Tuesday, 28 February 2017

पवित्र राख बुधवार , 1 March, 2017



जोएल २, १२-१८
२ कुरिन्थियों ५, २०-६ ,२
मत्ती ६, १-६, १६-१८

उपवास के आह्वान के साथ आज हम दुःखभोग काल का आगाज़ कर रहे हैं। आत्मा के  शुद्धिकरण एवं प्रभु तथा एक-दूसरे के साथ मेल-मिलाप करने का यह उपयुक्त समय है। यह अनुग्रह का समय है, आत्माओं के उद्धार का समय है, यह अन्यंत कीमती समय है। इसे हम यूँ ही न जाने दें। आज के दूसरे पाठ में प्रभु हमसे कहते हैं - ‘‘आप को ईष्वर की जो कृपा मिली है, उसे व्यर्थ न जाने दें; क्योंकि वह कहता है - उपयुक्त समय में मैंने तुम्हारी सुनी; कल्याण के दिन मैंने तुम्हारी सहायाता की। और देखिए, अभी उपयुक्त समय है, अभी कल्याण का दिन है’’ (2 कुरिंथियों 6, 2) पाप से विकृत हमारे मानवीय स्वभाव को आज एक सही दिषा की ज़रूरत है। पाप की अज्ञानता में खोए मानव को आज प्रभु की ज्योति की ज़रूरत है। रोम. 3,23 में वचन कहता है - ‘‘क्योंकि सब ने पाप किया और सब ईष्वर की महिमा से वंचित हो गये। ईष्वर की कृपा से सबों को मुफ्त में पापमुक्ति का वरदान मिला है।’’ हममें शायद ही कोई ऐसा होगा जो निष्पाप है, जिसने कभी पाप ही नहीं किया हो। हम सब पापी हैं। और यदि हम यह स्वीकार करते हैं कि हम सब पापी हैं, हम ईष्वर की महिमा से वंचित हैं, अनन्त जीवन हमारे हाथों से फिसलता जा रहा है, हम प्रभु से दूर होते जा रहे हैं, हमारा जीवन अनन्त विनाष की ओर खींचा चला जा रहा है तो अब यह उचित समय है, हमारे उद्धार का समय है। आज हम प्रभु की यह वाणी ध्यान से सुने जिसे हमें प्रभु आज के पहले पाठ के माध्यम से कह रहे हैं - ‘‘अब तुम लोग उपवास करो और रोते तथा शोक मनाते हुए पूरे हृदय से मेरे पास लौट आओ। अपने वस्त्र फाड कर नहीं, बल्कि हृदय से पश्चाताप करो और अपने प्रभु ईष्वर के पास लौट जाओ; क्योंकि वह करूणामय, दयालु, अत्यन्त सहनषील और दयासागर है।’’
चालीसे का यह पवित्र समय हमारे लिए प्रार्थना एवं उपवास करते हुए अपने पापों पर पष्चताप करने का उचित समय है। प्रार्थना और उपवास का क्या संबंध है। उपवास हमारी प्रार्थनाओं को अधिक प्रभावषाली बनाता है। कई बार हमारे जीवन में हम ऐसी परिस्थितियों के दौर से गुजरते हैं जहाँ कुछ चीज़ अथवा कुछ काम कर पाना हमारी शक्ति के परे हो जाता है। हम प्रार्थना करते हैं, दुआयें मांगते हैं, चर्च जाते हैं, फिर भी हमारा काम नहीं होता है। हम हार जाते हैं, टूट जाते हैं। एक बार प्रभु के चेलों के साथ भी ऐसी ही हुआ। संत मारकुस के सुसमाचार 9, 14-29 में हम इस घटना के बारे में पढते हैं जहांँ जहाँ प्रभु येसु अपने रूपान्तरण के बाद अपने षिष्यों के पास लौटते हैं तो उन्हें एक बडी उलझन मंे पाते हैं। एक व्यक्ति अपने बेटे को जो कि अपदूतग्रस्त था उनके पास लाता है और प्रभु के षिष्य लाख कोषिष करने के बाद भी उसे नहीं निकाल पाये। आखिर में उसे प्रभु के पास लाया जाता है और प्रभु उसे चंगाई प्रदान करते हैं। तब षिष्यों ने प्रभु से अपनी असमर्थता का कारण पूछा तो प्रभु ने कहा - ‘‘प्रार्थना और उपवास के सिवा और किसी उपाय से यह जाति नहीं निकाली जा सकती’’ (मार्क 9, 29)। हमारे जीवन में कुछ बुराईयाँ ऐसी होती है, जो जीवनभर पीछा नहीं छोडती। हम हजारों कोषिष करते हैं, पर फिर भी हम उन पापोें अथवा बुराईयों के दास बने रहते हैं। कई ऐसे व्यक्तियों को मैंने देखे है जो विभिन्न प्रकार की बूरी आदतों जैसे नषापान, गाली देना, दूसरों की बुराई करना, वासना के गुलाम बन जाना आदि के ऐसे गुलाम बन जाते हैं कि वे चाह कर भी उनसे मुक्ति एवं छुटकारा नहीं पा सकते। हम मेसे भी कई विभिन्न प्रकार के ऐसे पुराने से पुराने बंधनों से बंधे हुए हैं। बुराईयों ने हमारे ऊपर अधिकार करके रखा है। बुरी आदतें, बुरे विचार हमारे जीवन को चलाती हैं। यदि हम मेसे कोई है जिसे लगता है कि मेरे पापों का, मेरे पापमय स्वभाव का, मेरी बुरी आदत का कोई निदान नहीं हैैं। तो इस चालीसे के समय में उपवास रखकर प्रार्थना करते हुए हम अपनी कमज़ोरियों को प्रभु को समर्पित करें। वह अपने वादे का पक्का है। कोई बंधन ऐसा नहीं जिसे प्रभु येसु नहीं तोड सकते, कोई भी बुरी आदत ऐसी नहीं है जिससे मसीह हमें निजात नहीं दिला सकते। वचन कहता है - ‘‘उसके पुत्र के जीवन द्वारा निष्चय ही हमारा उद्धार होगा‘‘ (रोम 5, 10)। ‘‘वह अपने शरीर में हमारे पापों को क्रूस के काठ पर ले गये, जिससे हम पाप के लिए मृत हो कर धार्मिकता के लिए जीने लगें। आप उनके घावों द्वारा भले चंगे हो गये हैं’‘ (1 पेत्रुस 2, 24) हमारी हर एक कमज़ोरी को, हर एक दुर्बलता प्रभु येसु अपने क्रूस के ऊपर ले जाते हैं और उनके खून बहाये जाने से हमें चंगाई मिलती है, हमें छुटकारा मिलता है। ईष्वर ने हमें अंधकार की अधीनता से निकाल कर अपने प्रिय पुत्र के राज्य में ले आया। उस पुत्र के द्वारा हमारा उद्धार हुआ है, अर्थात् हमें पापों की क्षमा मिलती है।
चालीसा काल प्रभु के पुनरूत्थान के पर्व की तैयारी का समय है। हम इस समय हमारे पापमय मृत्यु के जीवन को त्यागकर प्रभु के साथ एक नवीनता का जीवन प्रारम्भ करने की तैयारी करते हैं। पवित्र कलीसिया इस पवित्र समय में पुण्य कमाने के तीन प्रमुख मार्ग हमें बतलाती है। पहला है - उपवास व त्याग करते हुए अपने किये हुए पापों पर पष्चताप करना व पापमय जीवन को त्यागते हुए प्रभु के करीब आना। दूसरा - प्रार्थना में जीवन बिताना और तीसरा है - दान देना। इन सब पुण्यकर्मों को करने का हमारा उद्देष्य हमारे सामने बिल्कुल साफ होना चाहिए। हमारे धर्म कर्मों की जानकारी सिर्फ मुझे और मेरे प्रभु को हो। हमारा उपवास, हमारी प्रार्थना दूसरों को प्रभावित करने के लिए नहीं लेकिन प्रभु को प्रसन्न करने के लिए होना चाहिए। यदि हम दूसरों को दिखाने के लिए, दूसरों की वाह-वही लूटने के लिए, दूसरों से तारीफ पाने के लिए हमारे धर्म-कर्म करते हैं तो आज का सुसमाचार हमसे कहता है हम हमारे स्वर्गीक पिता के पुरस्कार से वंचित हो जायेंगे। प्रार्थना का उद्देष्य यह नहीं कि मैं धार्मिक कहलाऊँ पर यह कि मैं प्रभु से अपना संबंध जोडूं। दान देने का उद्देष्य यह नहीं कि दूसरे लोग यह मेरी उदारता को जानें पर यह कि मेरे द्वारा किसी गरीब, किसी बेसहारा, किसी पीडित की मदद हो जाये। मेरा धन, मेरी शक्ति व गुण दूसरों के काम आये। मेरे उपवास का मतलब यह नहीं कि लोग मेरी धार्मिकता से वकिफ़ हो जायें पर यह कि मेरी शारीरिक भूख मुझमें अध्यात्मिक भूख जगाये। रोटी की भूख मुझमें प्रभु व उसके वचनों की भूख जगाये। और मेरे उपवास व त्याग से जो कुछ बचता है उससे मैं किसी ज़रूरतमंद की मदद करूंँ। आने वाले इन चालीस दिनों में यदि मैं इन बातों पर ध्यान देता हूँ तो यह पावन समय मेरे लिए बहुत ही अर्थपूर्ण व प्रभु की आषिष व कृपा का एक स्रोत बनकर मेरे जीवन में मसीह के उद्धार व मुक्ति को प्राप्त करने में मेरी सहायाता करेगा।


Saturday, 25 February 2017

सामान्य काल का ८ वा रविवार




इसायाह 49, 14-15
1 कुरिथियों 4, 1-5
मत्ती 6, 24-34
चिंता, डर और ख्याल हर किसी की जिंदगी का एक भाग है। छोटी से छोटी समस्या भी हमें परेशान कर देती हैं। ये हमसे हमारा चैनो-सकून छीन लेती हैं। चिंता हमारे मन में कडवाहट, गुस्सा क्रोध एवं चिडचिडापन लाती हैं और दूसरों के साथ हमारे संबंधों को कमजोर बनाती हैं। लालच एक दूसरी मानवीय कमज़ोरी है, जो हमारे जीवन से खुशियों को नदारद कर देती है। अधिक से अधिक हासिल करने की लालसा इंसान को ऐसी चीज़ों के लिए बांवरा होने को मजबूर कर देती है जो उसके जीवन के लिए वास्तव में उतनी ज़रूरी नहीं होती।

मन में असुरक्षा की भावना उन्हें अपने उस भविष्य के लिए चीजें जमा कर के रखने को मजबूर करती हैं जो अनिश्चिताओं से भरा है। आने वाले पल मेरे साथ क्या होने वाला मैं यह नहीं जानता फिर भी उस पल को संवारने के लिए, उस आने वाले पल और आने वाले कल की खुशियों के लिए, मैं मेरे वर्तमान की खुशियों को कुर्बान कर देता हूँ। जो खुशियाँ, जो सुकून आज मेरी जिंदगी में है, कल मुझे मिले या न मिले पर मैं उस निश्षित कल के लिए वर्तमान में जो सुख, जो शांति, जो तस्सली है उसका भी आनन्द नहीं ले पाता। यह है हमारे जीवन की विडम्बना।

प्रभु कहते हैं खेत के फूलों और आकाश के पक्षियों से सिखो जिन्हें अपने कल की कोई चिंता नहीं, वे अपने वर्तमान को खुल की जीते हैं। प्रभु कहते हैं अपने जीवन की हद से भी ज़्यादा चिंता मत करो, न अपने भोजन की, कि क्या खायें, और न अपने शरीर की कि क्या पहनें।  प्रभु येसु हमारे जीवन की मूलभूत आवश्यक्ताओं से पूरी तरह से वाकिफ़ हैं। कठोर परिश्रम करके अपनी जीविका चलाने का महत्व उन्हें भी पता है। तीस साल तक मरियम और युसूफ के साथ नाज़रेथ में रहते समय उन्होंने भी अपने पालक पिता के साथ पसीना बहाया था और अपनी रोजी रोटी कमाई थी। जब प्रभु हम से कहते हैं - ‘‘चिंता मत करो’’ तो उनका कहने का मतलब यह नहीं है कि हम हमारा काम धंधा करना, मेहनत करना, सब छोड दें और आराम से अपने-अपने घरों में बैठे रहें। और प्रभु स्वर्ग से हमारे लिए रोटियाँ बरसायेंगे। नहीं ऐसा हरगीज नहीं है। प्रभु का वचन साफ़ शब्दों में हम से कहता हैं 2 थेसलनिकियों 3,10-12 में - ‘‘जो काम नहीं करना चाहता, उसे भोजन नहीं दिया जाये। हम ऐसे लोगों से मसीह के नाम पर यह आदेश देतें हैं और उनसे अनुरोध करते हैं कि वे चुपचाप काम करते रहें और अपनी कमाई की रोटी खायें।’’

मैं आप लोग से कुछ सवाल करना चाहता हूँ। आप में से कितने लोग काम करने वाले है? नौकरी या व्यवसाय करते हैं? .................... तो अपनी रोजी रोटी का इंतज़ाम आप करते हैं? आपके पास, या आपके घर में जो कुछ है वो या तो आपका कमाया हुआ है या फिर आपके माता-पिता या पुर्वर्ज़ों की देन है। है ना?

ख्रीस्त में प्यारे भाईयों और बहनों, प्रभु येसु जब हम से कहते हैं कि चिंता मत करो तो अपनी इस शिक्षा के द्वारा वे हमारी इस बहुत बडी गलत फ़हमी को दूर करना चाहते हैं कि हमारे जीवन के लिए ज़रूरी चीज़ें हम खुद जुटाते हैं, बच्चे हम पैदा करते हैं, कोई बिमार होता है तो उसका इलाज हम करवाकर उसे ठीक हम करते हैं, पढाई करके पास हम होते हैं और हम हमारी अपनी योग्यताओं के दम पर नौकरी पाते हैं और हमारे जीवन के लिए कमाई करते हैं आदि। जो कुछ दिखता है और जो वास्तविकता है उसमें बहुत फर्क है। हमारे जीवन की तमाम ज़रूरतों को पूरा करने के पीछे एक अदृष्य शक्ति दिन रात लगी रहती है जिसे देखते नहीं और नज़र अंदाज कर देते हैं।

हम इस वास्तविकता को नकारते हैं कि जो कुछ हमारे पास है वह विधाता ने दिया है और जो कुछ हमें हासिल होने वाला है वह भी विधाता ही हमें देगा। यदि इस सच्चाई को हम स्वीकार कर लेते हैं तो हमारे जीवन में कोई चिंता नहीं रहेगी। हमें चिंता इसलिए होती है कि हम हमारी क्षमताओं, और हमारे पास उपलब्ध साधनों पर भरोसा करते हैं। हमारी क्षमताएं, और योग्यताएं अपरिपक्व व सीमित होती हैं जो अनिष्चितताओं और शंकाओं को जन्म देती हैं। हम जानते हैं कि विभिन्न बिमारियों का ईलाज़ आॅपरेशन से सम्भव है। एक छोटा सा भी आॅपरेशन ही क्यों न हो, और हमारे पास आॅपरेशन के लेटेस्ट साधन और सबसे ज्यादा़ अनुभवी डाॅक्टर ही आॅपरेशन क्यों न कर रहा हो, हमारी चिंता के टावर खडे हो जाते हैं। जब तक आॅपरेशन थिएटर से मरीज़ सकुशल वापस नहीं निकलता हमारे दिल की धडकनें तेज हो जाती है और हमारी सांसें रूक सी जाती है। हमारी चिंता का विषय यह शंका होती है कि आॅपरेशन सफल होगा कि नहीं? डाॅक्टर हमारे परीजन को बचा पायेगा कि नहीं? दवाईयाँ प्रभावशाली साबित होगी या नहीं? इत्यादि। इस दुनिया व दुनिया की किसी भी चीज़ पर भरोसा करना व उस पर निर्भर रहना चिंताओं को जन्म देता है। क्योंकि जैसा कि मैंने कहा वे सीमित व अपरिपक्व है। इसलिए प्रभु येसु हमसे कहते हैं कि हम इस दुनिया की चिज़ों की चिंता करके व्यर्थ में समय व ऊर्जा नष्ट न करें बल्कि निरन्तर ईश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज में लगे रहंे, और ये चीज़ें तुम्हें यों ही मिल जायेगी। हमारा पूरा ध्यान ईश्वर पर व उसके राज्य पर केंद्रित होना चाहिए। चिंता करने से हममें से कोई अपनी आयु घडी भर भी नहीं बढा सकता। व्यर्थ चिंता करने से कोई अपना भाग्य नहीं बदल सकता। हमारे चिंता करने से हमारा ही मन विचलित हो जाता है। अशांति व बचैनी बढती है।

प्रभु कहते हैं हम इंसान ही अपने जीवन के लिए चिंतित रहते हैं। पशु-पक्षी व वनस्पती ऐसा नहीं करते। वे पूरी तरह से प्रभु पर निर्भर रहते हैं। उनके मन में कोई आशंका नहीं होती। स्तोत्र ग्रंथ 8, 6 में प्रभु का वचन कहता है कि प्रभु ने इंसान को सृष्टि के मुकुट के रूप में बनाया है। यानी इंसान ईश्वर की सर्वश्रेष्ट कृति है। यदि ईष्वर इस दुनिया के हर जीव जंतु को सृष्टि के प्रारम्भ से संभालता आ रहा है, वह चिडियों को दाने देता और मरूभुमि में भी वनस्पिति उगाता है, तो फिर इनंसान को जिसे उसने सृष्टि के शीर्ष के रूप में बनाया है वह क्यों नहीं संभालेगा। उसने तो हमारे उद्धार के लिए अपने एकलौते बेटे तक को कृर्बान कर दिया तो फिर वह हमारी दुनियाई ज़रूरतों को पूरा क्यों नहीं करेगा। वह आज हमसे कहता है - ‘‘स्त्री अपना दुधमुहा बच्चा भुला सकती है पर मैं तुम्हें कभी नहीं भुलाऊंगा। मैंने तुम्हें अपनी हथेलियों पर अंकित किया है’’ (इसा 49,16)। जि हाँ, वह हमें कभी नहीं भुलाएगा, उन्होंने अपनी हथेली पर हमारा चेहरा अंकित किया है। जब भी नज़र हथेली पर पडती है वे हमें देखते हैं। हमारे साथ जो कुछ भी घटित होता है उसे वे देखते हैं। वे कहते हैं तुम्हारी चारदीवारी निरन्तर मेरी आंँखों के सामने है। इसलिए हम न डरें, न ही घबरायें, प्रभु पर, सिर्फ प्रभु पर अपना पूरा भरोसा बनाये रखें। वही हमें संभालता है। आमेन।



















Saturday, 18 February 2017

सामान्य काल का 7वां रविवार


लेवी 19, 1-२. 17-18
१ कुरिंथियो 3,16-23
मत्ती 5,38-48

आज का सुसमाचार पाठ बहुत ही चुनौतीपूर्ण शिक्षा हमारे सामने रखता है। प्रभु कहते हैं यदि कोई तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड मारे, तो दूसरा भी उसके सामने कर दो। इस बात को हमें अक्षरशः लेने की ज़रूरत नहीं। कई बार लोग प्रभु की इस शिक्षा का गलत मतलब निकालते व कई बार इस वचन का प्रयोग मज़ाक के तौर पर करते हैं। यहाँ पर बात महज दूसरा गाल दिखाने की नहीं है, प्रभु इससे भी बढकर हमें एक गहरी शिक्षा देना चाहते हैं। प्रभु यहांँ अपनी शिक्षा को एक मुहावरे के रूप में पेश करते हैं। जब कोई आराम से सोता है तो हम कहते हैं मुहावरे वाली भाषा में कहते हैं कि वह घोडे बेच कर सो रहा है। पर वास्तव में वहाँ न कोई घोडे होते हैं और न ही उन्हें कोई बेचता है। वैसे ही जब प्रभु येसु कहते हैं कि एक गाल पर मारने पर दूसरा दिखा दो। तो इसके पीछे उनका आशय यह नहीं कि बेमतलब लोगों की मार खाते रहो। जब प्रभु येसु को अन्नस और कैफस के सामने न्याय के लिए पेश किया गया था तब उनके गाल पर प्यादे ने थप्पड मारा था। याद रहे प्रभु येसु ने वहाँ उन्हें दूसरा गाल नहीं दिखाया। उन्होंने उससे पूछा - ‘‘यदि मैंने गलत कहा, तो मुझे गलती बता दो और यदि ठीक कहा तो मुझे क्यों मारते हो?’’ (योहन 18, 23). प्रभु की इस शिक्षा का अर्थ यह नहीं कि हम हमारे विराधियों द्वारा किये गये हर जुल्म को मुँह बंद किये सहते रहें। जहांँ कहीं भी अन्याय होता है वहाँ हमें उसके विरुद्ध आवाज उठाना चाहिए। हमें हमारा पक्ष रखने का अधिकार है। एक गाल पे मारने पर दूसरा गाल दिखाने का सीधा सा मतलब है कि हमें हमारे विरोधीजन से बदला नहीं लेना चाहिए। बुराई का सामना हमें अच्छाई के साथ करना चाहिए। बुराई के बदले बुराई और अधिक बुराई को जन्म देगी। ईंट के बदले ईंट और ऑंख के बदले आँख, खून खराबा, हिंसा व अशांति ही लाएंगे। प्रभु का वचन कहता है रोमियो 12, 19-20 में - ‘‘बुराई के बदले बुराई नहीं करें।. . .जहांँ तक हो सके सबो के साथ मेल-मिलाप बनाये रखें। प्रिय भाईयों! आप स्वयं बदला न चुकायें, बल्कि उसे ईश्वर के प्रकोप पर छोड दें; क्योंकि लिखा है - प्रतिशोध मेरा अधिकार है, मैं ही बदला चुहाऊँगा।’’ प्रभु हमें मेल-मिलाप व सुलह का रास्ता दिखाते हैं। नकारात्मक भावनाओं और विचारों का तोड नकारत्कता नहीं है। ‘तुम को देख लुँगा’ वाली भावना आपसी रिशते को खत्म कर देती है। जिस दिन हमारे मन में किसी के प्रति ऐसी भावना आती है, उस दिन से हम शैतान को हमारे अंदर निमंत्रण देते हैं। फिर वह हमारे अंदर रहकर हमें हमारी इस सोच को कार्य रूप में परिणित करने के लिए, उकसाता रहता है। यह नकारात्मकता जो एक साधारण गुस्से से प्रारम्भ होकर बैर में तब्दिल हो जाती है, और मन का बैर एक जहर बनकर दुश्मनी को जन्म देता है। प्रभु का वचन कहता है - अपने शत्रुओं से प्रेम करो। जिस तरह सूरज की भीषण गर्मी जल स्रोतों को सुखा देती है वैसे ही मन में बैर की भावना हमारे दिलों से प्रेम को सुखा देती है। इसलिए यदि हमारे भाई बहनों से तू तू-मैं मैं हो जाये, झगडा लडाई हो जाये तो इसकी नकारात्मकता लंबे समय तक हमारे दिलों में नहीं होनी चाहिए। वचन कहता है - ‘‘यदि आप क्रूध हो जाये तो इसके कारण पाप न करें। सूरज डूबने तक अपना क्रोध कायम नहीं रहने दें'' (एफेसियों 4, 26)। हमारी नकारात्मक भावनाओं का सबसे अच्छा उपचार प्यार है। इसीलिए प्रभु हमसे कहते हैं अपने दुष्मनों से प्यार करो। हमारे दुश्मन कौन हैं? चीनी? पाकिस्तानी? ज़रूरी नहीं। हमारे दुष्मन वे सभी हैं जो हमें पसन्द नहीं करते। हमारे दुष्मन वे हैं जो हमें गुस्सा दिलाते हैं। हमारे दुष्मन वे हैं जो हमें चिढाते हैं, दूसरों के सामने हमारी बुराई व निंदा करते हैं, जो हमें गिराने के लिए षडयंत्र रचते हैं, जो हमारी उन्नती को देखकर जलते हैं। प्रभु न कवल ऐसे लोगों से प्रेम करने के लिए बल्कि उनके लिए प्रार्थना करने के लिए भी कहते हैं। प्रभु ने स्वयं यह किया। सूली पर से अपने दुष्मनों को न केवल क्षमा दी पर उनके लिए प्रार्थना की। संत स्टीफन ने जब यहूदियों ने उन्हें पत्थरों से मारा तब मरने से पहले यही कहा - हे प्रभु यह पाप इन पर न लगा। वासना की आग में जलते हुए एलेक्ज़ांन्ड्रो को जब फूलों सी कोमल व नादान मरिया गोरेती ने उसके पाप में भागीदार होने से इनकार किया तो एलेक्ज़न्ड्रो ने उसकी हत्या कर दी। अस्पताल में अंतिम सांसे लेते हुए मरिया गोरेते कह उठती है। मैं उसे माफ करती हूँ। जब सिस्टर रानी मरिया को उनके दुष्मन ने चाकुओं से गोद कर मरवा डाला तो उसकी बहने सि. सेलमी ने हत्यारे के खुनी हाथों पर राखी बांध कर उसे अपना भाई बना लिया। आज कहने को दुनिया मे ईसाईयों की संख्या बहुत है। पर ईसा के अनुयाईयों की संख्या बहुत कम है। महात्मा गांँधी ने इंग्लैंड में रहते हुए ईसाई धर्म का अध्ययन किया। लेकिन वे कभी एक ईसाई नहीं बनें। क्योंकि उन्होंने देखा कि जिन लोगों पर ईसाई होने के लेबल लगे हैं उनमें ईसा की झलक नहीं दिखाई देती थी, ईसा की शिक्षा ईसाईयों के कार्यों में दिखाई नहीं देती थी। वहीं महात्मा गांधी नाम से नहीं परन्तु अपने कार्यों से ईसा के अनुयायी बन गये। उन्होंने प्रभु ईसा की शिक्षा को अपने जीवन में उतारा। उसे अपने जीवन व कार्यों का सिद्धांत बना लिया। एक गाल पर थप्पड मारने पर दूसरा दिखाने का सिद्धांत महात्मा गांधि के अंहिसावाद का पर्याय बन गया। इसीलिए आज दुनिया उन्हें महान अत्मा कह कर उनका सम्मान करती है।
प्रभु की इन शिक्षाओं को सुनना तो बडा अच्छा लगता है। पर इन पर अमल करना, व अपने जीवन में इन्हें उतारना एक मुशकील काम है। क्योंकि हमारा मानवीय स्वभाव तो अपने दुष्मनों से घृणा, अपने भाईयों से प्रेम करना सिखलाता है। दुष्मनों से प्रेम करना तो ईश्वरीय स्वभाव है। और हमें यही ईष्वरीय स्वभाव प्राप्त करना है। इसीलिए प्रभु येसु आज हमसे कहते हैं - अपने पिता जैसे परिपूर्ण बनो। आईये हम आज हमारे मन की सारी कडवाहट को, सारी नकारात्मकता को, दु्शमनी व घृणा के भावों को हमारे दिलों से निकाल दें ताकि प्रभु हमारे दिलों को अपने प्रेम से भर दें। ताकि हम उनकी तरह हमारे दुशमनों व हमारी विरोधियों से भी प्रेम करे सकें। आमेन।




Saturday, 11 February 2017

समान्य काल का 6वां रविवार



ईष्वर ने इंसान की सृष्टि उनके अनंत सुख व आनन्द में भागीदार होने के लिए की थी परन्तु मानव ने आज्ञा भंग द्वारा उस ईष्वरीय उपहार को खो दिया। हमने अपने स्वर्गीय पिता के उस आरामदायक मकान को ठुकरा कर, ऐसे मकान को अपनाया जहांँ पर सारी सुविधायें होने के बाद भी शांँति व सुकून नहीं। हमारे स्वर्गीय पिता ने हमारे भरण-पौषण की सारी व्यवस्था की परन्तु हमारे आदि माता पिता ने उनकी इस व्यवस्था पर भरोसा नहीं किया। उन्हें लगा कि उस भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खाकर वे ईष्वर से भी ज्यादा ताकतवर व ज्ञानवान बन जायेंगे। फिर तो उन्हें किसी बात की चिंता नहीं रहेगी। जो था उससे संतुष्ट नहीं हो कर अधिक की लालच में उन्होंने अनंत जीवन को खो दिया। जीवन के सारे रहस्य जान लेने की जिज्ञासा में उन्होंने अपनी जिंदगी एक अनसुलझी पहेली बना लिया। इंसान की जिंदगी एक ऐसी जटील पहेली बन गई कि कब बात बनती कब बिगड जाती हमें पता ही नहीं चलता। सब कुछ ठीक-ठाक चलते-चलते कब मुसीबतों का पहाड टूट पडता है कुछ पता ही नहीं चलता। एक मजदूर दिन भर कडी धूप, ठंड या बारीष में काम करने के बाद रात को रूखा-सुखा खाकर चैन की नींद सोता है पर अरबों खरोबों के मालीक स्वादिष्ट-स्वादिष्ट भोजन खाकर भी तृप्ती का अहसास नहीं करते। उन्हें न रात में नींद आती है और न दिन में चैन। कुल मिलाकर जीवन में कोई स्थिरता नहीं है। अषांति, दुख, विपत्तियां, पीडायें और कष्ट ये सब पाप का परिणाम है।
परन्तु हम जानते हैं कि जीवन की ये उलझनें कुछ ही समय की हैं। जब तक हम इस संसार में हैं हमें इन सब चीज़ों से रूबरू होना पडता है। परन्तु इसके बाद हमें एक ऐसा जीवन मिलेगा जिसकी हम दुनिया में कल्पाना भी नहीं कर सकते। संत पौलुस आज के पहले पाठ में हमसे कहते हैं - ‘‘मैं उन बातों के विषय में बोलता हूँ जिनके संबंध में धर्मग्रंथ यह कहता है- ‘‘ईष्वर ने अपने भक्तों के लिए जो कुछ तैयार किया है, वह किसी ने कभी देखा नहीं, उसके विषय में किसी ने कभी सुना नहीं और कोई उसकी कल्पना कभी नहीं कर पाया।’’ उस स्वर्गीय आनन्द, खुषी एवं ईष्वर के सामिप्य की, उनके प्रांगण में निवास करने के उस अनुभव की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। कितना महान, व कितना सुखद होगा हमारा प्रभु के साथ अनन्तकाल तक निवास करना!!!
इस अनन्त सुख के भागीदार बनने के लिए ईष्वर हमें जबरदस्ती नहीं करते, जैसा कि उन्होंने आदि माता-पिता के साथ किया। आज के पहले पाठ में प्रभु का वचन हमसे कहता है - ‘‘ईष्वर के प्रति ईमानदार रहना तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है। उसने तुम्हारे सामने अग्नि और जल दोनों रख दिया, हाथ बढाकर कर उन में से एक को चुन लो। मनुष्य के सामने जीवन और मरण दोनों रखे हुए हैं। जिसे मनुष्य चुनता है, उसी वही मिलता जाता है।’’ हमारे सामने सारे विकल्प रखने के बाद प्रेमी पिता हमसे कहते हैं विधिविवरण ग्रंथ 30,19 में - ‘‘मैं तुम्हारे सामने जीवन और मृत्यु, भलाई और बुराई दोनों रख रहा हूँ। तुम लोग जीवन को चुन लो।’’ उन्होंने हमें पूर्ण स्वतंत्रता दी है। पर ये नहीं चाहते कि हम उस स्वतंत्रता का दुरउपयोग कर मृत्यु को चुनें। वे चाहतें हैं कि हम स्वतंत्र रूप से जीवन को चुनें, उस अनन्त जीवन को जिसे हमें दिलाने के लिए हमारे मुक्तिदाता प्रभु येसु इस संसार में आये हैं। आज के सुसमाचार में प्रभु येसु पर्वत प्रवचन में अपने दिव्य वचनों द्वारा उस अनन्त जीवन को प्राप्त करने का मार्ग हमें बतलाते हैं। जैसा कि संत पेत्रुस कहते हैं - ‘‘प्रभु हम किसके पास जायें! आपके की शब्दों में अनन्त जीवन का संदेष है।’’ योहन 6, 68। प्रभु कहते हैं यदि हम स्वर्ग में प्रवेष पाना चाहते हैं तो हमें न केवल अपने भाई-बहनों की हत्या करने से बचना चाहिए परन्तु उनसे बैर घृणा एवं क्रोध करने से भी बचना चाहिए। किसी की हत्या करना जितना गंभीर पाप है, उतना ही गंभीर होता है उनसे क्रोध करना। प्रभु कहते हैं जो सजा हत्यारे को दी जानी चाहिए वही क्रोधी व्यक्ति को भी मिलनी चाहिए। प्रभु हमें अपने भाई बहनों के प्रति प्रेम, क्षमा व एकता बनाये रखने को कहते हैं। जब हम प्रभु की वेदी के पास आते हैं तो अपने भाई-बहनों से किसी प्रकार की कोई षिकायत हमारे अंदर नहीं होनी चाहिए। प्रभु के सम्मुख हमें शुद्ध हृदय लेकर आना चाहिए। मलीन हृदय के साथ चढाई गई भेंट प्रभु को प्रिय नहीं। याद रहे प्रभु ने काईन की भेंट के साथ क्या किया था। जो पाप बाहरी रूप से दिखता है उससे अधिक गंभीर हमारे अंदर के पाप होते हैं। हमारे बूरे विचार हमारे बूरे कर्मों से ज्यादा घातक होते हैं। बूरे कर्म तो बूरे विचारों का प्रकट रूप मात्र है। यदि हम हमारे बूरे विचारों के ऊपर नियंत्रण रख लेते हैं तो हमारे कर्म स्वतः ही अच्छे हो जायेंगे। इसलिए प्रभु कहते हैं कि यदि तुम किसी स्त्री को बुरी निगाह से देखते हो तो तुमने अपने मन में उसके साथ व्यभिचार कर लिया है। प्रभु कहते हैं ऐसी सभी चिजें जो हमें पाप की और खींच ले जाती है, हमें उन्हें त्याग देना, उनके होते हुए नरक में जाने से बेहतर है। आज प्रभु के वचनों को यदि हम हमारे आज की दुनिया से जोडकर देखें तो प्रभु हमसे यही कहेंगे - यदि तुम्हारा मोबाइल तुम्हारे लिए पाप का कारण बनता है तो उसे अपने से दूर रखो, यदि तुम्हारा कम्प्युटर तुम्हें पाप कराता है तो उसे त्याग दो। यदि तुम्हारे दोस्त तुम्हें पाप कराते हैं, तो उन्हें छोड दो। इन सब के साथ नरक में जाने से बेहतर है हम इनके बिना स्वर्ग में जायें।
आज हम पवित्र बालकपन का पर्व मना रहे हैं। आजकल के बच्चों को सही षिक्षा देना हर माता-पिता, षिक्षक-षिक्षिकाओं एवं सब जिम्मेदार लोगों का फर्ज है। उन्हें क्या सही है क्या गलत, कौन सी बातें व कौन सी चिजें उनके लिए लाभदायक हैं और किन चिजों से उन्हें दूर रहना चाहिए ये सब हम ही उन्हें बता सकते हैं। यदि आज हम बच्चों की नींव पवित्रता के ऊपर रखेंगे तो कल हमें एक ऐसा भविष्य मिलेगा जो ईष्वर के राज्य के मुल्यों पर आधारित होगा। जहाँ शैतान के कार्यों का दमन होगा और हमारी संतानें इस दुनिया में प्रभु के नाम व उसके सुसमाचार की एक मिसाल बनकर इस जग में उसके नाम की महिमा को प्रदर्षित करेंगी। आमेन।


Saturday, 4 February 2017

सामान्य काल का 5वां रविवार, 5 फरवरी, 2017

इसायाह 5,7-10
1 कोरिंथियो 2, 1-5
मत्ती 5,13-16
क्या आपने कभी अपने आप से पूछा है कि मैं ईसाई क्यों हूँ? क्या सिर्फ इसलिए कि मैं एक ईसाई परिवार में पैदा हुआ/हुई? क्या यह एक संयोग मात्र है? प्रभु येसु के अनुयायी बनना कोई संयोग नहीं, एक बुलावा है। कई बार जो लोग ईसाई धर्म अपनाते हैं वे यह घोषणा करते हैं कि मैं बिना किसी दबाव के, अपनी पूरी मर्ज़ी व स्वेच्छा से इस धर्म को अपना रहा हूँ। कानूनी तौर पर यह कहना उचित है। परन्तु यह घोषणा वास्तविकता से काफी दूर होती है। कोई भी अपनी मर्ज़ी से ईसा का अनुयायी नहीं बन सकता। प्रभु हमें बुलाता है, हमें वो ही चुनता है। संत योहन 15, 16 में प्रभु कहते हैं - ‘‘तुमने मुझे नहीं चुना, बल्कि मैं ने तुम्हें चुना और नियुक्त किया है, कि तुम जा कर फल उत्पन्न करो।’’ और योहन 6,44 में प्रभु कहते हें - ‘‘कोई मेरे पास तब तक नहीं आ सकता, जब तक कि पिता, जिसने मुझे भेजा, उसे आकर्षित नहीं करता।’’ हमारा ख्रीस्तीय होने का बुलावा कोई आज या कल की बात नहीं है। वचन कहता है रोमियो 8,30 में - ‘‘उसने जिन्हें पहले से निश्चित किया, उन्हें बुलाया भी है।’’ हमारा बुलावा पहले से ही निश्चित किया गया है। हाँ उसने हमें संसार की सृष्टि से पहले से ही चुन लिया है - एफेसियों 1, 4.
इन सब से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि मेरा ईसाई होना कोई संयोग अथवा कोई इत्तफाक नहीं है। मैं सदियों पहली बनाई एक योजना के मुताबिक चुना गया हूँ। मुझे ईश्वर ने अपना अनुयायी चुन कर अलग कर लिया है। सारे ब्रह्माण्ड को बनाने व उसे चलाने वाले ईशवर ने मुझे इस जीवन के लिए चुना है। पूरे विश्व का मास्टर प्लान बनाने वाले इश्वर ने यदि मुझे चुना है तो इसके पीछे कोई न कोई उद्देष्य रहा होगा। उसने युँ ही मुझे नहीं चुना होगा! इन दिनों देश के कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। लोग अपना प्रतिनिधी चुनेंगे। अपने प्रतिनिधी का चुनाव करते समय लोगों के मन में कोई मकसद होता है, कई उम्मिदें रहती हैं, कई अभिलाषायें रहती हैं। जब प्रभु ने हमें अपना बनने के लिए चुना तो हमको लेकर उनके हृदय में भी कई उम्मिदें थीं, किसी विषेश मकसद को लेकर हमें चुना गया था। पर इस दुनिया की भीड में, दुनिया के मेले में, दुनिया की चकाचौंध में, दुनिया के आकर्षण में  हम उस मकसद को हमारी नज़रों से दूर कर देते हैं। आज प्रभु हमारे प्रति जो उम्मीद व आशा करते हैं उसे फिर से हमारे सामने रखते हैं। आज वे हमें याद दिलाते हैं कि उसने हमें क्यों बुलाया है, क्यों चुना है इस दुनिया की भीड मेंसे। आज प्रभु हमसे कहते हैं - ‘‘तुम पृथ्वी के नमक हो। यदि नमक फ़ीका पड जाये तो वह किस से नमकीन किया जायेगा? वह किसी काम का नहीं रह जाता। वह बाहर फैंका और पैरों तले रौदा जाता है। ?’’ यदि हमारे ख्रीस्तीय जीवन में ख्रिस्तीयता नहीं है, हमारे जीवन में ईसाईयत का नमक नही तो हम बेकार हैं। यदि हमें देखकर, औरों को ये न लगे कि हम येसु के अनुयायी हैं। तो फिर हमारा ईसाई होना व्यर्थ है। प्रभु कहते हैं तुम संसार की ज्योति हो। तुम्हारी ज्योति मनुष्यों के सामने चमकती रहे, जिससे वे तुम्हारे भले कार्यों को देखकर तुम्हारे स्वर्गीक पिता की महिमा करें। सुसमाचारीय सदगुण हमारे आचरण में, हमारी बोल-चाल में सदैव झलकना चाहिए। हम जहांँ कहीं भी रहें, जो कुछ भी करें, हमारा जीवन एक दीपक की तरह दमकते रहना चाहिए। हम जानते हैं कि यह संसार विभिन्न प्रकार की बुराईयों एवं पाप के अंधकार से भरा हुआ है। हम उस अंधकार के भागीदार न बनें। वचन कहता है - ‘‘भाईयों और बहनों आप तो अंधकार में नहीं है. . . आप सब ज्योति की संतान हैं’’ (1थेसलनिकियों 5, 4)।  यदि हम वास्तव में ज्योति की संतानें हैं यदि हमें प्रभु ने एक ज्योति बनाकर इस संसार में भेजा है, तो फिर हमारा आचरण वास्तव में एक जलते दीपक समान होना चाहिए। अंधकार में कहीं पर भी यदि एक दीपक जल रहा हो तो वह दिखेगा ज़रूर। यदि हम प्रभु के वचनों के मुताबिक जीवन जियेंगे तो लाखों की भीड में भी हमारी अलग पहचान होगी। प्रभु कहते हैं - ‘‘तुम एक दूसरे को प्यार करो। जिस प्रकार मैं ने तुम लोगों को प्यार किया। यदि तुम एक दूसरे को प्यार करोगे, तो उसी से सब लोग जान जायेंगे कि तुम मेरे शिष्य हो’’ (योहन 13, 34)। कुछ साल पहले डिसाइपलशिप ट्रेनिंग करके एक वर्कशोप था उसमें भाग लेने का मौका मिला। उसमें हमें एक दिन इंदौर शहर में कहीं भी जाकर किसी न किसी ज़रूरतमंद व्यक्ति की मदद करके शाम को वापस जाकर अपने अनुभव सबों के साथ साझा करना था। एम वाई हॉस्पिटल के सामने एक बुजूर्ग व्यक्ति की मदद करते समय किसी ने हम से पूछा आप लोग ईसाई हो क्या? हमने कहा - हांँ, पर आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं? तो उसने उत्तर दिया वे ही ऐसा काम कर सकते हैं। जि हाँ ख्रीास्त में प्यारे भाईयों और बहनों, यदि हम इस दुनिया में ज्योति बनकर जियेंगे तो हमारे कार्यों को देखकर ही लोग हमें पहलचान जायेंगे कि हम ख्रीस्त के अनुयायी हैं। हमें किसी को हमारा बपतिस्मा सर्टिफिकेट दिखाने की ज़रूरत नहीं। हमारे कार्य हमारी और से गवाही देंगे। हर रविवार को मिस्सा में आना मात्र हमें ईसा के अनुयाई नहीं बनाता। उस मिस्सा बलिदान में जो होता है उसे हमारे रोज़ के कार्यों में परिणित करना, हमें वास्तविक ईसाई बनाता है। हर मिस्सा बलिदान में प्रभु येसु अपने आपको तोडकर हमें देते हुए कहते हैं - यह मेरा शरीर है, तुम सब इसे लो और खाओ। इसके द्वारा वे हमें सिखलाते हैं कि हमें भी औरों के लिए अपने शरीर को तोडना है। दूसरों की भलाई के लिए हमारी सुख सुविधावों मेंसे थोडा त्याग कर हमें दूसरों को देना चाहिए, जिस प्रकार से प्रभु अपना सर्वस्व हमारे लिए अर्पित करते हैं। आज के पाठ में प्रभु हमसे कहते हैं - ‘‘अपनी रोटी भूखों के साथ खाओ, बेघर दरिद्रों को अपने यहांँ ठहराओ। जो नंगा है, उसे कपडे पहनाओ और अपने भाई-बहनों से मुख मत मोडो। तब तुम्हारी ज्योति उषा की तरह फूट निकलेगी।’’ हम मेंसे कितने लोग हैं जो वास्तव में भूख लगने पर ही खाना खाते हैं। हमें समय-समय पर खाना मिल जाता है और शायद आवश्यक्ता से भी अधिक मिलता है। पर इस दुनिया में कई लोग हैं जिन्हें भूख लगने पर भी खाना नसीब नहीं होता। ऐसा ही कोई अभागा बच्चा किसी दिन  डॉक्टर के पास जाकर उनसे एक सवाल करता है जिसे सुनकर डॉक्टर की भी आंँखें भर आती है।  वह पुछता है - ’’ऐसी कोई दवाई है, डॉक्टर साहब, जिस से भूख ही न लगे।?’’ किस परिस्थिति व मज़बूरी में यह सवाल किया होगा उसने वही जानता है। भूख की ज्वाला भयानक होती है। आज के पहले पाठ में प्रभु हमें हमारे पास जो कुछ है उसे जिनके पास वास्तव में नहीं है उनके साथ बांँटने का आह्वान कर रहे हैं। क्योंकि देने में जो सुख है वह अपने पास जमा करके रखने में कभी नहीं मिलता, उससे तो बेचैनी और अशांँति ही बढती है। यहांँ देने से मतलब सिर्फ रूपये पैसे दान करने से नहीं है, पर जो कुछ भी हमारे पास है - हमारा समय, हमारा धन, हमारी प्रतिभा, हमारा ज्ञान, हमारी क्षमताऐं, हमारा प्यार, हमारे संसाधन, हमारी गाडी, और हमारा भोजन, और सबसे उत्तम हमारा जीवन। ये सब हम दूसरों के साथ बांटना सिखें। तब हम गर्व के साथ कह सकेंगें कि हम प्रभु येसु के शिष्य हैं। हम उनके दिखाए मार्ग पर चलते हैं। तब हमारी उपस्थिति से ये अंधकारमय संसार जगमगा उठेगा और हम ख्रीास्त की ज्योति के राजदूत बनकर शैतान के अंधकारमय कार्यों को समाप्त कर देंगे। आमेन।