Saturday, 29 October 2016

वर्ष का 31 वां रविवार

जकेयुस एक धनी व्यक्ति थे। वे येसु को देखना चाहते थे। आखिर क्यों, यह हमें नहीं मालुम। पर इतना तो स्पष्ट है कि येसु से मिलने के बाद जो आनन्द और संतुष्टि उनको मिली, उसके सामने उनकी सारी धन-सम्पत्ति और ऐषो आराम फीकी पड गयी और उन्होंने अपनी संपत्ति का आधा हिस्सा गरीबों में बाँट दिया।
जकेयुस के जीवन में शायद बहुत ज्यादा निराषा थी वह बेचैन था या फिर उसमें एक ऐसा खालीपन था जिसे उसकी सारी धन-दौलत नहीं भर सकी। वह येसु को देखना चाहता था न कि मिलना। पर येसु ने उससे मिलना चाहा क्योंकि वे खोये हुओं की खोज में आये थे। प्रभु येसु ने ज़केयुस से कहा, आज इस घर में मुक्ति का आगमन हुआ है। प्रभु येसु इस दुनिया में मुक्ति लेकर आयें हैं। यह दुनिया का सबसे बडा मिषन है। यूँ तो लोग कई सारे बडे-बडे  मिषनों पर निकले हैं जैसे सिकन्दर महान पूरी दुनिया पर विजय पाने के मिषन पर निकला; प्लूटो, अरस्तु व सुक्रात जैसे महान दार्षनिक ज्ञान के खोज की मिषन पर निकले; कोलम्बस एक नये संसार की खोज के मिषन पर निकला आदि। परन्तु प्रभु येस,ु भटके हुओं खोजने, के लिए स्वर्ग से निकल पडे (लूक 19ः10)। उन्होंने दुख भोगा व सूली पर मर गये इसिलिए कि वे भटकी हुई मानव जाती को बचा सके। पाप में नष्ट हो रहे अपने बच्चों को बचाने के लिए ही वह इस संसार में आये हैं। संत योहन के सुसमाचार 10ः10 मे प्र्रभु कहते हैं “चोर केवल चुराने, मारने और नष्ट करने आता है। मैं इसलिए आया हूँ कि वे जीवन प्राप्त करें - बल्कि परिपूर्ण जीवन प्राप्त करें।“ वह हमें सब प्रकार की परिपूर्णता देने इस संसार में आये हैं। हमारी वह परिपूर्णता वे पुनः लौटाने आये हैं जो हमारे आदि माता-पिता को दी गई थी, जिसे उन्होंने आदि पाप के कारण खो दिया था।
 प्रभु येसु ने ज़केयुस के मन को प्रकाषित किया व उसके अस्तित्व के दायरे को प्रभु ने बढा दिया। वह अपने से, अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर दूसरों के बारे में सोचता है, दूसरों की ज़रूरतों का ख्याल करने लगता है। वह बोल उठता है कि “प्रभु! देखिए, मैं अपनी आधी सम्पत्ति गरीबों को दे दूँगा और जिन लोगों के साथ बेईमानी की है, उन्हें उनका चौगुना लौटा दूँगा“ (लूक 19ः8)। ज़केयुस एक लालची, लोभी, और महान ठग, जिसे हमेषा दूसरों के जेब के पैसे ही दिखाई देते थे, वो तो हमेषा दूसरों को लूटने का ही सोचता रहता था आज अपनी आधी सम्पत्ति गरीबों को देने की बात करने लग जाता है। आज हमने तो दो फीट ज़मीन के लिए एक भाई को दूसरे भाई की हत्या करते देखा है, महज कुछ हजार रूपयों के लिए मार-पीट होते देखा है। पर यह व्यक्ति अपनी आधी सम्पत्ति गरीबों को यूँ ही देने को तैयार हो जाता है।  प्रभु येसु से मिलने के बाद जो आनन्द और संतुष्टि उनको मिली, उसके सामने उनकी सारी धन-सम्पत्ति और ऐषो आराम फीकी पड गयी। प्रभु येसु में उसने अपने जीवन के लिए एक बेषकीमती धन पा लिया। अब उसे ये आभास होने लगा कि मेरे जीवन में जो अधूरापन था उसकी पूर्ति करने वाला येसु ही है। इतना धन होने के बाद भी कुछ खालीपन लग रहा था पर येसु के मिलने से सब कुछ पूरा हो गया। अब येसु के सिवाय मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। मेरा धन भी अब मेरे लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा। मैं मेरे भंडारों को खाली कर दूँगा। आधी संपत्ति गरीबों को दे दूँगा और जिनको मैंने ठगा है उनको चार गूना वापस कर दूँगा। मुझे अब कुछ नहीं चाहिए। मैंने प्रभु को पा लिया है। प्रभ से मिलना कितनी ही सुखद बात है, यह पौलुस अपने पत्र में लिखते हैं - ‘‘मैं प्रभु ईसा मसीह को जानना सर्वश्रेष्ठ लाभ मानता हूँ और इस ज्ञान की तुलना में हर वस्तु को कूडा ही मानता हूँ (फिलिपी 3ः8) स्तोत्र 34ः8 में वचन कहता है ‘‘चखकर देखो, प्रभु कितना भला है।’’ संत मत्ती 13ः45 में हम एक दृष्टांत पढते हैं जिसमें प्रभु कहते हैं - “स्वर्ग का राज्य उस उत्तम मोती खोजने वाले व्यापारी के सदृष है। एक बहुमुल्य मोती मिल जाने पर वह जाता और अपना सब कुछ बेच कर उस मोती को मोल ले लेता है।“ जकेयुस को वह उत्तम मोती मिल गया और उसे अब वह खोना नहीं चाहता।
प्रभु ने जकेयुस से कहा ‘‘जकेयुस नीचे उतरो!’’ येसु से मिलने के लिए, येसु को देखने के लिए हमें उन पेडों से उतरना होगा जिनकी डालियों पर हम चिपके हुए हैं। ईष्वर प्रेम और आनन्द का भंडार है। पर उस भंडार से कुछ भी लेने के लिए हमें अपने घमंड के पेड से, नाम और यष के पेड से, वासना और झूठे अभिमान के पेड से उतरना होगा।
आज प्रभु हम सब से इस समय यही कह रहे हैं - जल्दी से नीचे उतरो, मुझे तुम्हारे यहाँ आना है। प्रभु पवित्र परम प्रसाद में हम सब के दिलों में आना चाह रहे हैं। वही प्रभु जिन्होंने ज़केयुस के घर में प्रवेष कर उसे मुक्ति का संदेष सुनाया हमें भी यही कहना चाहते हैं कि आज इस व्यक्ति के जीवन में मुक्ति का आगमन हुआ है। हम मेसे कितने लोग प्रभु के इस निमंत्रण को स्वीकार करके जकेयुस की भांति अपने जीवन को पूरी तरह से बदले को तैयार हैं?
आइये हम प्रार्थना करें।
हे प्रभु ईष्वर! मेरे जीवन से हर प्रकार स्वार्थ, लोभ, लालच और घमंड को निकाल दे। मुझे दीन-हीन बना दे कि तुमसे मैं जीवन में सच्चे आनन्द को प्राप्त कर सकूँ जिसको पाने के लिए मैं इधर-उधर भटकता रहा हूँ। हे प्रभु आपको देखने के लिए मेरी आत्मा में प्यास बढाईये।
आमेन

Saturday, 22 October 2016

वर्ष का 30 वां रविवार

नम्रतापूर्ण प्रार्थना प्रभु प्रिय है 

प्रवक्ता ग्रन्थ 35: 12-14, 16-18 
2 तिमथी 4:6-8,16-18 
लूकस 18:9-14 

आज की पूजन विधी के वचनों द्वारा प्रभु हमें यह बतलाना चाहते हैं कि प्रभु के राज्य में दीनहीन दरिद्रों व विनम्र हृदय वाले लागों का विशेष स्थान है। आज के पहले पाठ में वचन कहता है - प्रभु पददलितों की पुकार सुनता है। वह विनय करने वाले अनाथ अथवा अपना दुखडा रोने वाली विधवा का तिरस्कार नहीं करता। . . . जो सारे हृदय से प्रभु की सेवा करता है, उसकी सुनवाई होती है उसकी पुकार मेघों को चीर कर ईश्वर  तक पहुँचती है। प्रभु हृदय से, एक  सच्चे मन से की गई हर प्रार्थना का उत्तर देता है और हमें न्याय दिलाता है। 

आज के सुसमाचार में हमने एक फ़रीसी व नाकेदार के बारे में पढा, ये दोनों प्रार्थना करने मंदिर जाते हैं। फ़रीसी मंदिर में प्रार्थना करने तो जाता है लेकिन प्रार्थना नहीं करता है। वह प्रभु से कुछ निवेदन नहीं करता। वह तो सिर्फ अपनी तारीफों के पूल  बांँध रहा था। सुसमाचार कहता है कि वह बिना न्याय मिले मंदिर से वापस जाता है। वह खाली हाथ ही वापस लौट जाता है क्योंकि प्रभु की आशीष पाने के लिए उसके पास स्थान ही नहीं था। उसका पूरा जीवन व हृदय स्वयं से, अपने ही अहम् से भरा था। वह फ़रीसी उस ईंट, पत्थर के मंदिर में तो खडा परंतु  उसके  दिल के मंदिर से प्रभु काफी दूर थे ।

वहीं दूसरी ओर नाकेदार को न्याय मिलता है। उसकी प्रार्थना सुनी जाती है। उसे प्रभु की आशीष प्राप्त होती है। वह पाप मुक्त होकर मंदिर से वापस जाता है क्योंकि वह प्रभु के सामने झूक कर विनम्रतापूर्वक प्रार्थना करता है। उसने दूसरों के ऊपर दोष लगाने के बजाय स्वयं की गिरेबांह में झांक कर देखा। और वह अपने पापों पर पश्चाताप करता है। यूँ तो  नाकेदार दूर खडा होकर प्रार्थना करता है पर वह प्रभु के अति करीब था। प्रभु का वचन स्तोत्र 32ः18 में कहता है “प्रभु दुखियों से दूर नहीं है। जिनका मन टूट गया, प्रभु उन्हें संभालता है।" इसका मतलब ये है कि जो दिल से पश्चाताप  करता है, व प्रभु की अपार दयालुता पर भरोसा करता है। प्रभु उनके करीब है। नाकेदार अपनी छाती पीटते हुए कहता है - “हे ईश्वर ! मुझ पापी पर दया कर"। वह स्वयं की तारीफ नहीं करता लेकिन ईश्वर  की प्रशंसा  करता है। वह स्वयं को महिमा मंडित करके अपने को सबसे पहले  नहीं रखता। वह ईश्वर  की महानता को जानता व समझता है। वह जानता है कि ईश्वर महान व दयालुता का धनी है।

विनम्रता किसी भी प्रार्थना की नींव अथवा आधार है। हर प्रार्थना यह दर्शाती  है कि हम कमज़ोर व निर्बल प्राणी है। हमें ईश्वर की दया व कृपा की ज़रूरत है। हम हमारे बल पर, हमारी ताकत पर कुछ भी नहीं कर सकते।
इसलिए प्रार्थना करते समय सबसे पहले हमें हमारी मानवीय कमज़ोरियों को प्रभु के सामने कबूल करना चाहिए व हमारी भूल चुकों के लिए प्रभु से माफी मांगना चाहिए जैसा कि उस नाकेदार ने किया। इसिलिए हम हर मिस्सा बलिदान की शुरूआत में दयायाचना करते हैं। पापों पर पश्चाताप कर हम पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा ईश्वर से मिलने के योग्य बन जाते हैं। तब साफ मन व हृदय से हम ईश्वर से वार्तालाप करने के लिए तैयार हो  जाते हैं। और एक स्वच्छ हृदय से निकली प्रार्थना को प्रभु स्वीकार करते हैं। इसलिए चाहे हमारी सामुदायिक प्रार्थना हो या फिर व्यक्तिगत हमें हमेशा  पहले अपने पापों की क्षमा याचना करनी चाहिए। एक बार एक व्यक्ति आद्यत्मिक साधना के बाद जब वापस लौटा तो लोगों ने उससे पूछा - “क्या आप पहले पापी थे?“ उसने जवाब दिया - “जि हाँ।“ उन्होंने फिर उनसे पूछा - “क्या आप अब भी पापी हो?“ और उसने फिर वही जवाब दिया - “जि हाँ।“ इस पर लोग उसकी हंँसी उडाते हुए कहने लगे कि रिट्रीट में भाग लेने से फिर क्या फरक पडा? उसने उन्हें एक सुंदर जवाब दिया - “ फ़र्क तो है! पहले मैं पाप की ओर भागा चला जाता था और अब मैं पाप से दूर भागा चला जा रहा हूँ।"
हमें ईश्वर एवं लोगों के सामने विनम्र बनना चाहिए। यदि हम किसी पद पर हैं तो हमें जल्दीबाजी में किसी भी की छोटी-छोटी गलतियां व कमज़ोरियों के लिए उन पर दोष नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि हम स्वयं भी अपने आप में परिपूर्ण नहीं है। हमारी अपनी भी कई कमज़ोरियां है। प्रभु का वचन कहता है कि आप अपने सौंपे हुए लोगों पर अधिकार जता कर नहीं, बल्कि झूंड के लिए आदर्श बनकर जीवन बिताओ (1 पेत्रुस 5ः3)। क्योंकि हमारे गुरू और प्रभु स्वयं भी “सेवा कराने नहीं बल्कि सेवा करने व बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण अर्पित करने आये हैं“ (मत्ती 20ः28)।
कोई संत है अथवा सज्जन है इसकी पहचान उसकी विनम्रता से हो जाती है। संत बेरनादेत पढाई में बहुत ही कमज़ोर बालिका थी उसकी शिक्षिका ने उससे कहा था कि तुम किसी काम की नहीं हो, पढना तुम्हारे बस की बात नहीं। उस मुर्ख कही जाने वाली लडकी को ही माता मरियम ने कई बार दर्शन  दिये। वे कहती हैं उनका जीवन मात्र एक झाडू के समान हैं। जिस प्रकार से झाडू की जब-जब ज़रूरत पडती उसका उपयोग किया जाता है व फिर उसे कोने रख दिया जाता है। उसी प्रकार वे कहती हैं कि ईश्वर ने माता मरियम के द्वारा संदेश  देने के लिए उनका उपयोग किया व अब उन्हें एक कोने में रख दिया है और वे इस कोने में बहुत खुश है। प्रभु को जब ज़रूरत पडेगी तो वह उन्हें फिर से उठायेगा और अपने राज्य के लिए उपयोग करेगा। हमें भी अपने आप आपको ऐसा ही समझना चाहिए - ईश्वर के हाथ में एक साधन जैसा-  एक बांसुरी, अथवा एक पेन जैसे, वो जैसी धुन बजाना चाहे, वो बजाये अथवा जो भी वो लिखना चाहे वो लिखे. आमेन ।  

Saturday, 15 October 2016

वर्ष का 29 वां रविवार

वर्ष का 29 वां रविवार

निर्गमन 17ः8-13
2 तिम 3ः14-2
लूक 18ः1-8

आज के पहले पाठ में हमने सुना कि मूसा जो कि इस्राएलियों का अगुवा था, मैदान में जाकर युद्ध लडने के बजाय पर्वत पर चढकर प्रार्थना करता है। अचरज की बात ये है कि जब तक मूसा हाथ उठाकर प्रार्थना करता रहता है, तब तक इस्राएली विजय होते हैं और जब प्रार्थना बंद हो जाती है तब उनकी हार होती है। ये न केवल एक ऐतिहासिक घटना है बल्कि हमारे जीवन की एक वास्तविकता है। हमारी मुक्ति के इस मार्ग में प्रार्थना ही एक ऐसा शक्तिषाली साधन है जो हमें, हमारे जीवन में आने वाली हर मुसीबत व बाधा के ऊपर विजय प्राप्त करने में हमारी सहायता करता है। हम सब हमारे प्रतिज्ञात देष स्वर्ग की ओर यात्रा कर रहे हैं। बहुत ही शक्तिषाली दुष्मन हमारी इस राह में बाधा डालने के लिए खडे हैं। हमें कई अमालेकियों से युद्ध करना है। हमारे शत्रुओं का सामना करने के लिए हमें बहुत ही शक्तिषाली हथियार की आवष्यक्ता है और वह हत्यार है प्रार्थना। मूसा, हारून व हूर के साथ पहाड पर हाथ उठाकर दिन ढलने तक प्रार्थना करते रहे। ये हमारे जीवन की ओर इंगित करता है। हमें हमारी जिंदगी का सूरज ढलने तक प्रार्थना करते रहना है। जब मूसा पर्वत पर प्रार्थना कर रहा था तब योषुआ नीचे रण भूमि में युद्ध लड रहा था। यह हमें यह सिखलाता है कि प्रार्थना के साथ ही साथ हमारा मानवीय प्रयास भी अति आवष्यक है। यदि कोई प्रार्थना करे कि प्रभु हमारी गरीबी दूर दीजिए, हमें सम्पन्न बनाईये और वह व्यक्ति रोज़ घर में ही बैठा रहता हो, अथवा कोई ये प्रार्थना करे कि प्रभु हमारे परिवार में शांँति रहे और वह व्यक्ति रोज़ शराब पीकर घर आता है तो शायद प्रभु भी उनके लिए कुछ नहीं कर पायेंगे। प्रभु की कृपा व हमारा प्रयास दोनों का होना अति आवष्यक है।
सुसमाचार में हमने सुना कि एक विधवा ऐसे न्यायकर्ता के पास जाकर बारम्बार न्याय के लिए आग्रह करती है जो कि अधर्मि था। वह न तो प्रभु से डरता था और न ही किसी की परवाह करता था। परन्तु वह उस विधवा को न्याय दिलाता है क्योंकि वह बार - बार उसके पास आया करती थी। और प्रभु येसु हमसे कहते हैं कि यदि वह अधर्मी न्यायकर्ता उस विधवा की माँग पूरा करते हुए उसे न्याय दिला सकता है तो “क्या ईष्वर अपने चुने हुए लोगों के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं करेगा, जो दिन रात उसकी दुहाई देते रहते हैं?“ हमें हमेषा प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमें परीक्षा में मत डाल परन्तु सब प्रकार की बुराईयों से हमें बचा (मत्ती 6ः13)। 1 थेसलनिकियों 5ः16 में प्रभु का वचन कहता है - “आप लोग हर समय प्रसन्न रहें, और निरन्तर प्रार्थना करते रहें।“ इस संसार की चुनौति भरी राहों पर मुसिबतों का सामना करते हुए आगे बढने के लिए नित्य प्रार्थना की बहुत ही आवष्यक्ता है। प्रार्थना का गहरा अनुभव ही इंसान को प्रभु की सुरक्षा व सहायता पर दृढ भरोसा रखने में सहायक सिद्ध हो सकता है। इसलिए प्रार्थना एक आध दिन का काम नहीं होना चाहिए। मुसिबत में प्रार्थना की और बाद में अगली मुसिबत तक छूट्टी, ऐसा नहीं होना चाहिए। प्रभु कहते हैं “जागते रहो और प्रार्थना करते रहो, जिससे तुम परीक्षा में न पडो“ (मत्ती 26ः41)। याने परीक्षा में पडने पर नहीं, मुसीबत में फँसने पर नहीं परन्तु परीक्षा से पहले ही प्रार्थना करो, मुसीबत से पहले ही प्रार्थना करो। इस संदर्भ में कबीरदासजी का एक दोहा याद आता है
सुख में सुमिरन सब करे दुःख में करे न कोई।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होई।
इसिलिए संत पौलुस एफेसियों से अग्रह करते हैं कि “आप लोग हर समय आत्मा में सब प्रकार की प्रार्थना तथा निवेदन करते रहें।“ (एफेसियों 6ः18)।
हमें प्रार्थना को सिर्फ हमारे जीवन का एक भाग नहीं, अपितु हमारे पूरे जीवन को प्रार्थनामय बनाना चाहिए। हमेषा प्रार्थना करने का मतलब यह नहीं कि हम कुछ प्रार्थनाएं रटते फिरें। पर मतलब यह है कि हमारे जीवन का हर क्षण हर पल प्रार्थनामय बनायें। प्रार्थना का मतलब होता है ईष्वर के साथ संपर्क साधना, उनसे बातें करना, उन्हें अपने सुख-दुःख की कहानी सुनाना व उनसे उनके वचनों को सुनना। प्रार्थनामय जीवन का सर्वोत्तम उदाहरण स्वयं प्रभु येसु हैं। वे नित्य अपने स्वर्गिक पिता के सम्पर्क में बने रहते थे। इसिलिए उन्हें दुःखों का वह प्याला पीने के लिए व हमारी मुक्ति के लिए पर्याप्त शक्ति व सहायता पिता ने प्रदान की।
ऐसा नहीं है कि हम प्रार्थना के द्वारा ईष्वर की ईच्छा को बदल देते हैं पर प्रार्थना हमें ज़रूर बदल देती है। प्रार्थना ईष्वर को हमारे जीवन में कार्य करने के लिए हमारे मन व दिल को खोल देती है। प्रार्थना हमें यह भी याद दिलाती है कि हम अपने आप में परिपूर्ण नहीं हैं। हम हमारे जीवन के लिए, जीवन की विभिन्न आवष्यक्ताओं के लिए ईष्वर पर अश्रित रहते हैं। जब हमें यह लगता है कि हमारी प्रार्थना का उचिज जवाब नहीं मिल रहा है ऐसी परिस्थिति में भी प्रभु येसु हमें प्रार्थना करते रहने का आष्वासन देते हैं। बिना विचलित हुए प्रार्थना करते रहने से हमारी ईच्छा शक्ति मज़बुत व हमारा विष्वास गहरा हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे नित्य व्यायाम करने से हमारा शरीर, मांस पेषियाँ, हृदय, व फेफडे मज़बूत हो जाते हैं।   ़
आईये आज हम प्रभु से वही कृपा माँगें जिससे परिपूर्ण होकर वे अपने स्वर्गीय पिता से नित्य बातें करते थे। आईये हम भी हमारा यह ख््रास्तीय जीवन व्यर्थ के सोच-विचार व बातों में नष्ट करने के बजाय, प्रभु स्मरण करते हुए बितायें। हमें ये ज्ञात रहे कि प्रभु जीवन के हर क्षण हर पल हमारे साथ रहते हैं। हम उनसे संपर्क बनाये रखें। उनसे वर्तालाप करते रहें। प्रभु नबी यरमियाह के ग्रंथ में हमसे वादा करते हैं कि ‘‘जब तुम मुझे पुकारोगे और मुझसे प्रार्थना करोगे, तो मैं तुम्हारी प्रार्थना सुनूँगा’’ यरमियाह 29ः12।

Saturday, 1 October 2016

वर्ष का 27 वां रविवार

27 वां रविवार
हब 1:2-3,2:2-4
तिम 1:6-8,13-14
लुक 17:5-10

प्रभु ने कहा है और हमने सुना है, आज के सुसमाचार में - “यदि तुम्हारा विष्वास राई के दाने के बराबर भी होता और तुम शहतूत के इस पेड से कहते, उखड कर समुद्र में लग जा, तो वह तुम्हारी बात मान लेता।“ संत मत्ती के सुसमाचार में इसी संदर्भ में प्रभु कहते हैं कि यदि तुम्हारा विष्वास राई के दाने के बराबर भी हो तो तुम इस पहाड से कहते कि वह समुद्र में जाकर गिर जाये तो ऐसा ही होता। यहां पर प्रभु अलंकारिक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हमारे पास थोडा सा भी विष्वास है तो हम बडे से बडे मुसिबतों का पहाडों का ढा सकते हैं। बडी सी बडी बिमारियों से चंगाई पा सकते हैं। बस दिल में विष्वास होना चाहिए।
सुसमाचार के प्रचारकों के जीवन में राई के दाने के बराबर प्रार्थनामय विष्वास ने मुसिबतों व परेषानियों के दिग्गज पहाडों का धराषाही कर दिया। हम प्रेरित चरित में पढते हैं कि राजा हेरोद ने याकूब और उसके भाई योहन की हत्या के बाद संत पेत्रुस को बंदी बना लिया था तथा उन्हें कडी सुरक्षा के घरे में कारावास में बंद कर दिया। वो उन्हें भी मौत के घाट उतार देना चाह रहा था। प्रेरित चरित 12ः5 में हम पढते हैं “जब पेत्रुस पर इस प्रकार बंदीगृह में पहरा बैठा हुआ था, तो कलीसिया उसके लिए आग्रह के साथ प्रार्थना करती रही।“ कलीसिया पूर्ण विष्वास व आग्रह से प्रभु से प्रार्थना करती रही और तब प्रभु एक महान चमत्कार दिखाते हैं। प्रभु का दूत कारावास में से चमत्कारिक ढंग से उन्हें बाहर निकाल ले जाता है। संत मत्ती 19ः26 में वचन कहता है - “ईष्वर के लिए सब कुछ सम्भव है।“ तथा मत्ती 17ः20 में वचन कहता है कि यदि तुम्हारे पास विष्वास है तो तुम्हारे लिए भी कुछ भी असम्भव नहीं है।
आज के पहले पाठ में वचन हमसे कहता है कि धर्मी अपने विष्वास के कारण जीता है। नबी ये शब्द उन लोगों को तब सुनाये जाते हैं जब बाबुल के राजा नबूकदनेज़र ने येरूसलेम पर हमला किया, प्रभु के मंदिर को तहस-नहस कर दिया, प्रभु की वेदी को अपवित्र किया, कईयों का खून बहाया व कईयों को गुलाम बनाकर बाबुल के निर्वासन में ले गया। इस्राएली लोग अपने आप को हारे हुए, निस्सहाय, व परित्यक्त महसूस कर रहे थे। तब नबी उनसे कहते हैं कि आप लोगों ने अपने दुष्मन के हाथों गहरे घाव पाये हैं परन्तु फिर भी आप विकट परिस्थिति में भी प्रभु में प्रति विष्वास बनाये रखो। वही तुम्हारा उद्धार करेगा।
विष्वास करने के लिए नम्रता बहुत ज़रूरी है। वही व्यक्ति विष्वास में दृढ़ हो सकता है जो यह स्वीकार करता है कि मेरी क्षमताएँ सीमित है, मेरे साधन सीमित है, परन्तु प्रभु के पास असीमित सम्भावनायें है। हम जहाँ सोचना बंद करते हैं प्रभु वहाँ से शुरूआत करते हैं। जब हम सोचते हैं मुसिबतों की आँधी इतनी अधिक है कि हमारे जीवन का चिराग और आगे जल नहीं पायेगा। तब प्रभु कहते हैं मैं इस दीपक को अपनी हथेलियों से ढंक कर रखता हूँ तू मुझपर भरोसा रखकर आगे बढ़। जब हम जीवन में निराष व हताष हो जाते असफलताओं का पहाड हम टूट पडता है। हमें आगे बढने के लिए कोई रास्ता, कोई विकल्प नहीं सुझता तब प्रभु हमसे कहते हैं कि सारी सफलताओं और खुषियों की चाभी मेरे पास है। तू मुझ पर विष्वास रख यदि एक दरवाज़ा बंद होता है तो मैं तेरे लिए दस दरवाजे़ खोल दूँगा।
विष्वास की ताकत को मैं ने मेरे जीवन में कई दफा़ अनुभव किया है। मैं मेरे जीवन की एक घटना को आप लोगों के साथ साझा करना चाहता हूँ। बात उन दिनों की है जब मैं आष्टा में ईष शास्त्र का अध्ययन कर रहा था। आस-पास के किसानों की गेंहू-चने की फसल पक कर तैयार थी। कईयों ने फसल काट ली थी, पर खेत में ही पूले पडे हुए थे। करीब दोपहर के समय काले, घने बादल, बिजली व गरजन के साथ बारीष का माहौल बन गया। जैसे ही हमारी क्लास खत्म हुई बूँदा बांँदी शुरू हो गई। मैं ने मेरे एक दोस्त से कहा देख बारीष हो रही है अब बेचारे किसानों का क्या होगा। मेरे साथी ने मुझसे कहा लेट अस प्रे फॉर देम। पता नहीं मुझमें ऐसा हुआ कि मैं सीधे अपने कमरे में भागकर गया। अपने नोट्स टेबल पर रखे व वहीं घूटनों टेकर अनुरोध के साथ प्रार्थना करने लगा कि प्रभु तून ही इन गरीबों को यह फसल दी है। तू ही तो इनका रखवाला है। प्रभु इन पर दया दृष्टि डाल और यह बारीष अभी इसी वक्त रोक दे। अन्यथा इनकी फसल बरबाद हो जायेगी। और प्रभु ने प्रार्थना सुन ली। मुझे खुद ही विष्वास नहीं हो रहा था कि वास्तव में थोडे ही समय में बादल छंट गये और सब कुछ सामान्य हो गया।
आज के सुसमाचार में विष्वास की शक्ति के बारे में बताने के बाद प्रभु हमें विनम्रतापूर्ण सेवा के बारे में बताते हैं। प्रभु कहते हैं कि एक सेवक अपने स्वामी की भरपूर सेवा करने के बाद कभी धन्यवाद की आषा नहीं करता क्योंकि वह तो यह कहता है कि मैं ने तो मेरा कर्तव्य मात्र पूरा किया है। प्रभु हमसे भी यही कहते हैं कि हम प्रभु व उसके लोगों की दिलो जान से सेवा करने के बाद यही कहें -‘हम तो अयोग्य सेवक भर हैं; हमने अपना कर्तव्य मात्र पूरा किया है। कल हमने बालक येसु की संत तेरेसा का पर्व मनाया। वे अपने जीवन में हर एक छोटे से बडे काम को बडी ही तत्परता, लगन व प्रेम से करती थी। हर कार्य करते समय वह यही सोचती थी कि वह उसके द्वारा प्रभु की ही सेवा कर रही है। प्रभु ने हम सब को ऐसी ही विनम्र सेवा करने के लिए बुलाया है।
आईये  प्रभु हम प्रभु के षिष्यों के साथ प्रार्थना करें जैसा कि आज के सुसमाचार में उन्होंने किया - ‘‘प्रभु हमारे विष्वास को बढाईये।’’ तथा प्रभु व लोगों की सेवा करने में हम उदार, प्रेमी व पूर्ण रूप से समर्पित बन जायें।