मत्ती 20:24-27
दाखखबारी में मज़दूरों
को काम
देने वाले
मालिक
के
दृष्टांत में
हम देखते
हैं कि
वह करीबन
शाम के
समय काम
पर लगे
लोगों के
प्रति उदारता
दिखता है
और उन्हें
भी उन
लोगों के
बराबर ही मज़दूरी देता
है जो
सुबह से
काम कर
रहे थे। इस पर जो
पहले आये
थे वे
इसपर आपत्ति
उठाते हैं।
उन्हें मालिक
की उदारता
अन्यायपूर्ण लगती हैं।
यह दृष्टांत मुझे ऊडाऊ पुत्र के दृष्टांत की याद दिलाता है, जहाँ पर पिता अपने छोटे वाले बेटे के प्रति बड़ी दया व उदारता दिखता है। तब बड़े बेटे को इस पर आपत्ति होती है। इन दृष्टांतों में पहले आये मज़दूर और बड़ा बेटा दोनों धर्मी लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, और बाद में आये मज़दूर तथा छोटा बेटा पापियों का। दोनों ही दृष्टांतो में पापियों के प्रति मालिक या पिताजी बहुत ही उदारता दिखाते हैं। ऐसी उदारता जिसके वे वास्तव में हकदार नहीं हैं। उन्हें जो मिलना चाहिए था उससे अधिक उन्हें दिया जाता है। उड़ाऊ बेटा यह सोचकर वापस जाता है कि उसका पिता उसे एक नौकर की तरह रख लें। पर पिता ने उसे अपना पुत्रत्व लौटाया, उसका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया जिसकी उसने उम्मीद ही नहीं की थी। और वे मज़दूर शाम तक चौक पर इसलिए नहीं खड़े थे कि कोई उन्हें पूरी मज़दूरी देकर काम पर लगाए। पर उन्हें भी उनकी उम्मीद से कहीं ज़्यादा ही वेतन मिल जाता है।
और दोनों ही दृष्टांतों में पहला बेटा और पहले आये मज़दूर जो कि धर्मियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, स्वामी की उदारता पर जलते हैं। वे लोग लोग ईश्वर से उनके सत्कर्मों के लिए पापियों से बड़े ईनाम की मांग करते हैं। उन्हें पापियों के प्रति ईश्वर की उदारता रास नहीं आयी। ऐसा ही एक वाकया हम नबी योना के ग्रन्थ 4:1-2 में पढ़ते हैं, ईश्वर द्वारा निनिवे के लोगों को माफ़ करने पर योना ईश्वर पर क्रुद्ध हो जाता है। इन सब किस्सों में हम देखते हैं कि धर्मी लोगों को पापियों का सुधार हज़म नहीं होता।
आइये हम विचार करें - क्या ये आज की कलीसिया में नहीं देखा जाता ? क्या पुराने ख्रीस्तीय नए विश्वासियों की उन्नति व उनके जीवन में ईश्वर की आशीष व अनुग्रह की वृद्धि को हजम कर पाते हैं? वे लोग जो खुद को धार्मिक मानते हैं, नियमित चर्च जाते हैं, अपने घरों में भी प्रार्थना करते हैं, उनका नज़रिया उन लोगों के प्रति कैसा रहता है, जिनका अतीत पापमय रहा हो और वे धार्मिकता से दूर रहे हों; क्या वे ईश्वर की निगाह में खुद को उन लोगों की ही बराबरी में देखना पसंद करेंगे ?
क्या हम भी उन मज़दूरों वाली मानसिकता रखते हैं, जिह्नोने दिनभर काम किया और अंत में आने वाले मज़दूरों से से अधिक वेतन पाने की उम्मीद करते हैं? क्या मैं यह सोचता हूँ की मेरे धार्मिकता अधिक है, इसलिए मुझे ज़्यादा अनुग्रह मिलना चाहिए, तथा जब मैं देखता हूँ कि मुझसे कम धार्मिक कोई व्यक्ति ज्यादा आशीष पाता है तो मेरे मन में क्या भाव आते हैं ? क्या मैं सोचता हूँ मेरे साथ सही नहीं हो रहा है। मैं जिसका हकदार था ओह मुझे नहीं मिला, मेरे काम के अनुसार मुझे थोड़ा ज़्यादा मिलना चाहिए था आदि ।
प्यारे विश्वासियों, यदि ईश्वर हमारे साथ न्याय करने लगे और हमें वही दे जिसके हम वास्तव में हक़दार हैं अथवा हम जिसके लायक हैं तो बताओ हमें क्या मिलना चाहिए ?
गिन लो अपने सारे कामों को जो आपने बचपन आज तक आपने किये, लगा लो हिसाब हर उस बात का जो आपके मुख से निकली, जोड़ लो हिसाब उन विचारों का जो आपके मन में अब तक आये, और फिर बताना कि आप कितने बड़े पुरस्कार के हकदार हो ? आपकी ज़िन्दगी भर के हर बात - काम का क्या वेतन आपको क्या मिलना चाहिए ? हम पूछें खुद से - यदि मेरे कार्यों के अनुसार प्रभु दे तो मैं किस पुरस्कार का हकदार हूँ!
अगर ईश्वर हमारे माप दंड से न्याय करने लगे, यदि वो हम मनुष्यों की तरह न्याय करे तो ज़रा विचार कीजिये आपका और मेरा क्या होगा ? यदि हमने पाप किया है तो वचन कहता है रोमियों 6:23 में कि पाप का वेतन तो मृत्यु है !!!
यहाँ पर हम ईश्वर के राज्य के मापदंड और दुनिया के मापदंड के बीच एक सपष्ट अंतर पाते हैं।दुनिया की धारणा यह है कि केवल धर्मी ही ईश्वर के प्यार के हकदार हैं, पर बाइबिल का ईश्वर यह स्पष्ट करता है कि उनकी रूचि पापियों में अधिक है। वे कहते हैं - "मैं धर्मियों को नहीं, पापियों को पश्चाताप के लिए बुलाने आया हूँ।" (लूकस 5:32)
जैसा हम सोचते हैं ईश्वर नहीं सोचता। आज के पहले पाठ में जिसे हमने नबी इसायाह 55 से लिया है प्रभु कहते हैं - "तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं हैं और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं हैं। जिस तरह आकश पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचा है, उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊँचे हैं।"
उसके न्याय का तरीका बिलकुल अलग है। उसका न्याय दया व करुणा से भरा हुआ है। उसके न्यायालय में दया की जाती है दंड नहीं दिया जाता। वो मरने और नष्ट करने में नहीं पर बचने में ज़्यादा रूचि रखता है। संत योहन 3:17 में वचन कहता है - "ईश्वर ने अपने पुत्र को संसार में इसलिए नहीं भेजा कि वह संसार को दोषी ठहराये। उसने उसे इसलिए भेजा कि संसार उसके द्वारा मुक्ति प्राप्त करे।"
हम पर इतनी दया और करुणा दिखने वाला ईश्वर हमारी ज़िन्दगी की शाम होने तक हमारे लौटने का इंतज़ार करता है, जैसे वह स्वामी शाम के समय तक मज़दूरों का इंतज़ार करता है, और हम सब को वही पुरस्कार देने को तैयार है जिसे उन्होंने सब संतगणों को दिया है। हम बिना वक्तगंवाए हमारे जीवन की शाम ढलने के पहले हमारे प्रभु के पास लौट आएं और उनकी उदारता से मुक्ति का उपहार प्राप्त करें क्योंकि ज़िन्दगी की रात ढलने के बाद पश्चाताप का मौका नहीं मिलने वाला।
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