Friday, 10 July 2020

वर्ष का पंद्रहवाँ इतवार 15th Sunday in Ordinary Time Cycle A 12 July 2020

वर्ष का पंद्रहवाँ इतवार

इसायाह 55:10.11
रोमियों 8:18.23
मत्ती 13:1—23

आज के पहले पाठ में नबी इसायाह के वचन के सामर्थ्य के बारे में बतलाते हुए कहते हैं - ''जिस तरह पानी और बर्फ आकाश से उतर कर भूमि सींचे बिना, उसे उपजाउ बनाये और हरियाली से ढंके बिना वहाॅं नहीं लौटते, जिससे भूमि बीज बोने वाले को बीज और खाने वाले को अनाज दे सके, उसी तरह मेरी वाणी मेरे मुख से निकल कर व्यर्थ ही मेरे पास नहीं लौटती। मैं जो चाहता था, वह उसे कर देती है और मेरा उद्देष्य पूरा करने के बाद ही वह मेरे पास लौट आती है।''
और आज के सुसमाचार में प्रभु येसु बोने वाले के दृष्टाॅंत के माचध्यम से हमें ईश्वर के उस वचन को स्वीकार करने वाले अलग-अलग प्रकार के लोगों के बारे में शिक्षा देते हैं। 
आज हम ईश्वर के वचन के ऊपर मनन चिंतन करेंगे। 

ईश्वर का वचन क्या है? ईश्वर का वचन कहाॅं मिलता है? यदि संसार की सारी बाइबलें जला दी जाये तो क्या होगा? ईश्वर का वचन समाप्त हो जायेगा?
1 पेत्रुस 1ः24-25 में लिखा है - ‘‘समस्त शरीरधारी घास के सदृष हैं और उनका सौंदर्य घास के फूलों की तरह है, घास मुरझाती है और फूल झडता है, किंतु ईश्वर का वचन युग-युगों तक बना रहता है।’’ 
हमारा साधारण अनुभव हमें यह बताता है कि इस दुनिया में सब कुछ नष्ट होने वाला है, खत्म होने वाला है। इंसान से लेकर जानवर तक और जानवर से लेकर पेड-पौधों तक सब कुछ आज हैं और कल नहीं रहेंगे, पर ईश्वर का वचन, ईश्वर का वचन हमेशा—हमेशा के लिए रहेगा। क्यों? ......
इस सवाल का जवाब पाने के लिए हमें पवित्र बाइबल को ही टटोल कर देखना होगा कि ईश्वर का वचन है क्या? 
संत योहन हमें बताते हैं - आदि में वचन था, वचन ईश्वर के साथ था और वचन ईश्वर था। वह आदि में ईश्वर  के साथ विद्यमान था। उसके द्वारा सब कुछ उत्पन्न हुआ और उसके बिना कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ। उसमें जीवन था। 
वचन जो है, वह प्रारम्भ से ही था। दुनिया की सुष्टि के पहले वचन ईश्वर के साथ था। और यह वचन स्वयं ईश्वर था। तो अब बोलो वचन क्या है? - वचन स्वयं ईश्वर ही है। इसी वचन के द्वारा ईश्वर ने सब कुछ की सृष्टि की। इस वचन के बिना कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ। 
उत्पत्ति ग्रंथ 1में हम पढते हैं - ‘‘प्रारम्भ में ईश्वर  ने स्वर्ग और पृथ्वी की सृष्टि की। अथाह गर्त पर अंधकार छाया हुआ था और ईश्वर  का आत्मा सागर पर विचरता था। ईश्वर ने कहा, ‘‘प्रकाश हो जाये, और प्रकाश हो गाया।’’ ईष्वर ने अपने मुख से वचन निकाला और जैसा उन्होंने कहा वैसा हो गया। वचन के द्वारा ईष्वर ने संसार को रचा। 

संत योहन कहते हैं उस वचन में जीवन था। ईश्वर जैसे कहते हैं वैसा क्यों हो गया - क्योंकि उस वचन में जीवन था। ईश्वर के वचन से जीवन मिलता है। 
ईश्वर के वचन में सामथ्र्य है। असंभव को संभव करने का सामर्थ्य। रोगों को चंगा करने का सामर्थ्य। पहाडों को हटाने का सामर्थ्य। स्तोत्र ग्रंथ 107ः20 - ‘‘उसने अपनी वाणी भेज कर उन्हें चंगा किया।’’ प्रज्ञा 16ः12 में लिखा है 7 ‘‘क्यांकि उसे किसी जडी-बूटी या लेप से स्वास्थ्यलाभ नहीं हुआ, बल्कि प्रभु तेरे शब्द ने उसे चंगा किया। ’’

ईश्वर के वचन के इस सामर्थ्य को देखते हुए शतपति ने प्रभु येसु से कहा था - मत्ती 8ः8 - प्रभु मैं इस योग्य नहीं कि आप मेरे यहाॅं आयें। आप एक ही शब्द कह दीजिए और मेरा नौकर चंगा हो जायेगा। येसु ने कहा - जैसा आपने विश्वास किया वैसा ही हो जाये और उसी क्षण उसका नौकर चंगा हो गया। 
संत मारकुस 4ः39 में हम पढते हैं - येसु ने वायु को डाॅंटा और समुद्र से कहा शांत हो जा! थम जा! वायु थम गई और पूर्ण शाॅंति छा गयी। 
येसु ने मृत लाज़रूस से कहा - लाजरूस! बाहर निकल आओ! और मृतक बाहर निकल आया। ईश्वर का वचन जीवन देता है। 
ईश्वर का वचन शक्तिशाली है- 
इब्रानियों 4ः12 ईश्वर का वचन जीवन्त सशक्त और किसी भी दुधारी तलवार से तेज हैं। 
आज के पहले पाठ में नबी इसायाह कहते हैं - ‘‘ मेरी वाणी मेरे मुख से निकल कर व्यर्थ ही मेरे पास नहीं लौटती। मैं जो चाहता था, वह उसे कर देती’’ 
ईश्वर का एक भी वचन व्यर्थ नहीं जाता। यदि प्रभु के मुख से वाणी निकलती है किसी को चंगा करने के लिए, तो वह उस व्यक्ति को चंगा कर के ही लौटेगी। यदि ईश्वर की वाणी निकलती है, मूर्दों को जिलाने के लिए तो वह मूर्दे को जिला कर ही लौटेगी। यदि ईश्वर की वाणी निकलती है किसी पापी के मन फिराव के लिए तो वह उसका मन फिराकर ही लौटेगी। 
वि.वि. 32ः47 में लिखा है - ‘‘ये तुम्हारे लिए निरे शब्द नहीं हैं, बल्कि इन पर तुम्हारा पूरा जीवन निर्भर है।  
ईश्वर के वचन नीरे शब्द नहीं इस पर हमारा जीवन निर्भर है। संत मत्ती 4ः4 में येसु ने कहा है मुनष्य से सिर्फ रोटी से नहीं जीता वह ईश्वर के मुख से निकलने वाले हर एक शब्द से जीता है। 
क्या हम वचन खाते हैं? ईश्वर का वचन खाने की चीज हैं। जि हाॅं ईश्वर ने अपना वचन हमें हमारे आध्यात्मिक भोजन के लिए दिया है। एजेकिएल 2ः8-9 मानवपुत्र मैं जो कहने जा रहा हूॅं उसे सुनो। अपना मुॅंह खालो और मैं जो दे रहा हूॅं उसे खा लो। मैं ने आॅंखें उपर उठाकर देखा कि एक हाथ मेरी ओर बढ रहा है और उस में एक लपेटी हुई पुस्तक थी। . . . मानवपुत्र मैं जो पुस्तक दे रहा हॅंू उसे खाओ और उस से अपना पेट भर लो। मैं ने उसे खा लिया मेरे मुॅंह में उसका स्वाद मधु जैसा मीठा था। 

हमारे जीवन के दो खास पहलू हैं - 1. आत्मा और 2. शरीर। हमारे शरीर को तंदुरूस्त रखने के लिए हम भोजन करते हैं, उसे कपडों से सजाते हैं, बिमार होने पर दवाईयाॅं लेते हैं, आदि। प्यारे साथियों शरीर जो कि नष्वर है, जो मरने के बाद कुछ काम का नहीं रह जाता उसका हम इतना ख्याल करते हैं। हमारे जीवन का खास हिस्सा हम हमारे शरीर की चिंता में बिता देते हैं। पर हमारी आत्मा का क्या? हम हमारी आत्मा के भोजन को लेकर कितने गंभिर हैं। आत्मा जो कि मरती नहीं। उसकी सेहत के लिए हम उसे कितना भोजन देते हैं। आत्मा का भोजन है - ईश्वर का वचन। संत मत्ती ने इसीलिए कहा है कि मनुष्य को जीने के लिए सिर्फ रोटी नहीं ईश्वर के वचन की भी जरूरत है।
अब हम सोचेंगे कि हम तो कितने ही सालों से वचन सुनते आ रहे हैं पर फिर भी वचन के सामर्थ्य का अनुभव इतना ठोस रूप से हमें क्यों नहीं होता? क्या हमने वचन के सामर्थ्य से बिमारों को चंगा किया है? क्या हम ने वचन के सामर्थ्य से मुर्दों को जिलाया है? क्या वचन का सामर्थ्य हमारे अंदर काम कर रहा है? क्या वचन ने मेरे जीवन को बदला है? ईश्वर का वचन सुनने के बाद भी मेरे जीवन में क्यों कुछ परिर्वतन नहीं आता या फिर मैं सुसमाचार सुनने के बाद भी क्यों अपना जीवन पहले की तरह ही जीता रहता हूँं? 
आज के सुसमाचार में प्रभु बोने वाले के दृष्टाॅंत के माध्यम से इसका जवाब दते हैं कि वचन तो सुनाया जाता है, वचन तो बोया जाता है पर सुनने वाले हृदय उसे किस प्रकार से ग्रहण करते और कैसे वचन को अपने जीवन में बढने देते हैं ये उनके ऊपर निर्भर करता है। प्रभु येसु आज तीन प्रकार के वचन सुनने वालों के बारे में हमें बतलाते हैं: पहला वे जो वचन सुनते हैं पर समझते नहीं, और शैतान वचन को चुरा ले जाता है। दूसरे वे लोग हैं जो वचन प्रसन्नता से ग्रहण तो करते हैं परन्तु उसे गहराई में नहीं उतारते, वचन को जडें जमाने नहीं देते । संकट और विपत्ती आने पर ये लोग वचन का साथ छोड देते हैं, प्रभु का साथ छोड देते हैं। तीसरे वे लोग हैं जो वचन तो सुनते हैं परन्तु वचन से ज्यादा वे अपने जीवन में दुनियाई चिंता और धन दौलत को अहमियत देते हैं। इसलिए ये चीजें वचन की वृद्धी और उसके फलों को दबा देते हैं। 
कुछ लोग हैं जो वचन को सुनते और उसका पालन भी करते हैं। उनके जीवन में वचन फलदायक रहता है। वे अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार फल उत्पन्न करते हैं कोई सौ गुना, कोई साठ गुना, और कोई तीस गुना।  

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