Friday, 28 February 2020

दुखभोग का पहला इतवार (Year A ) 1 मार्च 2020



उत्पत्ति 2:7-9 . 3:1-7 
रोमियों 5:12-19 
मत्ती 4:1-11 

ख्रीस्त में प्यारे भाईयों और बहनों,ईश्वर  ने आदम और हेवा को बनाया, उन्हें पृथ्वी पर विचरने वाले हर जीव जन्तुओं पर अधिकार दिया, और उनसे यह उम्मिद की गयी कि वे बदले में ईश्वर  के प्रति आज्ञाकारी व ईमानदार रहें। बल्कि हमारे आदि माता-पिता ने ईश्वर  प्रदत वरदानों के घमंड में ईश्वर  की आज्ञा का उल्लंघन किया जिसका परिणाम उन्हें और उनकी संतानों को भुगतना पडा और आज तक संसार भुगत रहा है। इस बात पर खेद प्रकट करना हमारा हक बनता है कि हमारे आदि माता-पिता ने बहुत ही मुर्खतापूर्ण और दुर्भाग्यपूर्ण कार्य किया है। लेकिन हम क्या कर रहे हैं? हम उनसे कितने भिन्न हैं। हम हमारे दैनिक जीवन में ईश्वर की दया व कृपा को विभिन्न रूपों में देखते व अनुभव करते हैं। लेकिन हम फिर भी बहुत बार ईश्वर  की आज्ञाओं का उल्लंघन करते तथा हमारे आदि माता-पिता से भी अधिक मुर्खतापूर्ण व दुर्भाग्यपूर्ण कार्य करते हैं। क्या ये हमारे लिए शर्म व खेद की बात नहीं?

जिस प्रलोभन एवं परीक्षा का सामना प्रभु येसु ने किया वे हमारे लिए एक प्रोत्साहन एवं सांत्वना का स्रोत हैं। यदि हमारे प्रभु एवं गुरूवर येसु को स्वयं प्रलोभनों के दौर से गुजरना पडा तो हम भी परीक्षा एवं प्रलोभन मुक्त जीवन की उम्मीद नहीं कर सकते। मूल रूप से हमारे प्रलोभन भी वही है जो आदम हेवा के सामने थे और जो प्रभु येसु के सामने थे। हेवा को सबसे पहले वह फल सुंदर और स्वादिष्ट दिखा। उसे देखने में सुंदर दिखा और उसने सोचा देखने में इतना सुन्दर है तो खाने में कितना स्वादिष्ट होगा। वैसे ही प्रभु येसु के सामने सबसे पहला प्रलोभन शारीरिक भूख मिटाने का था।  शैतान ने उनसे कहा कि वह अपनी दिव्य शक्ति से पत्थर को रोटी बनाकर खा ले क्योंकि वह भूखा है। आज हमारा यह शरीर कई प्रकार की भूखों को शांत करने के लिए हमें बाध्य करता है। हमारी पंचेंद्रियां विभिन्न प्रकार से तृप्त होना चाहती हैं। हमारे समाने विभिन्न प्रकार की भूख रहती है। आँखों की भूख - दूसरों को वासना भरी निगाहों से देखने की भूख, अश्लीलता भरी  चीज़ें देखने और पढने की भूख, अच्छा से अच्छा स्वादिष्ट भोजन करने की भूख, दैहिक वासना की भूख, सच्ची - झूठी तारीफ सुनने की भूख। आरमदायक घर व सुख-सुविधा की भूख अदि। 

फिर शैतान ने हेवा को ईश्वर  के बाराबर हो जाने का प्रलोभन दिया। उसने येसु को भी सारी दुनिया का वैभव दे देने का प्रलोभन दिया। और आज भी वह हमें विभिन्न प्रकार से बडे-बडे वादे करके प्रलोभित करता रहता है। खोखली तारीफ एवं बडापन दिखाने का प्रलोभन, चार जन की भीड में प्रशंसा पाने का प्रलोभन, स्कूल में अव्वल आकर घमंड करने का प्रलोभन, अपने आप को दूसरों से ज़्यादा धार्मिक मानने का प्रलोभन और धन व शक्ति का प्रलोभन आवश्यकता  से अधिक धन और हैसियत से अधिक मान-सम्मान पाने, सत्ता हथियाने एवं दूसरों पर शासन करने की लालच में इंसान कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो जाता है। क्योंकि इंसान कमजोर प्राणी है। मत्ती 26,41 में वचन कहता है - अत्मा तो तत्पर है लेकिन शरीर दुर्बल है। हम दुर्बल शरीर वाले प्राणी हैं। 
स्तोत्र 141 में वचन कहता है मेरे हृदय को बुराई की ओर झूकने न दे। कितनी वास्तविकतापूर्ण प्रार्थना है ये। हमारे चारों ओर बुराइयां ही बुराइयां है। न केवल आज बल्कि उस जमाने में भी इसलिए स्त्रोतकार कहता है मेरे हृदय को बुराई की ओर झूकने न दे। मत्ती 6 और लूकस 11 में हम पढते हैं कि प्रभु येसु ने अपने शिष्यों को एक प्रार्थना सिखाई। यह सबसे उत्तम प्रार्थना है। हे हमारे पिता............और हमें परीक्षा में न डाल परन्तु बुराई से हमें बचा। कितनी सुंदर प्रार्थना है यह। यह सबसे आदर्श, सुंदर और सबसे शक्तिशाली प्रार्थना है। प्रभु ने कहा हे पिता हमें परीक्षा में न डाल परन्तु बुराई से बचा। प्रभु येसु कहते हैं तुम्हें बार बार इस तरह प्रार्थना करने की आवश्यकता  है। क्योंकि सबसे पहले हमारा झूकाव पाप की ओर है।

हम उत्पत्ति 8 में पढते हैं सारे संसार मे पाप भर गया था और ईष्वर ने प्रलय भेजा लेकिन ईष्वर ने नूह और उसके परिवार को बचा लिया और प्रलय के बाद नूह ने ईष्वर के लिए बली चढाई और ईष्वर ने यह कहा कि अब से में मनुष्यों को अभिषाप नहीं दूंगा। क्योंकि बचपन से ही मनुष्यों की प्रवृति पाप की ओर है। इसलिए प्रभु हमसे कहते हैं तुम्हें निरन्तर प्रार्थना करनी है। हे पिता हमें परीक्षा में न डाल।
दूसरी तरफ हम देखते हैं मत्ती 18, 7 में प्रभु कहते हैं कि प्रलोभन अनिवार्य है। प्यारे भाईयों बहनों प्रलोभन देने वाला हर समय हमारे चारों ओर मंडराते रहता है। वह हर समय क्रियाशील  रहता है। संत पेत्रुस 5, 8 में कहते हैं कि "आपका शत्रु शैतान दहाडते सिंह की तरह विचरता रहता है। और ढूंढता रहता है कि किसे फाड खाये।" तो हमारा शत्रु शैतान ढूंढते रहता है कि किसे फाड खायें। हमें हर समय अंधकार की शक्तियों से लडना पडता है, जैसे कि एफेसियों 6 में लिखा है। हर समय विभिन्न नकारात्मक आत्माओं से लडना पडता है। लालच की आत्मा, गुस्से की आत्म, उदासी की आत्म, आलस की आत्मा, निराशा  की आत्मा । हमें इनसे लडना पडता है। हमारा जीवन एक लंबा युद्ध है और इस युद्ध में हमेशा  प्रभु से प्रार्थना करते रहना है कि हे प्रभु हमें परीक्षा में न डाल परन्तु बुराई से हमें बचा। 12 कुरिंथयों 11,14 में संत पौलुस कहते हैं कि आप लोग इस चीज से अष्चर्यचकित न हों कि शैतान कभी-कभी स्वर्गदूत का रूप ले सकता है। कभी हमारे सामने आकर्षक बातें आकर्षक चीजें आकर्षक लोगों को ला सकता है। हमें भ्रमित कर सकता है। इस दुनिया में बहुत सारे लोग ऐसी परिथितियों में भ्रमित हो जाते हैं और आसानी से शैतान के चुंगूल में पड जाते है। इसलिए हमें हर समय प्रार्थना करने की ज़रूरत है। कि हे प्रभु हमें परीक्षा में न पडने दे। आज हम ऐसे संसार में रह हैं जहां सबसे ज्यादा प्रलोभन देने वाली बातें और चीजें हैं। योहन 17,15-16 में प्रभु ने हमस ब के लिए प्रार्थना की कि पिता मैं नहीं कहता कि उन्हें संसार से उठा ले। वे संसार में हैं लेकिन उन्हें बुराई से बचा। 

हम विश्वासी इस संसार में हैं लेकिन यह स्वभाविक है हम इस संसार की बुराईयों में फंस जाते है।
प्रलोभनों से विजय पाने का रास्ता प्रभु येसु हमें दिखलाते हैं। और वह है पवास, प्रार्थना और ईश  वचन का पठन एवं मनन चिंतन। जब प्रभु येसु की परीक्षा ली गयी उससे पहले वे मरूभूमि में चालीस दिनों तक उपवास व प्रार्थना कर रहे थे। और शैतान के हर बहकावे का वे वचन की शक्ति से सामना कर रहे थे। हम सब कमजोर हैं इसलिए हमें प्रभु से शक्ति प्राप्त करने की ज़रूरत है।

आईये हम प्रभु से प्रार्थना करें। हमें परीक्षा में न पडने दे परन्तु सब बुराईयों से हमें बचा, आमेन।

Monday, 24 February 2020

पवित्र राख बुधवार 26 फ़रवरी 2020 (Year A )

जोएल २, १२-१८
२ कुरिन्थियों ५, २०-६ ,२
मत्ती ६, १-६, १६-१८

उपवास के आह्वान के साथ आज हम दुःखभोग काल का आगाज़ कर रहे हैं। आत्मा के  शुद्धिकरण एवं प्रभु तथा एक-दूसरे के साथ मेल-मिलाप करने का यह उपयुक्त समय है। यह अनुग्रह का समय है, आत्माओं के उद्धार का समय है, यह अन्यंत कीमती समय है। इसे हम यूँ ही न जाने दें। आज के दूसरे पाठ में प्रभु हमसे कहते हैं - ‘‘आप को ईष्वर की जो कृपा मिली है, उसे व्यर्थ न जाने दें; क्योंकि वह कहता है - उपयुक्त समय में मैंने तुम्हारी सुनी; कल्याण के दिन मैंने तुम्हारी सहायाता की। और देखिए, अभी उपयुक्त समय है, अभी कल्याण का दिन है’’ (2 कुरिंथियों 6, 2)

पाप से विकृत हमारे मानवीय स्वभाव को आज एक सही दिशा  की ज़रूरत है। पाप की अज्ञानता में खोए मानव को आज प्रभु की ज्योति की ज़रूरत है। रोम. 3,23 में वचन कहता है - ‘‘क्योंकि सब ने पाप किया और सब ईष्वर की महिमा से वंचित हो गये। ईष्वर की कृपा से सबों को मुफ्त में पापमुक्ति का वरदान मिला है।’’ हममें शायद ही कोई ऐसा होगा जो निष्पाप है, जिसने कभी पाप ही नहीं किया हो। हम सब पापी हैं। और यदि हम यह स्वीकार करते हैं कि हम सब पापी हैं, हम ईष्वर की महिमा से वंचित हैं, अनन्त जीवन हमारे हाथों से फिसलता जा रहा है, हम प्रभु से दूर होते जा रहे हैं, हमारा जीवन अनन्त विनाश  की ओर खींचा चला जा रहा है तो अब यह उचित समय है, हमारे उद्धार का समय है।

आज हम प्रभु की यह वाणी ध्यान से सुने जिसे हमें प्रभु आज के पहले पाठ के माध्यम से कह रहे हैं - ‘‘अब तुम लोग उपवास करो और रोते तथा शोक मनाते हुए पूरे हृदय से मेरे पास लौट आओ। अपने वस्त्र फाड कर नहीं, बल्कि हृदय से पश्चाताप करो और अपने प्रभु ईष्वर के पास लौट जाओ; क्योंकि वह करूणामय, दयालु, अत्यन्त सहनषील और दयासागर है।’’
चालीसे का यह पवित्र समय हमारे लिए प्रार्थना एवं उपवास करते हुए अपने पापों पर पाश्चाताप  करने का उचित समय है। प्रार्थना और उपवास का क्या संबंध है? उपवास हमारी प्रार्थनाओं को अधिक प्रभावशाली बनाता है। कई बार हमारे जीवन में हम ऐसी परिस्थितियों के दौर से गुजरते हैं जहाँ कुछ चीज़ अथवा कुछ काम कर पाना हमारी शक्ति के परे हो जाता है। हम प्रार्थना करते हैं, दुआयें मांगते हैं, चर्च जाते हैं, फिर भी हमारा काम नहीं होता है , या फिर हमारी  बुरी आदत नहीं सुधरती। हम हार जाते हैं, टूट जाते हैं। एक बार प्रभु के चेलों के साथ भी ऐसी ही हुआ। संत मारकुस के सुसमाचार 9, 14-29 में हम इस घटना के बारे में पढते हैं जहांँ प्रभु येसु अपने रूपान्तरण के बाद अपने  शिष्यों  के पास लौटते हैं तो उन्हें एक बडी उलझन मंे पाते हैं। एक व्यक्ति अपने बेटे को जो कि अपदूतग्रस्त था उनके पास लाता है और प्रभु के  शिष्य लाख कोशिश  करने के बाद भी उसे नहीं निकाल पाये। आखिर में उसे प्रभु के पास लाया जाता है और प्रभु उसे चंगाई प्रदान करते हैं। तब  शिष्यों ने प्रभु से अपनी असमर्थता का कारण पूछा तो प्रभु ने कहा - ‘‘प्रार्थना और उपवास के सिवा और किसी उपाय से यह जाति नहीं निकाली जा सकती’’ (मार्क 9, 29)।

हमारे जीवन में कुछ बुराईयाँ ऐसी होती है, जो जीवनभर पीछा नहीं छोडती। हम हजारों कोशिश  करते हैं, पर फिर भी हम उन पापोें अथवा बुराईयों के दास बने रहते हैं। कई ऐसे व्यक्तियों को मैंने देखे है जो विभिन्न प्रकार की बूरी आदतों जैसे नशापान, गाली देना, दूसरों की बुराई करना, वासना के गुलाम बन जाना आदि के ऐसे गुलाम बन जाते हैं कि वे चाह कर भी उनसे मुक्ति एवं छुटकारा नहीं पा सकते। हम मेसे भी कई विभिन्न प्रकार के ऐसे पुराने से पुराने बंधनों से बंधे हुए हैं। बुराईयों ने हमारे ऊपर अधिकार करके रखा है। बुरी आदतें, बुरे विचार हमारे जीवन को चलाती हैं। यदि हम मेसे कोई है जिसे लगता है कि मेरे पापों का, मेरे पापमय स्वभाव का, मेरी बुरी आदत का कोई निदान नहीं हैैं। तो इस चालीसे के समय में उपवास रखकर प्रार्थना करते हुए हम अपनी कमज़ोरियों को प्रभु को समर्पित करें। वह अपने वादे का पक्का है। कोई बंधन ऐसा नहीं जिसे प्रभु येसु नहीं तोड सकते, कोई भी बुरी आदत ऐसी नहीं है जिससे मसीह हमें निजात नहीं दिला सकते। वचन कहता है - ‘‘उसके पुत्र के जीवन द्वारा निष्चय ही हमारा उद्धार होगा‘‘ (रोम 5, 10)। ‘‘वह अपने शरीर में हमारे पापों को क्रूस के काठ पर ले गये, जिससे हम पाप के लिए मृत हो कर धार्मिकता के लिए जीने लगें। आप उनके घावों द्वारा भले चंगे हो गये हैं’‘ (1 पेत्रुस 2, 24) हमारी हर एक कमज़ोरी को, हर एक दुर्बलता प्रभु येसु अपने क्रूस के ऊपर ले जाते हैं और उनके खून बहाये जाने से हमें चंगाई मिलती है, हमें छुटकारा मिलता है। ईष्वर ने हमें अंधकार की अधीनता से निकाल कर अपने प्रिय पुत्र के राज्य में ले आया। उस पुत्र के द्वारा हमारा उद्धार हुआ है, अर्थात् हमें पापों की क्षमा मिलती है।


चालीसा काल प्रभु के पुनरूत्थान के पर्व की तैयारी का समय है। हम इस समय हमारे पापमय मृत्यु के जीवन को त्यागकर प्रभु के साथ एक नवीनता का जीवन प्रारम्भ करने की तैयारी करते हैं। पवित्र कलीसिया इस पवित्र समय में पुण्य कमाने के तीन प्रमुख मार्ग हमें बतलाती है।
पहला है - उपवास व त्याग करते हुए अपने किये हुए पापों पर पश्ताप  करना व पापमय जीवन को त्यागते हुए प्रभु के करीब आना
दूसरा - प्रार्थना में जीवन बिताना 
तीसरा- दान देना। या ज़रूरतमंदों की सहायता करना। 

इन सब पुण्यकर्मों को करने का हमारा उद्देश्य  हमारे सामने बिल्कुल साफ होना चाहिए। हमारे धर्म कर्मों की जानकारी सिर्फ मुझे और मेरे प्रभु को हो। हमारा उपवास, हमारी प्रार्थना दूसरों को प्रभावित करने के लिए नहीं लेकिन प्रभु को प्रसन्न करने के लिए होना चाहिए। यदि हम दूसरों को दिखाने के लिए, दूसरों की वाह-वही लूटने के लिए, दूसरों से तारीफ पाने के लिए हमारे धर्म-कर्म करते हैं तो आज का सुसमाचार हमसे कहता है हम हमारे स्वर्गीक पिता के पुरस्कार से वंचित हो जायेंगे। प्रार्थना का उद्देष्य यह नहीं कि मैं धार्मिक कहलाऊँ पर यह कि मैं प्रभु से अपना संबंध जोडूं। दान देने का उद्देष्य यह नहीं कि दूसरे लो, मेरी उदारता को जानें पर यह कि मेरे द्वारा किसी गरीब, किसी बेसहारा, किसी पीडित की मदद हो जाये। मेरा धन, मेरी शक्ति व गुण दूसरों के काम आये। मेरे उपवास का मतलब यह नहीं कि लोग मेरी धार्मिकता से वकिफ़ हो जायें, पर यह कि मेरी शारीरिक भूख मुझमें अध्यात्मिक भूख जगाये। रोटी की भूख मुझमें प्रभु व उसके वचनों की भूख जगाये। और मेरे उपवास व त्याग से जो कुछ बचता है उससे मैं किसी ज़रूरतमंद की मदद करूंँ। आने वाले इन चालीस दिनों में यदि मैं इन बातों पर ध्यान देता हूँ तो यह पावन समय मेरे लिए बहुत ही अर्थपूर्ण व प्रभु की आषिष व कृपा का एक स्रोत बनकर मेरे जीवन में मसीह के उद्धार व मुक्ति को प्राप्त करने में मेरी सहायाता करेगा।
आमेन।





Friday, 21 February 2020

सामन्याकल का 7 वां इतवार ( Year A ) 23 February 2020


लेवी 19, 1-२. 17-18
१ कुरिंथियो 3,16-23
मत्ती 5,38-48
आज का सुसमाचार पाठ बहुत ही चुनौतीपूर्ण शिक्षा हमारे सामने रखता है। प्रभु कहते हैं यदि कोई तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड मारे, तो दूसरा भी उसके सामने कर दो। इस बात को हमें अक्षरशः लेने की ज़रूरत नहीं। कई बार लोग प्रभु की इस शिक्षा का गलत मतलब निकालते व कई बार इस वचन का प्रयोग मज़ाक के तौर पर करते हैं। यहाँ पर बात महज दूसरा गाल दिखाने की नहीं है, प्रभु इससे भी बढकर हमें एक गहरी शिक्षा देना चाहते हैं। प्रभु यहांँ अपनी शिक्षा को एक मुहावरे के रूप में पेश करते हैं। जब कोई आराम से सोता है तो हम कहते हैं मुहावरे वाली भाषा में कहते हैं कि वह घोडे बेच कर सो रहा है। पर वास्तव में वहाँ न कोई घोडे होते हैं और न ही उन्हें कोई बेचता है। वैसे ही जब प्रभु येसु कहते हैं कि एक गाल पर मारने पर दूसरा दिखा दो। तो इसके पीछे उनका आशय यह नहीं कि बेमतलब लोगों की मार खाते रहो। जब प्रभु येसु को अन्नस और कैफस के सामने न्याय के लिए पेश किया गया था तब उनके गाल पर प्यादे ने थप्पड मारा था। याद रहे प्रभु येसु ने वहाँ उन्हें दूसरा गाल नहीं दिखाया। उन्होंने उससे पूछा - ‘‘यदि मैंने गलत कहा, तो मुझे गलती बता दो और यदि ठीक कहा तो मुझे क्यों मारते हो?’’ (योहन 18, 23). प्रभु की इस शिक्षा का अर्थ यह नहीं कि हम हमारे विराधियों द्वारा किये गये हर जुल्म को मुँह बंद किये सहते रहें। जहांँ कहीं भी अन्याय होता है वहाँ हमें उसके विरुद्ध आवाज उठाना चाहिए। हमें हमारा पक्ष रखने का अधिकार है। एक गाल पे मारने पर दूसरा गाल दिखाने का सीधा सा मतलब है कि हमें हमारे विरोधीजन से बदला नहीं लेना चाहिए। बुराई का सामना हमें अच्छाई के साथ करना चाहिए। बुराई के बदले बुराई और अधिक बुराई को जन्म देगी। ईंट के बदले ईंट और ऑंख के बदले आँख, खून खराबा, हिंसा व अशांति ही लाएंगे। प्रभु का वचन कहता है रोमियो 12, 19-20 में - ‘‘बुराई के बदले बुराई नहीं करें।. . .जहांँ तक हो सके सबो के साथ मेल-मिलाप बनाये रखें। प्रिय भाईयों! आप स्वयं बदला न चुकायें, बल्कि उसे ईश्वर के प्रकोप पर छोड दें; क्योंकि लिखा है - प्रतिशोध मेरा अधिकार है, मैं ही बदला चुहाऊँगा।’’ प्रभु हमें मेल-मिलाप व सुलह का रास्ता दिखाते हैं। नकारात्मक भावनाओं और विचारों का तोड नकारत्कता नहीं है। ‘ मैं तुम को देख लुँगावाली भावना आपसी रिशते को खत्म कर देती है। जिस दिन हमारे मन में किसी के प्रति ऐसी भावना आती है, उस दिन से हम शैतान को हमारे अंदर निमंत्रण देते हैं। फिर वह हमारे अंदर रहकर हमें हमारी इस सोच को कार्य रूप में परिणित करने के लिए, उकसाता रहता है। यह नकारात्मकता जो एक साधारण गुस्से से प्रारम्भ होकर बैर में तब्दिल हो जाती है, और मन का बैर एक जहर बनकर दुश्मनी को जन्म देता है। प्रभु का वचन कहता है - अपने शत्रुओं से प्रेम करो। जिस तरह सूरज की भीषण गर्मी जल स्रोतों को सुखा देती है वैसे ही मन में बैर की भावना हमारे दिलों से प्रेम को सुखा देती है। इसलिए यदि हमारे भाई बहनों से तू तू-मैं मैं हो जाये, झगडा लडाई हो जाये तो इसकी नकारात्मकता लंबे समय तक हमारे दिलों में नहीं होनी चाहिए। वचन कहता है - ‘‘यदि आप क्रूध हो जाये तो इसके कारण पाप न करें। सूरज डूबने तक अपना क्रोध कायम नहीं रहने दें'' (एफेसियों 4, 26)हमारी नकारात्मक भावनाओं का सबसे अच्छा उपचार प्यार है। इसीलिए प्रभु हमसे कहते हैं अपने दुश्मनों से प्यार करो। हमारे दुश्मन कौन हैं? चीनी? पाकिस्तानी? ज़रूरी नहीं। हमारे  दुश्मन वे सभी हैं जो हमें पसन्द नहीं करते। हमारे  दुश्मन वे हैं जो हमें गुस्सा दिलाते हैं। हमारे  दुश्मन वे है जो हमें चिढाते हैं, दूसरों के सामने हमारी बुराई व निंदा करते हैं, जो हमें गिराने के लिए षडयंत्र रचते हैं, जो हमारी उन्नती को देखकर जलते हैं। प्रभु न कवल ऐसे लोगों से प्रेम करने के लिए बल्कि उनके लिए प्रार्थना करने के लिए भी कहते हैं। प्रभु ने स्वयं यह किया। सूली पर से अपने दुष्मनों को न केवल क्षमा दी पर उनके लिए प्रार्थना की। संत स्टीफन ने जब यहूदियों ने उन्हें पत्थरों से मारा तब मरने से पहले यही कहा - हे प्रभु यह पाप इन पर न लगा। वासना की आग में जलते हुए एलेक्ज़ांन्ड्रो को जब फूलों सी कोमल व नादान मरिया गोरेती ने उसके पाप में भागीदार होने से इनकार किया तो एलेक्ज़न्ड्रो ने उसकी हत्या कर दी। अस्पताल में अंतिम सांसे लेते हुए मरिया गोरेते कह उठती है। मैं उसे माफ करती हूँ। जब सिस्टर रानी मरिया को उनके  विरोधियों ने चाकुओं से गोद कर मरवा डाला तो उसकी बहने सि. सेलमी ने हत्यारे के खुनी हाथों पर राखी बांध कर उसे अपना भाई बना लिया। आज कहने को दुनिया मे ईसाईयों की संख्या बहुत है। पर ईसा के अनुयाईयों की संख्या बहुत कम है। महात्मा गांँधी ने इंग्लैंड में रहते हुए ईसाई धर्म का अध्ययन किया। लेकिन वे कभी एक ईसाई नहीं बनें। क्योंकि उन्होंने देखा कि जिन लोगों पर ईसाई होने के लेबल लगे हैं उनमें ईसा की झलक नहीं दिखाई देती थी, ईसा की शिक्षा ईसाईयों के कार्यों में दिखाई नहीं देती थी। वहीं महात्मा गांधी नाम से नहीं परन्तु अपने कार्यों से ईसा के अनुयायी बन गये। उन्होंने प्रभु ईसा की शिक्षा को अपने जीवन में उतारा। उसे अपने जीवन व कार्यों का सिद्धांत बना लिया। एक गाल पर थप्पड मारने पर दूसरा दिखाने का सिद्धांत महात्मा गांधि के अंहिसावाद का पर्याय बन गया। इसीलिए आज दुनिया उन्हें महान अत्मा कह कर उनका सम्मान करती है।
प्रभु की इन शिक्षाओं को सुनना तो बडा अच्छा लगता है। पर इन पर अमल करना, व अपने जीवन में इन्हें उतारना एक मुशकील काम है। क्योंकि हमारा मानवीय स्वभाव तो अपने दुश्मनों से घृणा, अपने भाईयों से प्रेम करना सिखलाता है। दुष्मनों से प्रेम करना तो ईश्वरीय स्वभाव है। और हमें यही ईश्वरीय स्वभाव प्राप्त करना है। इसीलिए प्रभु येसु आज हमसे कहते हैं - अपने पिता जैसे परिपूर्ण बनो। आईये हम आज हमारे मन की सारी कडवाहट को, सारी नकारात्मकता को, दु्शमनी व घृणा के भावों को हमारे दिलों से निकाल दें ताकि प्रभु हमारे दिलों को अपने प्रेम से भर दें। ताकि हम उनकी तरह हमारे दुशमनों व हमारी विरोधियों से भी प्रेम करे सकें। आमेन।




Saturday, 8 February 2020

सामान्य काल का 6 वाँ इतवार, (Year A ) 16 फरवरी 2020

 प्रवक्ता ग्रन्थ 15:16-21
1 कोरिंथियों 2:6 - 10
मत्ती 5: 17-37

जीवन और मृत्यु ? 
चुनाव आपका----

मनुष्य  ईश्वर की सर्वोच्च सृष्टि है. कई दृष्टिकोणों से इंसान को अन्य सारे जीवों से भिन्न बनाया है. कैथोलिक कलीसिया की धर्मशिक्षा के अनुच्छेद 1730 में हम पढ़ते हैं - ईश्वर ने मनुष्य को एक तर्कसंगत प्राणी बनाया, उसे उसने ऐसी गरिमा प्रदान की, जिसकी बदौलत वह अपने कार्यों को स्वयंआरंभ और नियंत्रित कर सकता है। "ईश्वर ने मनुष्य को अपने लिए निर्णय करने की स्वतंत्रता खुद मनुष्य के हाथ में छोड़ दी, ताकि वह अपने स्वयं के सृष्टिकर्ता की तलाश कर सके और स्वतंत्र रूप से उस ईश्वर में अपनी पूर्णता प्राप्त कर सके।"

आज के पहले पाठ में प्रभु का वचन हमारे सामने इसी बात को रखता है। वचन कहता है - ‘‘उसने अपनी आज्ञायें एवं आदेश प्रकट किये और अपनी इच्छा प्रकट की है। यदि तुम चाहते हो, तो आज्ञाओं का पालन कर सकते हो; ... मनुष्य के सामने जीवन और मृत्यु दानों रखे हुए हैं, जिसे मनुष्य चुनता, वही उसे मिलता है।" प्रारम्भ से ही  ईश्वर ने यह व्यवस्था मनुष्य के लिए बनाई और हमारे आदि माता-पिता को जीवन और मृत्यु के बीच चुनने को कहा। उत्पत्ति 2ः17 में  प्रभु ने मनुष्य से कहा- ‘‘तुम वाटिका के सभी वृक्षों के फल खा सकते हो, किंतु भले-बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल नहीं खाना; क्योंकि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे, तुम अवश्य मर जाओगे।’’ उन्होंने क्या चुना? मृत्यु। ईश्वर ये कभी नहीं चाहता था कि इंसान ईश्वर का सान्निध्य छोडकर अपने हमेशा के विनाश का मार्ग चुनेंगे। वि.वि. 30ः19 में प्रभु इस बात को स्पष्ट करते हैं - ‘‘आज मैं तुम लोगों के सामने जीवन और मृत्यु, भलाई और बुराई दोनों रख रहा हूॅं। तुम लोग जीवन को चुन लो।’’ दो विकल्पों मेंसे एक चुनने की आजादी के पीछे ईश्वर की ख़्वाहिश हमेशा यही रहती है कि हम जीवन को चुनें। एज़ेकिएल  18ः23 में प्रभु का वचन कहता है - क्या मैं दुष्ट की मृत्यु से प्रसन्न हूॅं? क्या मैं यह नहीं चाहता कि वह अपना मार्ग छोड दे और जीवित रहे?’’ और वचन 31 में प्रभु बहुत ही व्याकुल होकर कहते हैं - ‘‘अपने पुराने पापों का भार फेंक दो। एक नया हृदय और एक नया मनोभाव धारण करो। प्रभु ईश्वर यह कहता है - हे इस्राएलियों! तुम क्यों मरना चाहते हो?’’ 

मनुष्य शैतान के झूठे बहकावों में आकर इस सत्य को पहचान नहीं पाता और अपने दैनिक जीवन में ऐसे चुनाव करता है जो कि उसे अनन्त जीवन से दूर करते हैं। संत योहन 10ः10 में प्रभु येसु कहते हैं - चोर याने शैतान चुराने मारने और नष्ट करने आता है, परन्तु येसु इसलिए आये कि हम बहुतायत का जीवन पायें।
जब इंसान ने अपने स्वतंत्र चयन द्वारा जीवन को ठुकरा दिया ईश्वर ने तब एक निर्णय लिया। वो निर्णय था हमारे लिए अपने बेटे को भेजना। ताकि उनके द्वारा अनंत जीवन आया सकें। योहन 3:16 में हैम पढ़ते  हैं जि कि ईश्वर ने हमें इतना प्यार किया है कि उसने हमारे लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया ताकि उन पर विश्वास करने वाले अनंत जीवन पा सकें।
ईश्वर ने तो हमें बचाने का निर्णय ले लिया है और अपना बेटा हमे दे दिया है अब आपका और मेरा निर्णय क्या है? 

जी, हाॅं प्रिय विश्वासियों , येसु हमें हमेशा का जीवन देने के लिए आये हैं। उन्होंने हमें अपने उपदेशों औरशिक्षाओं के द्वारा, उस अनन्त जीवन को चुनने का रास्ता हमें बताया है, जैसा कि आज के सुसमाचार में हमने उनकी शिक्षाओं को सुना है। उन्होंने पुरानी  शिक्षाओं को एक नए नज़रिये से देखना व छोटी से छोटी गलतियों व पापों को गंभीरता से लेने व धार्मिकता के मार्ग पर चलने हमें सिखाया है. क्या हम प्रभु के वचनों को अपने जीवन में सर्वोच्च स्थान देते हैं जैसा कि संत पेत्रुस ने अपने जीवन में येसु के वचनों की महत्ता को समझकर प्रभु येसु से कहा था  - प्रभु हम किस के पास जायें, आपके ही शब्दों में अनन्त जीवन का सन्देश हैै। 

तो आईये हम प्रभु के वचनों को सुनें, उन पर चलें और अपने दैनिक जीवन में ईश्वर को चुनें, अनंत जीवन को चुनें, मृत्यु को नहीं। आमेन। 

Thursday, 6 February 2020

सामान्य काल का पांचवा इतवार (वर्ष A) 9 फरवरी २०२०


तुम्हारी ज्योति जलती रहे,

9 फरवरी 2020
इसायाह 58ः7-10
1 कुरिन्थियों 2ः1-5
मत्ती 5ः13-16
आज के वचन का केंद्र है अंधकार और प्रकाश  अंधकार और प्रकाश  करीब-करीब संसार के सभी दर्शनों और धर्मों की विषय- वस्तु रहा है। चाहे भारतीय दर्शन  हो या फिर यूनानीदर्शन, सुमेरो-अकार्डियन साहित्य हो या फिर एशिया के समता धर्म के सिद्धांत हो, प्रकाश और अंधकार के विरोधाभास का वर्णन अवश्य मिलता है। पवित्र बाइबल में यह विषय उत्पत्ति से लेकर प्रकाशना ग्रंथ तक अपना वर्चस्व बनाये रखता है। अलग-अलग विचारकों के अनुसार इन दोनों चीजों को लेकर मान्यतायें भिन्न-भिन्न हैं। हम पवित्र बाइबल के प्रकाश में इस विषय के ऊपरमनन चिंतन करेंगे।

पवित्र बाइबल में अंधकार को ईश्वर और अच्छाई का विरोधी बताया गया है। शैतान और उसके कार्यों की तुलना अंधकार से की गई है। वहीं ईश्वर की तुलना ज्योति अथवा प्रकाश से की गई है। जहाॅं प्रकाश होता है वहाॅं अंधकार नहीं रह सकता। अतः प्रकाश का आभाव ही अंधकार है। जो अंधकार के कार्य करता है वह प्रकाश अथवा ज्योति का परित्याग करता है। 

आज संसार में अंधकार और अंधकार के कार्यों का बोल-बाला है। विभिन्न प्रकार की बुराईयों का काला जाल आज मानवता को अपने आगोश  में लिए जा रहा है। प्रभु येसु इस अंधकारमय संसार में ज्योति बनकर आये हैं। संत योहन 8ः12 में वे कहते हैं - ‘‘संसार की ज्योति मैं हूॅं। जो मेरा अनुसरण करता है, वह अंधकार में भटकता नहीं रहेगा। उसे जीवन की ज्योति प्राप्त होगी।’’ ईश्वर  ज्योति है और वह इस संसार से अंधकार को हमेशा के लिए दूर करने आये है। संत योहन का पहला पत्र 3ः8 में प्रभु का वचन कहता है - ‘‘जो पाप करता है वह शैतान की संतान है। क्योंकि शैतान हमेशा से पाप करता आया है। ईश्वर का पुत्र इसीलिए प्रकट हुआ कि वह शैतान के कार्यों को समाप्त कर दे।’’ येसु तो इसीलिए इस दुनिया में आये हैं। और वे चाहते हैं कि हर एक के जीवन से शैतान के अंधकार का राज्य समाप्त हो जाये। परन्तु यह मुझे और आपको चुनना है कि हम अंधकार से मुक्ति पाना चाहते हैं या फिर नहीं। हम किसको पसंद करते हैं संसार की ज्योति प्रभु येसु को या फिर अंधकार के नायक शैतान को। संत योहन 3ः19 में प्रभु का वचन कहता है - ‘‘ज्योति संसार में आयी है और मनुष्यों ने ज्योति की अपेक्षा अंधकार को अधिक पसन्द किया, क्योंकि उनके कर्म बुरे थे। जो बुराई करता है, वह ज्योति से बैर करता है और ज्योति के पास इसलिए नहीं आता कि कहीं उसके कर्म प्रकट न हो जायें। किंतु जो सत्य पर चलता है, वह ज्योति के पास आता है, जिससे यह प्रकट हो कि उसके कर्म ईश्वर की प्रेरणा से हुए हैं।’’ 

आज हम अपने जीवन में झाॅंक कर देखें कि हमारे कर्म किससे प्रेरित हैं, अंधकार के अधिपति शैतान से या फिर जीवन की ज्योति येसु ख्रीस्त से। यदि हमारे कर्म ईश्वर द्वारा प्रेरित हैं तो हम आज के पहले पाठ में जैसा बताया गया है वैसा आचरण करेंगे। हम हमारी रोटी भूखों के साथ खायेंगे, बेघर दरिद्रों को अपने यहाॅं ठहरायेंगे, निर्वस्त्रों को पहनायेंगे, और अपने भाई से मुॅंह नहीं मोडेंगे। ऐसा करने पर आज के वचन में प्रभु कहते हैं - ‘‘तब तुम्हारी ज्योति उषा की तरह फूट निकलेगी...यदि तुम भूखों को अपनी रोटी खिलाओगे और पददलितों को तृप्त करोगे, तो अंधकार में तुम्हारी ज्योति का उदय होगा और तुम्हारा अंधकार दिन का प्रकाश बन जायेगा।"

प्यारे विश्वासियों   यदि आप किसी अँधेरे कमरे में हों और आप मन में यह ख्वाहिश रखें कि अंधकार दूर हो जाये या फिर अँधेरे से कहें कि  वो कमरे से निकल जाये तो ये संभव नहीं; जब तक आप उठकर खिड़की दरवाज़ा या रोशनदान न खोल दें अथवा दीया या लाइट  न जलायें तब तक प्रकाश नहीं आएगा. उसी प्रकार हमारे जीवन में यदि हम पाप के अंधकार से सिर्फ दूर रहने की सिर्फ  ख्वाहिश रखें या पाप को हमसे दूर रहने को कहें तो ऐसे होगा नहीं। हमें हमारी पाप के अंधकार की अवस्था से उठना होगा और जीवन की ज्योति प्रभु येसु को हमारे जीवन में बुलाना होगा. जैसे जहाँ-जहाँ सूरज की किरणे पड़ती हैं, वहां अंधकार चाह कर भी नहीं टिक सकता वैसे ही जहाँ येसु है बुराई व अंधकार कभी नहीं टिक सकेंगे. हम जितना येसु को हमारे जीवन से दूर करेंगे हम उतने ही अंधकार में जायेंगे और जितना येसु को अपने पास रखेंगे उतना ही उनकी ज्योति में जीवन बिताएंगे और स्वयं एक ज्योति बन जायेंगे.  प्रभु येसु आज के सुसमाचार में हम सब को ज्योति बनने के लिए आह्वान करते हुए कहते हैं - तुम्हारी ज्योति मनुष्यों के सामने जलती रहे, जिससे वे तुम्हारे भले कामों को देख कर तुम्हारे स्वर्गिक पिता की महिमा करेें। 

तो आईये हम अंधकार के सब कार्यों को त्यागकर भले व प्रेममय कार्यों को अपनायें व  मसीह की ज्योति में चलने वाले बनें। ताकि हम स्वयं मसीह की ज्योति बनकर इस संसार के पापों में भटक रही मानवता को प्रभु के पास ला सकें. 
आमेन