Ex. 20:1-7
1 Cor. 1:22-25
Jn. 2:13-25
‘‘तेरे घर का उत्साह मुझे खा जायेगा’’
येसु कें अंदर ईश्वर के मंदिर को लेकर इतना उत्साह था कि उन्होेंने वहां पर बिक्री करने वालों पर गुस्सा होकर उन्हें बाहर भगा दिया।
येरूसालेम मंदिर को लेकर येसु में इतना उत्साह क्यों था? जब लोगों ने उनके ऊपर झूठा आरोप लगाया, उनके ऊपर थूका, लात घूसे और कोडे बरसाये, सूली पर चढाया तब उन्होंने कोई विरोद्ध नहीं किया। जैसा कि नबी इसायाह 53ः7 कहते हैं - ‘‘ वह अपने पर किया हुआ अत्याचार धैर्य से सहता गया और चुप रहा। वध के लिए ले जाये जाने वाले मेमने की तरह और ऊन कतरने वाले के सामने चुप रहने वाली भेड़ की तरह उसने अपना मुँह नहीं खोला।
पर मंदिर में बिक्री करने वालों को देख कर वे क्यों इतना अधिक नाराज़ हुए कि खुद को रोक नहीं पाये और सबों को रस्सी का चाबूक बनाकर, मंदिर से खदेड दिया?
प्यारे भाईयों, इसके पीछे कारण है, और कारण बडा गंभीर है। जब सुलेमान ने इस मंदिर को बनवाया था तब इसके विषय में उन्होंने कहा था - "मैं ने तेरे लिए एक भव्य निवास का निर्माण किया है। एक ऐसा मंदिर, जहाँ तू सदा के निए निवास करेगा।’’ (1 राजा. 8:13)
और ईश्वर ने सुलेमान से दूसरी बार दिव्य दर्शन देते समय उससे कहा - ‘‘तुमने जिस मंदिर का निर्माण किया है, मैं ने वहाँ सदा के लिए अपना नाम स्थापित कर उसे पवित्र किया है। मेरी आँखें और मेरा हृदय उसमें सदा विराजमान रहेगी।’’ (1 राजा 9ः3)
इसलिए यह मंदिर अपने आप में बहुत खास व महत्वपूर्ण था। इस मंदिर के गर्भ-गृह में जहाँ विधान की मंजूषा विराजित होती थी, परम पिता की इस धरती पर विशेष उपस्थिति वहाँ होती थी। येरूसलेम का यह मंदिर मूसा द्वारा मरूभूमी में बनाये गये ईश्वर के निवास के तंबू की बनावट पर आधारित था, जिसे बनाने का आदेश स्वयं ईश्वर ने मूसा को दिया था। ईश्वर के निवास के तम्बू में ईश्वर मूसा से बातें किया करता था।
निर्गमन ग्रंथ 40 में हम पढते हैं जब मूसा ने पवित्र स्थान बन जाने के बाद उसकी प्रतिष्ठा की, तब वाक्य 34 से हम पढते हैं कि बादल ने दर्शन कक्ष को ढंक लिया और उनकी समस्त यात्रा याने 40 वर्षों तक की मरूभूमी में यात्रा के समय प्रभु का बादल दिन में निवास के ऊपर छाया रहता था, किंतु रात को बादल में आग दिखाई पडती थी, जिसे सभी इस्राएली देख सकते थे।
तो यह पवित्र निवास अपने लोगों के बीच ईश्वर की पावन उपस्थिति का दृष्यमान सबूत था। ईश्वर की यही उपस्थिति येरूसलेम मंदिर में विराजमान थी। जिसे इब्रानी भाषा में ईश्वर का षिकाइना कहते हैं। जिसका अर्थ है प्रभु का वास।
प्रभु की पावन उपस्थिति का दिव्य एहसास पाकर ही भजन संहिता 84 में भजनकार गा उठता है - विश्वमण्डल के प्रभु! कितना रमणीय है तेरा मन्दिर! प्रभु का प्रांगण देखने के लिए मेरी आत्मा तरसती रहती है। विश्वमण्डल के प्रभु! मेरे राजा! मेरे ईश्वर! मुझे तेरी वेदियाँ प्रिय हैं। तेरे मन्दिर में रहने वाले धन्य हैं! वे निरन्तर तेरा स्तुतिगान करते हैं।३ हजार दिनों तक और कहीं रहने की अपेक्षा एक दिन तेरे प्रांगण में बिताना अच्छा है। दुष्टों के शिविरों में रहने की अपेक्षा ईश्वर के मन्दिर की सीढ़ियों पर खड़ा होना अच्छा है।
इससे हमें प्रभु के मंदिर के अध्यात्मिक महत्व की एक झलक मिल जाती है। संत लूकस 2ः41 में हम पढते हैं जब येसु 12साल के थे तब पास्का पर्व के दौरान वे मंदिर में रह जाते हैं और तीन दिन बाद उनके माता-पिता उन्हें ढूँढते हुए आते हैं और उनसे कहते हैं - बेटा तुमने हमारे साथ ऐसा क्यों किया देखो तोए तुम्हारे पिता और मैं दुःखी हो कर तुम को ढूँढते रहे।
तब येसु ने उनसे कहा था - मुझे ढूँढ़ने की ज़रूरत क्या थीघ् क्या आप यह नहीं जानते थे कि मैं निश्चय ही अपने पिता के घर होऊँगा।
बालक येसु के इस जवाब में पिता ईश्वर के प्रति उनके अनन्य प्रेम की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। पिता और पुत्र के बीच के बहुत ही घनिष्ट प्रेम का संबंध है। संत योहन 1ः 18 में संत योहन कहते हैं - किसी ने कभी ईश्वर को नहीं देखाय पिता की गोद में रहने वाले एकलौते ईश्वरए ने उसे प्रकट किया है। प्रभु येसु पिता ईश्वर की गोद में रहने वाला एकलौता बेटा है। संत योहन 15ः19 में प्रभु येसु कहते हैं - मैं ने अपने पिता की आज्ञाओं का पालन किया है और उसके प्रेम में दृढ़ बना रहता हूँ।
तो प्यारे भाईयों बहनों यह अपने स्वर्गिक पिता के साथ उनका दृढ़ प्रेम ही था जिसके चलते येसु अपने पिता के पवित्र निवास को एक बाज़ार में तब्दिल हुआ नहीं देख पाते और पर उन सबों को वहाँ से भगा देते हैं जो मंदिर की पवित्रता को भंग कर रहे थे। इस दृष्टिकोण से येसु की यह प्रतिक्रिया उचित और न्याय संगत थी।
चालीसा काल के तीसरे इतवार में कलीसिया हमारा आह्वान करती है कि हम पवित्रता पर अपना ध्यान केंद्रित करें और पवित्रता के विषय पर मनन चिंतन करें। लेवी ग्रंथ 11ः45 में प्रभु को वचन कहता है - ‘‘पवित्र बनो क्योंकि मैं पवित्र हूँ’’ वहीं 1 पेत्रुस 1ः14-15 में वचन कहता है - आप को जिसने बुलाया, वह पवित्र है। आप भी उसके सदृष अपने समस्त आचारण में पवित्र बनो।’’ ईश्वर बारम्बार अपनी प्रजा को पवित्र बनने के लिए आह्वान करते हैं। क्योंकि वह हमें प्यार करने वाला ईश्वर है। उसने हमारे प्रति अपने अनन्य प्रेम के खातीर ही हमारी सृष्टि की। हम इंसानों कोे अपने स्वरूप में गढा। और हम हमारे मानवीय अनुभव से यह जानते हैं कि यदि कोई किसी से प्यार करता है तो वह उसके साथ रहना पसन्द करेगा। हम अपने प्रियजनों के करीब रहना उनकी उपस्थिति में रहना पसन्द करते हैं। वैसे ही हमें प्यार करने वाला ईश्वर भी यह चाहता है कि हम हमेषा उनके साथ रहें। उसने हमें बनाया ही इसी उद्देष्य से है। पर हमारे आदि माता-पिता ने ईश्वर के इस उद्देष्य के विरूद्ध जाकर पाप किया और परिणाम स्वरूप वे ईश्वर की उपस्थिति से वंचित हो गये।
उत्पत्ति 3ः24 में हम पढते हैं अपने पाप के कारण जब वे अदन-वाटिका से बेदखल किये जाते हैं तब ईश्वर ने जीवन वृक्ष के मार्ग पर पहरा देने के लिए अदन-वाटिका के पूर्व में केरूबिम याने स्वर्गदूतों और एक परिभ्रामी ज्वालामय तलवार को रख दिया।’’
याने दो केरूब और बीच में जलती हुई तलवार जब ईश्वर ने मूसा को अपने लिए पवित्र निवास बनाने का आदेष दिया तो उन्होंने दर्शन कक्ष में ऐसे ही बीच में विधान की मंजूषा और उसके ईर्द-गिर्द दो केरूबों को स्थापित करने को कहा - येरूसलेम मंदिर में भी ईश्वर के पवित्रतम स्थान में पूर्व की ओर दो केरूब मंजूषा के ईर्द-गिर्द स्थापित किये गये। यह चिन्ह ईश्वर द्वारा अपनी प्रजा को, जो कि पाप के कारण ईश्वर की पवित्रतम उपस्थिति से दूर चली गई है उसे वापस उस पवित्रता में बुलाने का आह्हान है।
पुराने विधान में ईश्वर की इस पवित्रता में पुनः शामिल होने के लिए वर्ष में एक दिन याने प्रायश्चित का दिन या इब्रानी में - 'योमकीपूर' मानाया जाता है। उस दिन दो मेमने लिये जाते हैं आौर महायाजक मंदिर के गर्भ याने पवित्रतम् स्थान में प्रवेश कर एक मेेमने की बली चढाता है और उसका रक्त पवित्र वेदी पर लगाता है और कुछ रक्त लोगों पर छिडकाता है। और दूसरे मेेमने के सिर पर हाथ रखकर सारे इस्राएल के पापों को उस पर रखकर उसे निर्जन प्रदेष में छोड दिया जाता है इस मान्यता के साथ कि वह सबों के पापों को लेकर दूर निर्जन प्रदेश में चला गया है और ईस्राएलियों को पापों से मुक्ति मिल गई है।
परन्तु इब्रानियों 4ः11-14 ‘‘किन्तु अब मसीह हमारे भावी कल्याण के प्रधानयाजक के रूप में आये हैं और उन्होंने एक ऐसे तम्बू को पार कियाए जो यहूदियों के तम्बू से महान् तथा श्रेष्ठ हैए जो मनुष्य के हाथ से नहीं बना और इस पृथ्वी का नहीं है। उन्होंने बकरों तथा बछड़ों का नहींए बल्कि अपना रक्त ले कर सदा के लिए एक ही बार परमपावन स्थान में प्रवेश किया और इस तरह हमारे लिए सदा.सर्वदा रहने वाला उद्धार प्राप्त किया है। याजक बकरों तथा सांड़ों का रक्त और कलोर की राख अशुद्ध लोगों पर छिड़कता है और उनका शरीर फिर शुद्ध हो जाता है। यदि उस में पवित्र करने की शक्ति हैए तो फिर मसीह का रक्तए जिसे उन्होंने शाश्वत आत्मा के द्वारा निर्दोष बलि के रूप में ईश्वर को अर्पित कियाए हमारे अन्तःकरण को पापों से क्यों नहीं शुद्ध करेगा और हमें जीवन्त ईश्वर की सेवा के योग्य बनायेगा।
तो येसु का बलिदान जो क्रूस की वेदी पर सम्मपन हुआ वह हमें ईष्वर की पवित्रता में भागिदार होने के योग्य बनायेगा। आज के सुसमाचार में येसु को क्रोध इस बात को प्रकाशित करता है कि उनके लिए पवित्रता कितना गंभीर विषय है। वे पवित्रता के साथ कोई समझौता नहीं कर सकते हैं। जहाँ-कहींँ अपवित्रता है उसे ठीक करने के लिए येसु का हाथ उठेगा। शायद कोरोना महामारी भी हमारे लिए ईश्वर की पवित्रता में लौटने का एक आह्वान है। क्या मैं मेरे जीवन की, मेरे विचारों की, मेरे कार्यों की, मेरे रिश्तों की, और मेरे शरीर की पवित्रता को लेकर गंभीर हूँ? संत पौलुस कहते हैं - 1 कुरि. 3ः16-17 क्या आप यह नहीं जानते कि आप ईश्वर के मन्दिर हैं और ईश्वर का आत्मा आप में निवास करता हैघ् यदि कोई ईश्वर का मन्दिर नष्ट करेगाए तो ईश्वर उसे नष्ट करेगाय क्योंकि ईश्वर का मन्दिर पवित्र है और वह मन्दिर आप लोग हैं।
हम सब ईश्वर के मंदिर हैं, आईये हम खुद को, अपने विचारों को, अपने रिष्तों को, और अपने शरीर को पवित्र बनाये रखें, ताकि अंत में हम ईश्वर की परमपावन उपस्थिति में अनन्तकाल तक रह सकें। क्योंकि प्रकाशना ग्रंथ 21ः27 में वचन कहता है - वहाॅं याने स्वर्ग में कोई भी अपवित्र वस्तु प्रवेष नहीं कर पायेगी और न कोई व्यक्ति।’’
आमेन
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