीं धुंटनों पर आकर, अनुरोध के साथ प्रार्थना करने लगा कि प्रभु तून ही इन गरीबों को यह फसल दी है। तू ही तो इनका रखवाला है। प्रभु इन पर दया दृष्टि डाल और यह बारीश  अभी इसी वक्त रोक दे। अन्यथा इनकी फसल बरबाद हो जायेगी। और प्रभु ने प्रार्थना सुन ली। मुझे खुद ही विश्वास  नहीं हो रहा था कि वास्तव में थोडे ही समय में बादल छंट गये और सब कुछ सामान्य हो गया।

आज के सुसमाचार में विश्वास की शक्ति के बारे में बताने के बाद प्रभु हमें विनम्रतापूर्ण सेवा के बारे में बताते हैं। प्रभु कहते हैं कि एक सेवक अपने स्वामी की भरपूर सेवा करने के बाद कभी धन्यवाद की आशा  नहीं करता क्योंकि वह तो यह कहता है कि मैं ने तो मेरा कर्तव्य मात्र पूरा किया है। प्रभु हमसे भी यही कहते हैं कि हम प्रभु व उसके लोगों की दिलो जान से सेवा करने के बाद यही कहें -‘हम तो अयोग्य सेवक भर हैं; हमने अपना कर्तव्य मात्र पूरा किया है। पिछले सप्ताह हमने  बालक येसु की संत तेरेसा का पर्व मनाया। वे अपने जीवन में हर एक छोटे से बडे काम को बडी ही तत्परता, लगन व प्रेम से करती थी। हर कार्य करते समय वह यही सोचती थी कि वह उसके द्वारा प्रभु की ही सेवा कर रही है। प्रभु ने हम सब को ऐसी ही विनम्र सेवा करने के लिए बुलाया है।

आईये  प्रभु हम प्रभु के शिष्यों  के साथ प्रार्थना करें जैसा कि आज के सुसमाचार में उन्होंने किया - ‘‘प्रभु हमारे विश्वास को बढाईये।’’ तथा प्रभु व लोगों की सेवा करने में हम उदार, प्रेमी व पूर्ण रूप से समर्पित बन जायें।
आमेन।