फिल. 2:1-11
मत्ती 21 :21-32
कई मामलों में हमारे कार्य हमारे शब्दों से मेल नहीं खाते हैं। कई बार हमारे यस का आशय नो और नो का आशय यस होता है। आज के सुसमाचार में जो कि दो बेटों के दृष्टांत पर केंद्रित है, यही दिखाया गया है । पहला बेटा, अपने पिता के काम को मना कर देता है, लेकिन बाद में वह इसे करने जाता है। दूसरा बेटा तुरंत 'हाँ' कहता है, लेकिन वास्तव में पिता कहे अनुसार नहीं करता है।
पहले बेटे ने पहली नज़र में अहंकार और अवज्ञा दिखाई।उसने कभी अपने पिता को अपना वचन नहीं दिया, कि वो काम करेगा। लेकिन बाद में,मनन- चिंतन करने पर जब उसे अपनी गलती का एहसास होता है तो वः अपने पिता का दिया हुआ काम पूरा करके दिखता है। उसने बेहतरी के लिए खुद के मन को बदला, वह एक परिवर्तन के दौर से गुजरता है।उसका "नहीं" एक "हां" में बदल जाता है । प्रभु येसु ने इस पहले बेटे की तुलना नाकेदारों और वेश्याओं से की जाती है, जो धर्मी होने का दावा करने वालों से पहले ईश्वर के राज्य में प्रवेश कर रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने अपने पाप और अधर्म को स्वीकार किया, योहन बपतिस्ता के पश्चाताप के आह्वान को स्वीकार किया और अपने दिलों को बदल दिया।
दूसरा बेटा जो अपने पिता की बात माने बिना हाँ कहने के लिए तत्पर था, वह फरीसियों, पुरोहितों और शास्त्रियों के समान है। वे खुद को एक विशिष्ट स्थान पर देखते और यह मानते थे कि वे ईश्वर द्वारा चुने गए हैं, और जो वास्तव में पिता की आज्ञा का पालन करते हैं। पर वास्तविकता इससे कौसों दूर थी , सच्चे अर्थों में, स्वर्गीय पिता की आज्ञा का पालन उन्होंने नहीं किया है, बल्कि नाकेदारों और वेश्याओं ने किया! ये लोग उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्होंने केवल शब्दों में "हां" कहा और वहीं समाप्त हो गए! उन्होंने कभी ईश्वर की इच्छा पूरी नहीं की।
यहां पर दो बातें गौरतलब है 1- हम बाहरी रूप से जो दिखाते हैं, जो काम करते हैं, ईश्वर के लिए वह ज़्यादा मायने नहीं रखता। लेकिन उस कार्य के पीछे का मेरा उद्देश्य , उस कार्य को लेकर मेरे मन में क्या चल रहा है ये ज़्यादा मायने रखते है। क्योंकि बहरी ओर से अच्छा जान पड़ने वाला हर काम अच्छा नहीं होता; उसके पीछे का उद्देश्य अच्छा नहीं होता। और बाहरी तौर पर अच्छे काम करने वाले की छवि रखने वाले सब के सब अच्छे नहीं होते ; अच्छे काम के पीछे उनके उद्देश्य खोटे हैं। आज के सुसमाचार में येसु बड़े बेटे की तारीफ महज इसलिए नहीं करते की उसने काम किया, पर वे उसके मनोभाव की तारीफ करते हैं, वे उसके मन के काम से प्रसन्न हुए कि उसने अपना मन बदला।
2: दूसरा बिंदु इसी से जुड़ा हुआ है और वह है पश्चाताप। सुसमाचार यूनानी भाषा में लिखे गए हैं , जिसमें पश्चाताप के लिए मेटनोइया शब्द का इस्तेमाल किया है। जिसका अर्थ होता है एक गहरा पश्चाताप तथा आधारभूत मन परिवर्तन अथवा मन का पूर्ण परिवर्तन। यातायात की भाषा में बोले तो एक complete u turn. याने पूरी तरह से वापस मुड़कर उस और जाना जहाँ से आये थे। बड़ा बेटा जब पिता की आज्ञा का उल्लंघन करता है तो वह पिता की राह छोड़कर अपनी राह पकड़ लेता है। पर जब उसको अपनी इस गलती का एहसास होता है तो वह मुड़कर वापस आता है। उड़ाऊ पुत्र के दृष्टांत में भी हम यही देखते हैं छोटा बेटा अपनी राहों पर चला जाता है लेकिन होश में आने पर वह पश्चाताप करता है और लौटकर अपने पिता के पास आ जाता है। पश्चाताप का सही अर्थ यही है हम जिधर भी जा रहे हों; अपने जीवन की गाडी की स्टीयरिंग घुमाकर अपने पिता के घर तरफ लौट आना।
एक तरह से दोनों बेटे अपने आप में असिद्ध हैं! अथवा अपरिपूर्ण है। कल्पना कीजिए कि आप अपने बेटे को कुछ करने के लिए कह रहे हैं, और वह मेहमानों और दोस्तों के सामने वह स्पष्ट रूप से कह दे कि मैं नहीं करूँगा! यह एक शर्मनाक स्थिति होगी। आपके मित्र आपको एक बहुत ही कमज़ोर व्यक्ति के रूप में देखेंगे, जो आपके बेटे को अच्छे व्यवहार सिखाने में असमर्थ हैं, जो आपकी बात का खंडन कर सकता है। यहां तक कि अगर यह बेटा बाद में काम पर जाता है, तो यह इस तथ्य को नहीं बदलेगा कि उसने पहले अवज्ञा की थी। हालांकि दुनिया की निगाह में तो हमारी कोई भी गलती माफ़ तो कर दी जाती है पर उसे भुलाया नहीं जाता। परन्तु जब एक पापी अपने पशचातापी हृदय को लेकर ईश्वर के पास आता है तो ईश्वर न केवल उसे क्षमा करता है पर वह उसके पापों को भुला देता है, मिटा देता है। हम नबी इसायाह 43:25 में पढ़ते हैं - “मैं वही हूँ, जो अपने नाम के कारण तुम्हारे सब अपराध धो डालता है। मैं तुम्हारे पाप फिर याद नहीं करता। और यशायाह 1:18 में - , तुम्हारे पाप सिंदूर की तरह लाल क्यों न हों, वे हिम की तरह उज्जवल हो जायेंगे; वे किरमिज की तरह मटमैले क्यों न हों, वे ऊन की तरह श्वेत हो जायेंगे।
आज का पहला पाठ जो की नबी एजेकिएल के ग्रन्थ १८:२५-२८ से लिया गया है भी इसी बात को हमारे सामने रखता है - "यदि कोई पापी अपना पापमय जीवन त्याग कर धार्मिकता और न्याय के पथ पर चलने लगता है, तो वह अपने जीवन को सुरक्षित रखेगा। यदि उसने अपने पुराने पापों को छोड़ देने का निश्चय किया है, तो वह अवश्य जीवित रहेगा, मरेगा नहीं।"
हम आज के सुसमाचार में खुद को कहाँ पाते हैं। हम हमारी पहचान किसके साथ कर सकते हैं। बड़े बेटे के साथ या फिर छोटे बेटे के साथ। शास्त्रियों और फरीसियों साथ या फिर वैश्याओं और नाकेदारों के साथ।
आइये खुद के भीतर झांक के देखें क्या हम वे लोग नहीं है जो ईश्वर की बातों को हमेशा हाँ कहते रहते हैं। ईश्वर की वाणी पर चलने की हामी भरते हैं। धार्मिकता लिए हाँ कहते हैं। ........
पर हम करते नहीं। हम फरीसियों और शास्त्रिओं वाली मानसिकता रखते हैं। दुनियां के सामने तो खुद को ईश्वर को हाँ कहने वाला दिखाते हैं ईश्वर की आज्ञा मानाने वाला दिखाते हैं पर, उस हाँ को कर्यों में परिणित नहीं होने देते जैसे कि माता मरियम ने किया। उन्होंने हाँ भी कहा और उस हाँ को अपने जीवन में पूरा भी किया। आज के दूसरे पाठ में संत पौलुस हमें सच्चे बेटे की झलक दिखलाते हैं और वह सच्चा बेटा और कोई नहीं प्रभु येसु स्वयं है - "उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने के बाद मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन बना लिया।"
जी हाँ, प्रभु यीशु , हमें एक आदर्श पुत्र का उदाहरण देता है। पिता द्वारा भेजे जाने पर उन्होंने हाँ कहा; उन्होंने न केवल अपने शब्द से, बल्कि अपने कार्यों के द्वारा हां कहा।
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