नम्रतापूर्ण प्रार्थना प्रभु प्रिय है
प्रवक्ता ग्रन्थ 35: 12-14, 16-18
2 तिमथी 4:6-8,16-18
लूकस 18:9-14
आज की पूजन विधी के वचनों द्वारा प्रभु हमें यह बतलाना चाहते हैं कि प्रभु के राज्य में दीनहीन दरिद्रों व विनम्र हृदय वाले लागों का विशेष स्थान है। आज के पहले पाठ में वचन कहता है - प्रभु पददलितों की पुकार सुनता है। वह विनय करने वाले अनाथ अथवा अपना दुखडा रोने वाली विधवा का तिरस्कार नहीं करता। . . . जो सारे हृदय से प्रभु की सेवा करता है, उसकी सुनवाई होती है उसकी पुकार मेघों को चीर कर ईश्वर तक पहुँचती है। प्रभु हृदय से, एक सच्चे मन से की गई हर प्रार्थना का उत्तर देता है और हमें न्याय दिलाता है।
आज के सुसमाचार में हमने एक फ़रीसी व नाकेदार के बारे में पढा, ये दोनों प्रार्थना करने मंदिर जाते हैं। फ़रीसी मंदिर में प्रार्थना करने तो जाता है लेकिन प्रार्थना नहीं करता है। वह प्रभु से कुछ निवेदन नहीं करता। वह तो सिर्फ अपनी तारीफों के पूल बांँध रहा था। सुसमाचार कहता है कि वह बिना न्याय मिले मंदिर से वापस जाता है। वह खाली हाथ ही वापस लौट जाता है क्योंकि प्रभु की आशीष पाने के लिए उसके पास स्थान ही नहीं था। उसका पूरा जीवन व हृदय स्वयं से, अपने ही अहम् से भरा था। वह फ़रीसी उस ईंट, पत्थर के मंदिर में तो खडा परंतु उसके दिल के मंदिर से प्रभु काफी दूर थे ।
वहीं दूसरी ओर नाकेदार को न्याय मिलता है। उसकी प्रार्थना सुनी जाती है। उसे प्रभु की आशीष प्राप्त होती है। वह पाप मुक्त होकर मंदिर से वापस जाता है क्योंकि वह प्रभु के सामने झूक कर विनम्रतापूर्वक प्रार्थना करता है। उसने दूसरों के ऊपर दोष लगाने के बजाय स्वयं की गिरेबांह में झांक कर देखा। और वह अपने पापों पर पश्चाताप करता है। यूँ तो नाकेदार दूर खडा होकर प्रार्थना करता है पर वह प्रभु के अति करीब था। प्रभु का वचन स्तोत्र 32ः18 में कहता है “प्रभु दुखियों से दूर नहीं है। जिनका मन टूट गया, प्रभु उन्हें संभालता है।" इसका मतलब ये है कि जो दिल से पश्चाताप करता है, व प्रभु की अपार दयालुता पर भरोसा करता है। प्रभु उनके करीब है। नाकेदार अपनी छाती पीटते हुए कहता है - “हे ईश्वर ! मुझ पापी पर दया कर"। वह स्वयं की तारीफ नहीं करता लेकिन ईश्वर की प्रशंसा करता है। वह स्वयं को महिमा मंडित करके अपने को सबसे पहले नहीं रखता। वह ईश्वर की महानता को जानता व समझता है। वह जानता है कि ईश्वर महान व दयालुता का धनी है।
विनम्रता किसी भी प्रार्थना की नींव अथवा आधार है। हर प्रार्थना यह दर्शाती है कि हम कमज़ोर व निर्बल प्राणी है। हमें ईश्वर की दया व कृपा की ज़रूरत है। हम हमारे बल पर, हमारी ताकत पर कुछ भी नहीं कर सकते।
इसलिए प्रार्थना करते समय सबसे पहले हमें हमारी मानवीय कमज़ोरियों को प्रभु के सामने कबूल करना चाहिए व हमारी भूल चुकों के लिए प्रभु से माफी मांगना चाहिए जैसा कि उस नाकेदार ने किया। इसिलिए हम हर मिस्सा बलिदान की शुरूआत में दयायाचना करते हैं। पापों पर पश्चाताप कर हम पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा ईश्वर से मिलने के योग्य बन जाते हैं। तब साफ मन व हृदय से हम ईश्वर से वार्तालाप करने के लिए तैयार हो जाते हैं। और एक स्वच्छ हृदय से निकली प्रार्थना को प्रभु स्वीकार करते हैं। इसलिए चाहे हमारी सामुदायिक प्रार्थना हो या फिर व्यक्तिगत हमें हमेशा पहले अपने पापों की क्षमा याचना करनी चाहिए। एक बार एक व्यक्ति आद्यत्मिक साधना के बाद जब वापस लौटा तो लोगों ने उससे पूछा - “क्या आप पहले पापी थे?“ उसने जवाब दिया - “जि हाँ।“ उन्होंने फिर उनसे पूछा - “क्या आप अब भी पापी हो?“ और उसने फिर वही जवाब दिया - “जि हाँ।“ इस पर लोग उसकी हंँसी उडाते हुए कहने लगे कि रिट्रीट में भाग लेने से फिर क्या फरक पडा? उसने उन्हें एक सुंदर जवाब दिया - “ फ़र्क तो है! पहले मैं पाप की ओर भागा चला जाता था और अब मैं पाप से दूर भागा चला जा रहा हूँ।"
हमें ईश्वर एवं लोगों के सामने विनम्र बनना चाहिए। यदि हम किसी पद पर हैं तो हमें जल्दीबाजी में किसी भी की छोटी-छोटी गलतियां व कमज़ोरियों के लिए उन पर दोष नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि हम स्वयं भी अपने आप में परिपूर्ण नहीं है। हमारी अपनी भी कई कमज़ोरियां है। प्रभु का वचन कहता है कि आप अपने सौंपे हुए लोगों पर अधिकार जता कर नहीं, बल्कि झूंड के लिए आदर्श बनकर जीवन बिताओ (1 पेत्रुस 5ः3)। क्योंकि हमारे गुरू और प्रभु स्वयं भी “सेवा कराने नहीं बल्कि सेवा करने व बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण अर्पित करने आये हैं“ (मत्ती 20ः28)।
कोई संत है अथवा सज्जन है इसकी पहचान उसकी विनम्रता से हो जाती है। संत बेरनादेत पढाई में बहुत ही कमज़ोर बालिका थी उसकी शिक्षिका ने उससे कहा था कि तुम किसी काम की नहीं हो, पढना तुम्हारे बस की बात नहीं। उस मुर्ख कही जाने वाली लडकी को ही माता मरियम ने कई बार दर्शन दिये। वे कहती हैं उनका जीवन मात्र एक झाडू के समान हैं। जिस प्रकार से झाडू की जब-जब ज़रूरत पडती उसका उपयोग किया जाता है व फिर उसे कोने रख दिया जाता है। उसी प्रकार वे कहती हैं कि ईश्वर ने माता मरियम के द्वारा संदेश देने के लिए उनका उपयोग किया व अब उन्हें एक कोने में रख दिया है और वे इस कोने में बहुत खुश है। प्रभु को जब ज़रूरत पडेगी तो वह उन्हें फिर से उठायेगा और अपने राज्य के लिए उपयोग करेगा। हमें भी अपने आप आपको ऐसा ही समझना चाहिए - ईश्वर के हाथ में एक साधन जैसा- एक बांसुरी, अथवा एक पेन जैसे, वो जैसी धुन बजाना चाहे, वो बजाये अथवा जो भी वो लिखना चाहे वो लिखे. आमेन ।
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