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https://youtu.be/A9ZOl52SvMA
निर्गमन 17ः8-13
2 तिम 3ः14-2
लूक 18ः1-8
आज के पहले पाठ में हमने सुना कि मूसा जो कि इस्राएलियों का अगुवा था, मैदान में जाकर युद्ध लडने के बजाय पर्वत पर चढकर प्रार्थना करता है। अचरज की बात ये है कि जब तक मूसा हाथ उठाकर प्रार्थना करता रहता है, तब तक इस्राएली विजय होते हैं और जब प्रार्थना बंद हो जाती है तब उनकी हार होती है। ये न केवल एक ऐतिहासिक घटना है, बल्कि हमारे जीवन की एक वास्तविकता है। हमारी मुक्ति के इस मार्ग में प्रार्थना ही एक ऐसा शक्तिशाली साधन है जो, हमारे जीवन में आने वाली हर मुसीबत व बाधा के ऊपर विजय प्राप्त करने में हमारी सहायता करता है।
हम सब हमारे प्रतिज्ञात देश स्वर्ग की ओर यात्रा कर रहे हैं। बहुत ही शक्तिशाली दुश्मनं हमारी इस राह में बाधा डालने के लिए खडे हैं। हमें कई अमालेकियों से युद्ध करना है। हमारे शत्रुओं का सामना करने के लिए हमें बहुत ही शक्तिशाली हथियार की आवश्यकता है,और वह हत्यार है प्रार्थना। मूसा, हारून व हूर के साथ पहाड पर हाथ उठाकर दिन ढलने तक प्रार्थना करते रहे। ये हमारे जीवन की ओर इंगित करता है। हमें हमारी जिंदगी का सूरज ढलने तक प्रार्थना करते रहना है। जब मूसा पर्वत पर प्रार्थना कर रहा था तब योशुआ नीचे रण भूमि में युद्ध लड रहा था। यह हमें यह सिखलाता है कि प्रार्थना के साथ ही साथ हमारा मानवीय प्रयास भी अति आवश्यक है। यदि कोई प्रार्थना करे कि प्रभु हमारी गरीबी दूर दीजिए, हमें सम्पन्न बनाईये और वह व्यक्ति रोज़ घर में ही बैठा रहता हो, अथवा कोई ये प्रार्थना करे कि प्रभु हमारे परिवार में शांँति रहे और वह व्यक्ति रोज़ शराब पीकर घर आता और आतंक मचाता है या फिर कोई बच्चा अच्छे अंकों से पास होना चाहता है पर पढाई करना नहीं चाहता है, तो शायद प्रभु भी उनके लिए कुछ नहीं कर पायेंगे। प्रभु की कृपा व हमारा प्रयास दोनों का होना अति आवश्यक है।
हम सब हमारे प्रतिज्ञात देश स्वर्ग की ओर यात्रा कर रहे हैं। बहुत ही शक्तिशाली दुश्मनं हमारी इस राह में बाधा डालने के लिए खडे हैं। हमें कई अमालेकियों से युद्ध करना है। हमारे शत्रुओं का सामना करने के लिए हमें बहुत ही शक्तिशाली हथियार की आवश्यकता है,और वह हत्यार है प्रार्थना। मूसा, हारून व हूर के साथ पहाड पर हाथ उठाकर दिन ढलने तक प्रार्थना करते रहे। ये हमारे जीवन की ओर इंगित करता है। हमें हमारी जिंदगी का सूरज ढलने तक प्रार्थना करते रहना है। जब मूसा पर्वत पर प्रार्थना कर रहा था तब योशुआ नीचे रण भूमि में युद्ध लड रहा था। यह हमें यह सिखलाता है कि प्रार्थना के साथ ही साथ हमारा मानवीय प्रयास भी अति आवश्यक है। यदि कोई प्रार्थना करे कि प्रभु हमारी गरीबी दूर दीजिए, हमें सम्पन्न बनाईये और वह व्यक्ति रोज़ घर में ही बैठा रहता हो, अथवा कोई ये प्रार्थना करे कि प्रभु हमारे परिवार में शांँति रहे और वह व्यक्ति रोज़ शराब पीकर घर आता और आतंक मचाता है या फिर कोई बच्चा अच्छे अंकों से पास होना चाहता है पर पढाई करना नहीं चाहता है, तो शायद प्रभु भी उनके लिए कुछ नहीं कर पायेंगे। प्रभु की कृपा व हमारा प्रयास दोनों का होना अति आवश्यक है।
सुसमाचार में हमने सुना कि एक विधवा ऐसे न्यायकर्ता के पास जाकर बारम्बार न्याय के लिए आग्रह करती है जो कि अधर्मि था। वह न तो प्रभु से डरता था और न ही किसी की परवाह करता था। परन्तु वह उस विधवा को न्याय दिलाता है क्योंकि वह बार - बार उसके पास आया करती थी। और प्रभु येसु हमसे कहते हैं कि यदि वह अधर्मी न्यायकर्ता उस विधवा की माँग पूरा करते हुए उसे न्याय दिला सकता है तो “क्या ईश्वर अपने चुने हुए लोगों के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं करेगा, जो दिन रात उसकी दुहाई देते रहते हैं?“ 1 थेसलनिकियों 5ः16 में प्रभु का वचन कहता है - “आप लोग हर समय प्रसन्न रहें, और निरन्तर प्रार्थना करते रहें।“ इस संसार की चुनौति भरी राहों पर मुसिबतों का सामना करते हुए आगे बढने के लिए नित्य प्रार्थना की बहुत ही आवश्यकता है। प्रार्थना का गहरा अनुभव ही इंसान को प्रभु की सुरक्षा व सहायता पर दृढ भरोसा रखने में सहायक सिद्ध हो सकता है। इसलिए प्रार्थना एक-आध दिन का काम नहीं होना चाहिए। मुसिबत में प्रार्थना की और बाद में अगली मुसिबत तक छूट्टी, ऐसा नहीं होना चाहिए। प्रभु कहते हैं “जागते रहो और प्रार्थना करते रहो, जिससे तुम परीक्षा में न पडो“ (मत्ती 26ः41)। याने परीक्षा में पडने पर नहीं, मुसीबत में फँसने पर नहीं परन्तु परीक्षा से पहले ही प्रार्थना करो, मुसीबत से पहले ही प्रार्थना करो। इस संदर्भ में कबीरदासजी का एक दोहा याद आता है:
सुख में सुमिरन सब करे दुःख में करे न कोई।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होई।
इसिलिए संत पौलुस एफेसियों से आग्रह करते हैं कि “आप लोग हर समय आत्मा में सब प्रकार की प्रार्थना तथा निवेदन करते रहें।“ (एफेसियों 6ः18)।
हमें प्रार्थना को सिर्फ हमारे जीवन का एक भाग नहीं, अपितु हमारे पूरे जीवन को प्रार्थनामय बनाना चाहिए। हमेशा प्रार्थना करने का मतलब यह नहीं कि हम कुछ प्रार्थनाएं रटते फिरें। पर मतलब यह है कि हमारे जीवन का हर क्षण हर पल प्रार्थनामय बनायें। प्रार्थना का मतलब होता है ईश्वर के साथ संपर्क साधना, उनसे बातें करना, उन्हें अपने सुख-दुःख की कहानी सुनाना व उनसे उनके वचनों को सुनना। प्रार्थनामय जीवन का सर्वोत्तम उदाहरण स्वयं प्रभु येसु हैं। वे नित्य अपने स्वर्गिक पिता के सम्पर्क में बने रहते थे। इसिलिए उन्हें दुःखों का वह प्याला पीने के लिए व हमारी मुक्ति के लिए पर्याप्त शक्ति व सहायता पिता ने प्रदान की।
ऐसा नहीं है कि हम प्रार्थना के द्वारा ईश्वर की ईच्छा को बदल देते हैं, पर प्रार्थना हमें ज़रूर बदल देती है। प्रार्थना ईश्वर को हमारे जीवन में कार्य करने के लिए हमारे मन व दिल को खोल देती है। प्रार्थना हमें यह भी याद दिलाती है कि हम अपने आप में परिपूर्ण नहीं हैं। हम हमारे जीवन के लिए, जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं के लिए ईश्वर पर अश्रित रहते हैं। जब हमें यह लगता है कि हमारी प्रार्थना का उचिज जवाब नहीं मिल रहा है ऐसी परिस्थिति में भी प्रभु येसु हमें प्रार्थना करते रहने का आश्वासन देते हैं। बिना विचलित हुए प्रार्थना करते रहने से हमारी ईच्छा शक्ति मज़बुत व हमारा विश्वास गहरा हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे नित्य व्यायाम करने से हमारा शरीर, मांस पेशियाँ, हृदय, व फेफडे मज़बूत हो जाते हैं।
आईये आज हम प्रभु से वही कृपा माँगें, जिससे परिपूर्ण होकर वे अपने स्वर्गीय पिता से नित्य बातें करते थे। आईये हम भी हमारा यह ख्रीस्तीय जीवन व्यर्थ के सोच-विचार व बातों में नष्ट करने के बजाय, प्रभु स्मरण करते हुए बितायें। हमें ये ज्ञात रहे कि प्रभु, जीवन के हर क्षण हर पल हमारे साथ रहते हैं। हम उनसे संपर्क बनाये रखें। उनसे वर्तालाप करते रहें। प्रभु नबी यरमियाह के ग्रंथ में हमसे वादा करते हैं कि ‘‘जब तुम मुझे पुकारोगे और मुझसे प्रार्थना करोगे, तो मैं तुम्हारी प्रार्थना सुनूँगा’’ यरमियाह 29ः12।
आमेन ।
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