इसायाह का ग्रन्थ 61:1-2a.10-11
थेसलनीकियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 5:16-24
सन्त योहन 1:6-8.19-28
Know Thyself यह प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात की एक कहावत है। जिसका अर्थ होता है - खुद को जानो। जीवन में खुद को जानना बहुत ज़रुरी है। हम खुद के बारे में कई प्रकार की धारणाएं रखते हैं - कोई खुद को अच्छा तो कोई बुरा मानता है ; कोई खुद को छोटा तो कोई बड़ा मनता है। कोई खुद पे घमंड व अभिमान करता है तो कोई खुद को बहुत ही हीन मानता है। कोई खुद को बहुत ही योग्य मानता है तो कोई खुद को बिलकुल अयोग्य मानता है। कोई खुद बहुत ही महत्वपूर्ण मानता है तो वहीं कोई खुद को महत्वहीन मनाता है। मैं मेरे बारे में जो सोचता हूँ कई बार वह सही होता है तो कई बार वह गलत भी हो सकता है। इसलिए खुद के बारे में एक सही धारणा होना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि खुद को लेकर हमारे विचार हमारे व्यक्तित्व व हमारी आध्यात्मिकता का निर्माण करते हैं। इसलिए खुद की सही पहचान करना बहुत ही आवश्यक है। मैं जो भी जैसा भी हूँ मुझे खुद की सच्चाई को देखना और परखना ज़रूरी है।
और खुद को जानने की प्रक्रिया हम से शुरू न होकर यदि ईश्वर से हो तो हमें खुद की बेहतर समझ आएगी। याने यदि हम अपने जीवन की सच्चाई के तलाश की शुरुआत अपने से न करके इसकी तलाश ईश्वर से शुरू करें तो हमें हमारी ज़िंदगी का असली मकसद सही मायने में समझ में आएगा। पवित्र बाइबल हमें बतलाती है कि ईश्वर ने हमें अपने प्रतिरूप में बनाया है। - "ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनाया; उसने उसे ईश्वर का प्रतिरूप बनाया; उसने नर और नारी के रूप में उनकी सृष्टि की।" यह हमारी व्यक्तिगत पहचान की बुनियाद है, हमारे पहचान का आधार है। खुद के बारे में कोई भी विचार बुनियाद पर खड़ा होना चाहिए कि मैं ईश्वर का प्रतिरूप हूँ। जी हाँ मैं ईश्वर जैसा बनाया गया हूँ। तो मेरी बुनयादी पहचान ईश्वर के प्रतिरूप के रूप में होनी चाहिए। जैसा ईश्वर है वैसे ही हमें होना चाहिए पर वास्तविकता कई बार इस सच्चाई से कोसों दूर होती है। ऐसा इसलिए होता है की पाप व अधर्म ने हमारे उस ईश्वरीय स्वरुप को बिगड़ दिया है। मेरी बातों, मरे कार्यों और मेरे विचारों में ईश्वरता या ईश्वर का गुण नहीं झलकता तो यह इस ओर संकेत करता है कि मेरा मौलिक स्वरुप पाप के कारण बिगड़ रहा है। इसलिए सुकरात की यह कहावत कि खुद को जानो हमारी आध्यात्मिकता के लिए और हमारे आत्मिक सुधार के लिए बहुत आवश्यक है।
ईश्वर ने हम सबको एक पहचान दी है और ज़िन्दगी का एक उद्देश्य। उसने हमें जैसा भी बनाया, जो भी बनाया उसके पीछे एक योजना है। यिर्मयाह 29:11 में प्रभु का वचन कहता है - मैं तुम्हारे लिए निर्धारित अपनी योजनाएँ जानता हूँ“- यह प्रभु की वाणी है- “तुम्हारे हित की योजनाएँ, अहित की नहीं, तुम्हारे लिए आशामय भविय की योजनाए।
हमें हमारे जीवन के पीछे ईश्वर की योजना को जानना व समझना आवश्यक है। जब तक हमें यह नहीं पता है कि मेरे जीवन का मकसद क्या है। आखिर मैं इस दुनियां में क्यों हूँ, मुझे मेरे इस मानव जीवन से क्या हासिल करना है? मैं उस दिशाहीन खिलाडी की तरह मेरी ज़िन्दगी का खेल खेलता रहूँगा जो बिना गोल पोस्ट लगाए फुटबॉल खेलता है। मुझे याद है जब हम छोटे थे तब बड़ी फुटबॉल होना हमारी किस्मत में नहीं था तो हम मोज़े में कुछ कपडे या रद्दी दाल कर एक छोटे आकर की गेंद बनाते थे और उसे लात मरकर खेला करते थे। हमारे पास बड़ा ग्राउंड और बड़े गोल पोस्ट वगैरह भी नहीं था तो हम जहाँ कहीं भी खेलते थे गोल बनाने के लिए दो पत्थर रह दिया करते थे। हमें फुटबॉल के ज़्यादा कायदे व खेलने के तरीके रो नहीं मालूम थे पर इतना तो ज़रूर पता था कि फुटबॉल खेलने के लिए एक गोल होना ज़रूरी है। और खेल उस गेंद को गोल में डालने के इर्द -गिर्द घूमता था। प्यारे साथियों ऐसे ही हमें भी हमारे जीवन में ज़िन्दगी के लक्ष्य को पहचानना होगा। हमें ये जानना होगा कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं उसके पीछे क्या मकसद है ? हम ये सरे काम करके क्या हासिल करना चाहते हैं ? अन्यथा हमारी ज़िंदगी वैसी ही हो जाएगी जैसे कोई बिना गोल के फुटबॉल खेलता हो - सिर्फ भागते रहो, लात मारते रहो पर हासिल कुछ नहीं करना है।
प्यारे साथियों जब हम आज के पाठों पर एक निगाह डालें तो पाएंगे कि प्रभु के वचन का हमारे लिए आज यही सन्देश है। आज का वचन हमें खुद की पहचान करने के लिए आह्वान करता है। पहले पाठ में नबी यशायाह की भविष्यवाणी के बारे में पढ़ते हैं जो प्रभु येसु में पूर्ण होती है। "प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिशेक किया है। उसने मुझे भेजा है कि मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, दुःखियों को ढारस बँधाऊँ; बन्दियों को छुटकारे का और कैदियों को मुक्ति का सन्देश सुनाऊँ; प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ"
संत लूकस 4 :18 में प्रभु येसु लोगों के सामने खुद की पहचान पेश करते हैं और वे अपने जीवन का उद्देश्य भी उनके सामने रखते हैं। प्रभु येसु की पहचान है - ईश्वर द्वारा अभिषिक्त जैसा कि वे आज के सुसमाचार में हैं - "प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिशेक किया है।" संत मत्ती 16:15-16 में हम पढ़ते हैं प्रभु येसु अपने शिष्यों अपनी खुद की पहचान के विषय में पूछते है कि लोग उनके बारे में क्या कहते हैं और फिर अंत में वे शिष्यों की राइ पूछते है - और तुम क्सा कहते हो कि मैं कौन हूँ? और सिमोन पुत्रुस ने उत्तर देता , "आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं"। साइमन पेत्रुस ईश्वर की प्रेरणा से जवाब देता है आप मसीह हैं। मसीह शब्द ग्रीक शब्द क्रिस्टोस से व्युतपन्न होता है जिसका अर्थ होता है अनॉइंटेड या अभिषिक्त जिसका इब्रानी अनुवाद है मैसैअ ह जहाँ से हिंदी अनुवाद मसीह आता है। तो जो पेत्रुस ने येसु की पहचान बताई और जो येसु ने खुद की पहचान बताई दोनों एक ही है और वो है - अभिषिक्त। प्रभु येसु ईश्वर का अभिषिक्त जन हैं। येसु ने इस धरती पर अपना सारा जीवन इस अनुभूति में रह कर जीया कि वह एक अभिषिक्त जन हैं , ईश्वर का आत्मा उन पर छाया रहता है। जब हमें खुद की पहचान होगी तो फिर हमारा सारा जीवन अपनी उस पहचान के अनुरूप हम जियेंगे। पर कई लोग इस दुनिया में खुद की पहचान को समझने ो जानने के बजाय दूसरों में पानी पहचान खोजते हैं या फिर दूसरों की पहचान लो अपनी पहचान बनाने का प्रयाश करते हैं। इस साल ओक्टुबर 10 को कैथोलिक ने एक इटालियन किशोर को धन्य घोषित किया उनका एक उद्धरण मुझे याद आ रहा है। वे कहा करते थे - ईश्वर ने सबों को ओरिजिनल बनाया है, लेकिन कई लोग फोटोकॉपी बनकर जीतें है। मैं ओरिजिनल रहकर ही जीना चाहता हूँ। ईश्वर ने हमें जो बनाया, या जैसा बनाया वैसे न रहकर हम दूसरों की तरह बनना पसंद करते हैं। कोई अभिनेता या अभिनेत्रियों जैसे बनना चाहते हैं तो को किसी खिलाडी जैसे। मुझे ऐश्वर्या जैसा सुन्दर दिखना है, या फिर मेरी हेयर स्टाइल होनेसिंघ जैसी होनी चाहिए, मई सलमान जैसा दिखूं , या मेरी जर्सी का नंबर नेमार की जर्सी का होना है आदि। अरे वो तो उनकी पहचान है भाई, तुम्हारी पहचान क्या है ? अथवा तुम्हारी पहचान कहाँ है ? खुद की काबिलियत को निखारो , खुद को दुनिया के सामने साबित करो। ओरिजिनल रहो, फोटोकॉपी मत बनो।
प्रभु येसु के सामने अपने जीवन का मकसद बिलकुल साफ़ था। आज के पहले पाठ में हमने सुना - "उसने मुझे भेजा है कि मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, दुःखियों को ढारस बँधाऊँ; बन्दियों को छुटकारे का और कैदियों को मुक्ति का सन्देश सुनाऊँ; प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ"
उन्होंने अपने दुनियाई जीवन में इस मकसद को पूरा किया। उन्होंने बिना गोल के मैदान मैं उन दिशाहीन खिलाडियों की तरह जीवन नहीं जीया जो बिना गोल डालने के इरादे से पूरा समय मैदान में दौड़ते हो।
आज के सुसमाचार में अपने जीवन की पहचान व मकसद को बिलकुल स्पष्ट समझने वाले एक और व्यक्ति के बारे में हम पढ़ते हैं और वह व्यक्ति है योहन बपतिस्ता। जिनको लेकर लोगों में काफी ग़लतफ़हमी थी। येरुसलम के कुछ यहूदियों ने याजकों और लेवियों को उनके पास ये पता करने भेजा की वे कौन हैं। उन्होंने उस से पूछा, ‘‘तो क्या? क्या आप एलियस हैं?’’ उसने कहा, ‘‘में एलियस नहीं हूँ’’। ‘‘क्या आप वह नबी हैं?’’ उसने उत्तर दिया, ‘‘नहीं’’।
योहन बपतिस्ता ने खुद को एलियाह या किसी नबी के रूप में नहीं देखा। उन्होंने खुद को किसी फोटोकॉपी मानने से साफ़ इंकार कर दिया। तब उन्होंने पूछा तो फिर वे कौन हैं तो उन्होंने अपनी वास्तविक पहचान बताई - ‘‘मैं हूँ- जैसा कि नबी इसायस ने कहा हैं- निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज़ः प्रभु का मार्ग सीधा करो’’
उनके पहचान यही थी। और उनके जीवन का मकसद यही था। ईश्वर ने उनको इसलिए बनाया था कि वे येसु के आगमन के पहले एक आवाज़ बनकर लोगों को तैयार करे। वे मसीह के लिए मार्ग तैयार करे। योहन ने अपना यह कार्य बखूबी पूरा किया।
आज हम बड़ी गंभीरता से खुद जीवन को टटोलें। पवित्र आत्मा की मदद से खुद के वज़ूद को पहचाने। और यह भी जाने कि ईश्वर ने हमें ये मानव जीवन क्यों दिया है। हम हमारे जीवन के मकसद को पहचाने। अपने जीवन को लेकर ईश्वर की क्या मर्ज़ी है , ईश्वर की क्या योजना है उसे जाने व उसके अनुसार जीवन जियें जैसा प्रभु येसु, यहां बबपतिस्ता, माता मरियम और सब संतों ने किया है। आमीन।
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